Monday, April 27, 2009

बिहार विमर्श - 7 : अथ स्कूल कथा : उडी जहाज को पंछी फिर जहाज पै आवै

उडी जहाज को पंछी, फिर जहाज पै आवै 

आलेख - वीरेन्द्र 


'अथ स्कूल कथा' के नाम से जो संस्मरण लेकर मैं आपके सामने उपस्थित हुआ था, वह खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है. प्राईमरी स्कूल के बारे में तो जैसे-तैसे बात पूरी हो गयी है, किन्तु हाई स्कूल की चर्चा में अभी भी बहुत कुछ बाकी है. दरअसल, आरा का हरप्रसाद दास जैन स्कूल मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ था जिसकी चर्चा किये बगैर मेरे लिए यह बताना संभव नहीं हो पायेगा कि स्कूल हमारे जीवन में इतने महत्वपूर्ण क्यों माने गए हैं. 

सन् 1974 में राष्ट्रीय ग्रामीण छात्रवृति प्रतियोगिता में जैसे ही मेरा चयन हुआ, वैसे ही यह तय हो गया कि अब हाई स्कूल की पढाई के लिए मुझे अपना गाँव छोड़ना होगा. वैसे तो इस प्रतियोगिता का सफल छात्र जिले की तीन चयनित स्कूलों में से किसी भी स्कूल में दाखिला ले सकता था, किन्तु जैन स्कूल की बात ही कुछ और थी. इस स्कूल में पिछले 5 वर्षों में किसी भी छात्र को द्वितीय श्रेणी नहीं मिली थी और न ही कोई बोर्ड की परीक्षा में असफल हुआ था. यानी, सफलता का महाकुंड.

स्कूल के बारे इतना जानना ही काफी था, इसलिए बिना विलंब किये मैं अपने बड़े भाई के साथ आरा के जैन स्कूल में दाखिला लेने आरा आ गया. बड़ा भाई तब पटना कॉलेज में  पढ़ते थे  और सामान्य छात्रों की तुलना में ज्यादा स्मार्ट दिखते थे .  गाँव से चला तो मन में एक अजीब उत्साह था, किन्तु दाखिला लेते ही उत्साह की जगह निराशा ने मन में डेरा ड़ाल दिया. दाखिले के बाद बड़ा भाई पटना लौट गया और मैं स्कूल के हॉस्टल में. चूंकि यह मेरा पहला दिन था, इसलिए मुझे स्कूल के क्लासेज़ अटेंड नहीं करने पड़े. उल्टे, प्राचार्य ने एक चपरासी के साथ मुझे हॉस्टल में भेज दिया. वार्डेन थे रमाकांत जी - हिंदी के मर्मज्ञ विद्वान् और अनुशासन के पक्के. एक बही पर मेरा नाम लिखने के बाद उनने कहा कि कल से मुझे भी सही समय पर स्कूल जाना होगा; कि आज मुझे एक बीमार अन्तेवासी के साथ दिन भर हॉस्टल में ही रहना होगा.

न तो मैंने अबतक इतना बड़ा स्कूल देखा था और न ही हॉस्टल जैसा सुन्दर भवन. हमारा हॉस्टल आरा के ऐतिहासिक रमना मैदान के दक्षिण-पूर्वी कोने पर, शहीद भवन के ठीक सामने बना था. यह आरा के किसी पुराने रईस की हवेली थी जिसे स्कूल ने किराये पर उठा लिया था. यूं तो किसी शहर में यह मेरा पहला दिन था, किन्तु मुझे वहां कुछ भी आकर्षक नहीं लग रहा था. मन में कई-कई तरह के ख़याल उमड़-घूमड़ रहे थे. गाँव-घर, साथी-संगी, घर-परिवार को याद करके मन दुखी हो रहा था. आँखों से बरबस आंसू निकले पड़ते थे. कि तभी दोपहर के दो बजे, और मैं हॉस्टल की खिड़की से बाहर देखने लगा. अचानक मुखे शहीद भवन के परिसर में योगीन्द्र बस खड़ी दीखी. यानी, डूबते को तिनके का सहारा. यह बस शाम में आरा से सन्देश जाती थी और सुबह में सन्देश से आरा आती थी. मैंने फ़ौरन फैसला कर लिया कि चार बजने से पहले मैं हॉस्टल से भागकर बस में सवार हो जाऊंगा. भाई पटना वापस लौट गए थे और गाँव में मां के अलावा कोई पूछताछ करनेवाला भी नहीं था. यानी, खुद ही भयो कोतवाल, अब डर काहे का. इधर तीन सवा तीन बजे का समय हुआ और उधर मैं अपनी गठरी लेकर फुर्र. जा पहुंचा योगीन्द्र बस में. विजय जो उस बस का कंडक्टर हुआ करता था, वह मेरे गाँव के सभी लोगों को जानता था. मैंने खतरा महसूस किया कि हो न हो यह आदमी मेरे किये-कराये पर पानी फेर देगा. मैं उससे तबतक आंखमिचौली करता रहा जबतक बस ने खुलने से पहले की अंतिम सिटी नहीं बजा दी. फिर बड़े इत्मीनान से पीछे की एक सीट पर जा बैठा और शाम होते-होते अपने गाँव अह्पुरा पहुँच गया. 

