पूरे उत्तरी भारत में ठंढ का ऐसा आलम है की अखबार और टी वी चैनल वालों को उपयुक्त विशेषण नहीं मिल रहे हैं .अनुप्रास अलंकार की तो बात hin नहीं है .मित्र नीरज ने दिल्ली के कुहरे , ठंढक और उसमें बनते बिगड़ते मनोविज्ञान का बढ़िया खाका अपनी इस कविता में खींचा है. सुन्दर शब्द चयन और संगीतात्मकता से भरी इस कविता का आनंद उठायें. नीरज भारत सरकार में पदाधिकारी हैं. )
कुहेलिका . कुहेलिका
हिम विदीर्ण हवा की
कठिन यह पहेलिका .
यन्त्र रथी हुए रुद्ध
बद्ध गमन आगमन
जम गए जटिल क्षण
हिमनद हुआ गगन .
क्षीण स्मरण ताप से
पिघले प्रतीक्षा
स्वपन सहित स्वास की
कैसी परीक्षा .
- Niraj Kumar
Friday, January 22, 2010
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