मां ने इतनी जल्दी लौट आने का कारण पूछा तो मैंने कह दिया कि स्कूल एक हफ्ते के लिए बंद हो गया है. यह एक हफ्ता बढ़ते-बढ़ते कब और कैसे पांच महीने के बराबर हो गया, पता ही नहीं चला. स्कूल से गायब हुए मुझे अब पांच महीने हो गए थे. छमाही परीक्षा की तिथियाँ घोषित हुईं और एक दिन स्कूल का वही चपरासी जो मुझे स्कूल से हॉस्टल लेकर आया था, प्राचार्य का सम्मन-पत्र लिए मेरे गाँव आ धमका. उसका नाम रामपुकार था और वह शरीर से काफी कट्ठा -कट्ठा भी था. उसने मां को सबकुछ बता दिया. जीवन में शायद पहली दफा मां से मुझे तभी डांट खानी पड़ी थी. इस तरह मैं एकबार फिर उसी जहाज पर आ गया जिसे छोड़कर फुर्र हुआ था. 

छमाही की परीक्षाएं एक हफ्ते बाद होनी थीं और मेरे पास अभीतक सभी किताबें भी नहीं थी. मन एक अजीब अपराध-बोध से पीड़ित था. डर लगने लगा कि कहीं परीक्षा में फेल न हो जाऊं. समय इतना कम था कि चाहकर भी सभी विषयों की तैयारी संभव नहीं थी. गणित, रसायनशास्त्र और भौतिकी की किताबें कहीं से भी पल्ले नहीं पड़ रही थीं. यानी करिया अच्छर भैंस बराबर. लेकिन अब उपाय ही क्या था? परीक्षाएं शुरू हुईं और जैसे-तैसे मैंने भी उसमें अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली. जो परिणाम निकला, वह चौंकानेवाला नहीं था, अपितु डरानेवाला था. विज्ञान और गणित में इतने कम अंक आये थे कि मैं उसे किसी भी सूरत में अपनेभाईअथवा पिताजी को नहीं दिखा सकता था. अब बता दूं कि इन विषयों में मेरे अंक वितरण कैसे थे. गणित के प्रथम पत्र जिसमें सिर्फ अंकगणित के प्रश्न होते थे, मैं खींच-खांचकर 100 में से 30 अंक प्राप्त करने में सफल हो गया. लेकिन, ऊच्च गणित, रसायनशास्त्र और भौतिकी में शून्य से ही संतोष करना पड़ा. वर्ग शिक्षक ने मेरी प्रगति रिपोर्ट पर टिपण्णी जड़ दी थी कि मैं विज्ञान की पढाई नहीं कर सकता; कि अगले वर्ष मुझे कला संकाय में ही पढ़ना होगा. सिर्फ ईश्वर जानता है कि मैं उस दिन कितना रोया था. रात भर नींद नहीं आयी, रात भर यही सोचता रहा कि अब मां, पिताजी, भाई तथा संगी-साथियों को अपना मुहं कैसे दिखाऊंगा. इलाके में शोर था कि पहलवान साहब का यह बेटा एक दिन जरूर उनका नाम रौशन करेगा. लेकिन, होनी को कौन टाल सकता है! खैर, मैंने उनकी नाक नहीं कटने दी और बाएँ हाथ से प्रगति रिपोर्ट पर पिताजी का नाम लिखकर स्कूल में जमा कर दिया. रिजल्ट देखकर मन इतना दुखी था कि किसी से बात करने की भी ईच्छा नहीं हो रही थी.

स्कूल की छुट्टी हुई और मैं अपने बेड पर आकर निढाल हो गया. मेरे बेड से सटा हुआ बेड जिस लडके का था, उसका नाम अनुग्रह था. उसके व्यक्तित्व में एक अजब तरह की रवानी थी. उसके कपडे-लत्ते देखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता था कि वह गुदरी का लाल है. पूरे हॉस्टल में वह एकमात्र ऐसा छात्र था जिसे किसी ने कभी उदास नहीं देखा. उसमें हंसने-हँसाने की अद्भूत काबिलियत थी. लेकिन जो चीज उसके व्यक्तित्व को ईश्वरीय आभा प्रदान करती थी, वह थी उसकी संवेदनशीलता. उसने ताड़ लिया कि मैं बहुत दुखी हूँ; कि मुझे एक अदद साथी की ज़रुरत है. उसने चुहल भरे अंदाज़ में पूछा, "क्या हुआ? किसी ने तुम्हारी पिटाई तो नहीं कर दी? चलो, साले की अभी और यहीं ऐसी-तैसी कर दूं." उसकी बातें मुझे इतनी बचकानी लगीं कि मैं अनायास हंस पड़ा. वह भी खिलखिलाने लगा. बिना देर किये मैं पूछ बैठा कि क्या मैं सचमुच विज्ञान नहीं पढ़ सकता? उसके होंठों पर एक स्मित मुस्कान खिल उठी. उसकी इस निर्मल हंसी ने मेरे मन की पीडा हर ली. ढांढस बंधाते हुए उसने सहज लहजे में कहा, "तुम्हें ऐसा क्यों लगता है? विज्ञान पढ़ने से ज्यादा आसान कोई चीज नहीं होती. अबतक जितनी पढाई हो चुकी है, उसे मैं तुम्हें एक हफ्ते में पढा दूंगा." अचानक मेरा मन भी निर्मल हो गया. मैंने मन ही मन ठान लिया की अब पढूंगा तो विज्ञान ही, वरना कुछ नहीं. शुरुआत हुई उच्च गणित से. अनुग्रह ने मुझे दो अध्याय पढाया. मुझे लगने लगा कि गणित कोई मुश्किल काम नहीं है. वास्तव में मैं इतना उत्प्रेरित हो गया कि रात में सोने के बजे मैं उच्च गणित के सवाल हल करने लगा. सुबह चार बजे तक मैं पूरी किताब ख़त्म हो गयी. इसी तरह मैंने रसायनशास्त्र, भौतिकी और अंकगणित किताबें भी हल कर डाली. नतीजा चौंकानेवाला साबित हुआ. सालाना इम्तहान में मुझे गणित सहित विज्ञान के सभी विषयों में अव्वल अंक मिले और मैं अपनी कक्षा में द्वितीय स्थान प्राप्त कर सका. इतना आत्मविश्वास मेरे जीवन में दुबारा कभी नहीं आया. धन्य है वह मित्र और धन्य वह स्कूल! सोचता हूँ कि अगर रामपुकार मुझे गाँव से पकड़कर दुबारा स्कूल में नहीं लाया होता और स्कूल में अनुग्रह जैसा दोस्त न मिला होता तो मैं क्या होता? 

आज जब पलटकर पीछे के जीवन को याद करता हूँ तो लगता है कि अनुग्रह सिर्फ मेरी सहायता के लिए जैन स्कूल आरा में आया था. वह मेधावी था, किन्तु अत्यंत गरीब भी था. नवीं कक्षा में उसकी शादी हुई. हॉस्टल के दोस्तों में मैं अकेला था जो उसकी शादी में शरीक हुआ था. बनाही स्टेशन से करीब तीन मील पश्चिम उसका गाँव था. वह जाति का कुम्हार था और उसके पिता गाँव के दूसरे खेतिहर किसान की बनिहारी करते थे. मुझे आज भी वह दृश्य याद है जब मैं अनुग्रह के साथ उसके गाँव पहुंचा था. उसके पिता ने खड़े होकर मेरी आवभगत की थी और अपनी बेटी को सख्त हिदायत दी थी कि मेरे लिए अलग से स्वादिष्ट खाना पकाए. मैं इस स्वागत से विभोर था. मैंने पूरी विनम्रता से उनके इस आदेश को नामंजूर कर दिया और जिद्द कर बैठा कि मैं भी वही खाऊँगा जो सभी खायेंगे. शादी का घर और भोजन के रूप में सत्तू का आहार! सच ही, गरीबी क्या जाने कि उत्सव! अब मैं पक्के यकीन के साथ कह सकता हूँ कि कृष्ण को विदूर की साग-रोटी क्यों अच्छी लगती होगी. स्कूल की पढाई तो अनुग्रह ने जैसे-तैसे पूरी कर ली, किन्तु गरीबी ने उसे कॉलेज की पढाई नहीं करने दी. प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा उतीर्ण की थी उसने और उसे अंक भी अच्चे भले मिले थे.

बाद में पता चला कि वह एयर फोर्स में सिपाही हो गया है. स्कूल छोड़ने के बाद सिर्फ एकबार ही मैं उससे मिल सका. वह भी आरा स्टेशन पर. मैंने जिद्द कर डाली और उसके साथ तीन दिनों के लिए उसके गाँव पहुँच गया. तबतक उसके घर की गरीबी ढह चुकी थी और घर में नए जीवन का संचार हो चूका था. उसकी पत्नी रमावती एक कुशल गृहणी के रूप में उसके दो बच्चों (एक बेटा, एक बेटी) की बड़े अच्छे ढंग से परवरिश कर रही थी और पिता ने बनिहारी छोड़कर गाँव में ही नून-तेल की दूकान खोल ली थी.

काश, कभी फिर मिलना हो उससे!

यह कृष्ण-सुदामा की दोस्ती नहीं थी, बल्कि दो सुदामाओं की दोस्ती थी.

खुदा उसे और उसकी निर्मल हंसी को सलामत रखे. 


('अथ स्कूल कथा' की अगली तीन कडियाँ क्रमशः मित्र कौशल के सिपुर्द की जाएँगी  वे उन्हें अपने ब्लॉग पर बिठाते रहेंगे. तबतक के लिए खुदा हाफिज़.)

वीरेन्द्र 


Saturday, April 25, 2009

बिहार विमर्श : 6 : पटना कॉलेज के शुरूआती अनुभव

वीरेन्द्र पटना कॉलेज में दाखिले के बाद के शुरूआती अनुभव बता रहें हैं .पढें और इस विमर्श को आगे बढायें. 

'अथ स्कूल कथा' से आगे की दास्तां पहले छपरा और बाद में पटना में शुरू हुई. स्कूल की पढाई पूरी करने के बाद मैं पहले छपरा गया जहाँ के नामी-गिरामी राजेंद्र कॉलेज में मेरे बड़े भाई की नियुक्ति व्याख्याता के पद पर हुई थी. आर्थिक तंगी और पारिवारिक खर्चे में क़तर-ब्योंत की मजबूरी ही मुझे छपरा ले आई थी, वरना ईच्छा तो मेरी शुरू से ही पटना के साइंस अथवा पटना कॉलेज में पढ़ने की थी. खैर, छपरा कई कारणों से मेरी रूचि का केंद्र नहीं बन सका और इसीलिए वहां के अनुभवों का न तो मेरे पास कोई मुकम्मल फेहरिस्त है और न ही कोई ऐसी मिसाल जिसका ज़िक्र करना मुझे लाजिमी लगे. जैसे-तैसे करके दो साल गुज़र गए और मैं विज्ञानं में इंटर की डिग्री हासिल करने में सफल हो गया. अलबत्ता, इन दो सालों में मेरा कायाकल्प हो गया था. स्कूल में मैं विज्ञान का एक मेधावी छात्र हुआ करता था, किन्तु छपरा प्रवास के दौरान यही मेधा सबसे ज्यादा कुन्द हुई. अब मैं चाहकर भी इंजिनियर बनने का ख्वाब नहीं पाल सकता था. ले-देकर मेरे सामने एक ही विकल्प रह गया था कि किसी तरह पटना कॉलेज में नामांकन लूं और प्रशासनिक सेवा में जाने की भरपूर कोशिश करुँ.

और इस तरह मैं सन् १९८१ में समाजशास्त्र के छात्र के रूप में पटना के पटना कॉलेज में दाखिल हो गया. बता दूं की पटना कॉलेज मेरे लिए कतई अजाना नहीं था. मेरे बड़े भाई इसी कॉलेज से राजनीतिशास्त्र में सन् १९७८ में ही स्नातक हो चुके थे. इसके अलावा, भैया के कई दोस्तों के छोटे भाई भी तबतक पटना कॉलेज में दाखिला ले चुके थे. गरज फ़क़त इतनी है कि पटना कॉलेज में आते ही मुझे विरासत के रूप में पूरा का पूरा कुनबा हासिल हो गया था. चूंकि मसाला कुनबे का था, इसलिए उसमें किसी गैर-जातीय की उपस्थिति लगभग गायब थी. अलबत्ता, एक-दो ऐसे परिचित भी थे जो मेरी जाति के नहीं थे. खैर, इस मंडली के निर्माण में मेरी कोई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भागीदारी नहीं थी और इसीलिए मुझे न तो उसका मलाल था, न ही फक्र. मेरे लिए उनके लिए, सबके लिए ऐसी मित्र-मंडलियाँ प्रकारांतर से सुरक्षा कवच मुहय्या कराने का भ्रम पैदा कराती थीं.

अजब न होगा अगर कहूं कि पटना कॉलेज मेरे लिए अपने टूटे-अधटूटे सपनों को फिर से जोड़ने का एक अदद मुकाम बनकर आया था. सुनते आया था कि पटना कॉलेज से स्नात्तक की डिग्री कोई मामूली चीज़ नहीं होती, क्योंकि यह कॉलेज बिहार का ऑक्सफोर्ड माना जाता था. कॉलेज में दाखिला लेने के साथ ही छात्रावास में कमरा पाने की ललक और ज़रुरत सामने आन पड़ी. इंटर में मुझे जितने अंक मिले थे, उसके आधार पर मुझे आसानी से जैक्सन अथवा मिन्टो हॉस्टल मिल जाता, किन्तु ऐसा हो न सका. मिन्टो हॉस्टल के वार्डेन गोपाल बाबु ने सुझाया कि पहले मैं न्यू हॉस्टल में दाखिला ले लूं; फिर एक-दो महीने बाद वे मिन्टो हॉस्टल में मेरी भर्ती कर लेंगे. न्यू हॉस्टल तबतक बैकवर्ड -फारवर्ड संघर्ष का केंद्र बन चूका था. वहां रहनेवाले छात्र पढाई के लिए कम और लडाई के लिए ज्यादा जाने जाते थे. मुझसे भी कहा गया कि मैं आग में न कुदूं. लेकिन न कूदता तो रहता कहाँ? वैसे मेरे रहने के लिए मंडली के पास फोकटिया व्यवस्था मौजूद थी. जैक्सन हॉस्टल का तीन कमरों का आउट हाउस मित्र-मंडली के कब्जे में विगत कई सालों से था. कब्ज़ा जमाने में चूंकि मेरे बड़े भाई का भी यथेष्ठ योगदान था, इसलिए मेरी उपस्थिति किसी को नागवार नहीं गुज़रती. इसके अलावा, न्यू हॉस्टल का पांच कमरों का आउट हाउस भी मेरे कुनबे के पास था. फिर भी, मैं चाहता था कि मैं अलग रहूँ. यही सोचकर मैं अस्थायी रहवासी के तौर पर न्यू हॉस्टल में जाने के लिए तैयार हो गया.

तैयार तो हो गया लेकिन हॉस्टल में प्रवेश पाने के लिए इतना काफी नहीं था. कहा गया कि बेहतर यही होगा कि जो कमरा मुझे आवंटित किया गया है, उसके पुराने रहवासियों की पूर्व-सहमति ले लूं ताकि बाद में पछताना नहीं पड़े. शाम के वक़्त मैं अपने एक साथी के साथ अपने आवंटित कमरे के एक पुराने रहवासी से मिला और फरियाद की कि मुझे तत्काल रहने की ईजाज़त दी जाये. जी हाँ, उनका नाम योगीन्द्र सर था और वे भी राजपूत थे. फॉरवर्ड ब्लाक में उनकी तूती बोलती थी, उनके कृपापात्र हुए बगैर किसी की औकात नहीं थी कि वह हॉस्टल में रहवासी बन सके. उनने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और पूछा कि क्या मुझे किसी ने बताया नहीं कि उनके कमरे में अब कोई ज़गह नहीं है. प्रत्युत्तर में मैंने कहा कि आपका कमरा तो चार छात्रों के लिए है और अभी उसमें सिर्फ दो ही हैं. मेरी बेवकूफी पर वे ठठाकर हंस पड़े और पूरे मसले को अपने मित्र के हवाले कर दिया. पहला करेला, दूजा नीम और दोनों के बीच दांत काटे की रोटी का रिश्ता. उनके मित्र ने साफ शब्दों में कह दिया कि इस कमरे में तो वे सिर्फ दो ही रहेंगे और मैं किसी और कमरे में अपना इन्तेजाम कर लूं. मेरी सूरत देखने लायक थी. लेकिन मेरी मंडली के मित्र के चहरे पर कोई शिकन नहीं आयी. उसने चलते हुए सिर्फ इतना कहा कि ठीक है, हम शाम में फिर आयेंगे.

दरअसल, मुझसे एक गलती हो गयी थी. छूटते ही मुझे बता देना चाहिए था कि मैं भी एक ठाकुर हूँ और मेरी भी यहाँ एक मंडली है. शाम को मैं राजेंद्र भैया के साथ फिर न्यू हॉस्टल पहुंचा और सीधे अपने आवंटित कमरे के दरवाज़े पर दस्तक दे दी. योगीन्द्र सर कमरे से बाहर निकले और अनिद्रा में ही राजेंद्र भैया को देखकर ठिठक गए. राजेंद्र भैया ने मुझसे कहा कि मैं इस कमरे के पुराने रहवासियों के सामान निकाल कर बाहर फ़ेंक दूं और अपना बोरिया बिस्तर किसी एक बेड पर लगा लूं. योगीन्द्र सर को शुरू में इस जवाबी हमले की उम्मीद नहीं थी. वे गिरगिराने लगे और कहने लगे कि मैं कितना भोला हूँ; यह भी न बताया कि मैं राजेंद्र भैया का करीबी हूँ. इत्तेफाक देखिये कि हॉस्टल में आते ही मैं मशहूर हो गया. कानों कान खबर फैल गयी कि मैं कोई मामूली शख्स नहीं हूँ, कि मुझसे पंगा लेना खतरे से खाली नहीं होगा. बिन चाहे, लम्पटों की ज़मात का सिरमौर मान लिया गया. ऊपर से तुर्रा यह कि न्यू हॉस्टल में दाखिला लेनेवालों में मेरे अंक सबसे ज्यादा थे, सो मैं हॉस्टल का आधिकारिक बॉस भी बना दिया गया. यानी, दो नावों पर सवारी करने का जोखम.

बाद के दिनों में योगीन्द्र सर मेरे सबसे बड़े शुभचिंतक साबित हुए. उन्हीं की सोहबत में मैं न्यू हॉस्टल के पिछवाडे की टूटी दीवारों पर बैठकर शाम का वक़्त गुजारता, गणेश दत्त हॉस्टल से आनेवाली और जानेवाली लड़कियों को लालची निगाहों से निहारता. वक़्त-बे-वक़्त उन लड़कियों को हम बड़ी बेअदबी से भाभी का संबोधन देते और अगर वे इस संबोधन पर गुस्सा करतीं तो हम उनकी ऐसी-तैसी करने में भी कोई गुरेज़ नहीं करते. नतीजा यह हुआ कि लड़कियों से दोस्ती की संभावना सदा-सदा के लिए निर्मूल हो गयी. योगीन्द्र सर मेरे हनुमान थे और बिन बुलाए मेरी ओर से किसी के साथ लम्पटई करने पर उतारू हो जाते थे. वे जानते थे कि मेरी दिलचस्पी पढाई में है, सो वे पूरी कोशिश करते कि कोई मुझे किसी तरह पढ़ने में बाधा न पहुंचाए. यहाँ राज़ की एक बात और बता दूं. योगीन्द्र सर अपने जुराब में हमेशा चिलम छुपाये रखते थे और कमीज़ के पॉकेट में गांजे की पुडिया. सबसे पहले मैंने गांजा उन्हीं के साथ पी थी. कभी-कभी वे मुझे शराब भी पिलाते थे लेकिन इस हिदायत के साथ कि शराब पीना अच्छे विद्यार्थी के लिए अच्छी बात नहीं होती. मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि योगीन्द्र सर से ज्यादा मुहंफट और बेअदबी आदमी मैंने आजतक नहीं देखा है. जिस विश्वास के साथ वे लड़कियों को गाली दे लेते थे, हाथापाई करने पर उतारू हो जाते थे वह सबके बूते की बात नहीं थी. वे मानते थे कि अगर लड़कियाँ कॉलेज में पढ़ेंगी तो लडके छेड़खानी करेंगे ही. 

आज इतना ही. पटना कॉलेज के अनुभव, क्या कहिये, हरि अनंत हरि कथा अनंता. आगे की कड़ी का इंतज़ार आपकी तरह मुझे भी रहेगा. तबतक के लिए इसी से संतोष करें.

वीरेन्द्र 

Friday, April 24, 2009

चल रे मन कहीं और चल .

चल रे मन कहीं और चल
ले चल मुझे सावन के फुन्हारों के बीच
पूर्वा हवा और सफ़ेद दीवाल बना ,
आता हुआ बारिस का झोंका .
कुएं के पास की दीवाल पर चढ़ ,
पेड़ के पके अमरुद के पास
कि झट पट खायूँ ,
उतरूं और भागूं घर की ओर .
बारिस से बचते - बचाते हुए .

चल रे मन , कहीं और चल
भादो - आसीन के धान के खेतों से गुजरते रास्तों पर चल .
गदराते धान के खेत ,
और उससे गुजरती आरियों पर ,
साफ़ पानी से भरे हुए धान के खेत ,
पयीन ,अहरी और उसमें स्वछन्द तैरती अनगिनत छोटी मछलियों के बीच
पकड़ने दे उन्हें अपनी नन्हीं अँगुलियों से .

चल रे मन कहीं और चल
फगुनाहट की मस्त हवा ,
रस्ते के बगीचे में
आम के मंजर की भीनी खुसबू
पेडों पर कूकती कोयल
माँ के संग कहानी सुनते सुनते स्कूल जाते हुए

चल रे मन कहीं और चल .
दादी के साथ
चाँदनी रात में गाते - खाते हुए
गंगा मईया के गीतों को सुनते - सोते हुए .
चल रे मन कहीं और चल
.

Saturday, April 18, 2009

मेरे हमउम्र मुस्लिम लड़के कहाँ थे ?

 

1970 से लेकर 1990-91 तक के मेरे विद्यार्थी काल में मेरे हम उम्र मुस्लिम लड़के कहाँ थे ?

मेरा यह मानना है के अगर समाज अपनी बुनावट में सतरंगी है तो सातो रंग , हर सामाजिक इकाई में दिखें ,यही स्वाभाविक कहा जायेगा . और अगर मेरी इस मान्यता को सुधी और गुणी जन सही मानते हैं तो यह प्रश्न वाजिब है की अपने दौर के उस जमात के लड़कों की खोज की जाय .

मेरी पैदाईस जिस गाँव में हुई वह सन 1947 के पहले मुस्लिम बहुल गाँव था . 
1946 के सितम्बर महीने में यूं तो पूरे देश में सांप्रदायिक राजनीति , घृणा और दंगे पूरे उफान पर था पर बिहार का मगध क्षेत्र ख़ास कर पटना और बिहार शरीफ का इलाका धू - धू कर जल रहा था .बिहार के इस इलाके में साम्प्रदायिकता की आग को फौरी तौर पर मुस्लिम लीग के द्वारा प्रायोजित डायरेक्ट एक्शन डे और कलकत्ता और नोआखाली के दंगों की प्रतिक्रिया लोग बाग कहते रहे हैं .खैर कारण जो भी रहें हों उन दंगों ने इस इलाके के सांस्कृतिक भूगोल और सामजिक ताने बाने को पूरी तौर से बदल दिया .मुस्लिम गाँव लुटे और जलाए गए . सामूहिक नरसंहार की स्मृतियाँ आज भी पटना और नालंदा जिले के सामुदायिक स्मृति में कायम है.

ग्रामीण जन आज भी काल गणना के लिए तीन सन्दर्भों का उपयोग करते हैं- १९३४ का भूकम्प - भुईआं डोल , सितम्बर 1946 का दंगा - राईट या मियाँ मारी और 1966 का अकाल - सुखाड़ . मेरा गाँव उस पुरे इलाके के चंद गाँव में से एक था जहां बाहरी लोग लूट मार करने में सफल नहीं हो पाए. बाद में शांति बहाल होने पर इलाके की मुस्लिम जनता गाँव को छोड़ कर शहरों - बिहारशरीफ, हिलसा , इस्लाम पुर ,पटना / पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान का रुख कर गयी.मुसलमानों के घर और खेत को लोग खरीदने और हथियाने लगे . 

मेरा गाँव भी मुस्लिम परिवारों से खाली होने लगा .मेरे होश में गाँव में दो तीन घर ही मुसलमान बचे थे.एक मेरे पडोसी मूसा मियाँ का परिवार .मुसा मियां घर के सामने की मस्जिद में अजान देते थे और इलाके भर के लिए झाड़ फूँक का काम भी करते थे . साईं के तौर पर फसल कटाई के समय खेत खेत घूमते थे ,किसान श्रधा पूर्वक फसल का कुछ हिस्सा दे देते थे. रोजी रोटी का बाकी मसला परचून की एक दूकान और बीडी बना कर चलाते थे.
मूसा मियाँ मेरे उर्दू शिक्षक भी थे. मैं और मेरे हम उम्र उनका लडक इसा एक साथ उर्दू पढ़ते थे. इसा मेरे साथ पांचवी छठी तक हीं पढा ,बाद में वह कम उम्र में सिलाई का काम सिखाने के लिए अपने बड़े भाई के पास मसौढी चला गया .

मां के स्कूल से सातवीं पास कर मैं पटना कौलेजीअट स्कूल आ गया . १९७५ में कौलेजीअट स्कूल में सौ डेढ़ सौ छात्रों में , जहां तक स्मरण है तीन चार मुस्लिम लडके भी नहीं थे .

बाद में नैनीताल के आवासीय विद्यालय में एक गोरखपुर का मुस्लिम सहपाठी से मुलाकात हुई .खुर्शीद अहमद रिजवी . उसने दसवीं क्लास में एक नाटक लिखा था . मेरे हाउस मास्टर की प्रेरणा से उस नाटक का स्कूल ऑडिटोरियम में सफल मंचन हुआ था . रिजवी दसवीं के बाद स्कूल से वापस गोरखपुर चला गया . पूरे स्कूल में 550 छात्रों में बीस पच्चीस मुस्लिम छात्र थे . उसमें भी ज्यादा तर बिहार के .बाबर सुलतान , जो गया का रहने वाला था , 1982 में अपनी प्रतिभा के बदौलत स्कूल का हेड बॉय बना .

थोडा और आगे चलते हैं दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज और खास कर होटल में - हॉस्टल के 175 छात्रों में एक भी मुसलमान नहीं .जहाँ तक स्मरण है इकोनोमिक्स ओनर्स के क्लास में एक भी मुसलमान नहीं छात्र या छात्र नहीं . चलिए थोडा और आगे बढा जाय .
 दिल्ली विश्वविद्यालय का दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स -
एम् ए अर्थशाश्त्र में हम सब कुल १५० छात्र छात्राएं .पर एक भी मुसलमान नहीं . उसके बाद फिर जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में जाना हुआ और वहाँ मुस्लिम छात्रों की अछि तायदाद थी . पर वहाँ भी ज्यादा संख्या में उर्दू फारसी और अरबी पढ़ने वाले. और अधिकतर बरास्ता अलीगढ विश्वविद्यालय , जे एन यू पहुंचे थे.

पंद्रह - सत्रह सालों के इस सफ़र में इस तरह चंद मुस्लिम सहपाठी मिले.

जानने का मन करता है के इस मजहबी जमात के मेरे हमउमर कहाँ थे और क्या कर रहे थे ?

Friday, April 17, 2009

बहुत कठिन थी डगर पनघट की

सुजीत चौधरी : अपने नए संपादित पोस्ट में मित्र सुजीत पटना शहर और कॉलेज के शुरुयाती अनुभव को विस्तार से बता रहें हैं.बातें आप बीती हैं पर जमाने के दर्द और हसरतों को समेटे हुए.

( मित्र कौशल ने बिहारी विद्यार्थियों के दिल्ली जाने के शुरुआती दौर , उस समय के बिहार के (खासकर पटना के) कॉलेज और पटना विश्वविद्यालय की स्थिति और विशिस्ट सामाजिक - आर्थिक और राजनीतिक कारणों की चर्चा कर एक विचार-विमर्श का प्रारंभ किया है. मैंने भी पटना में स्नातक की पढ़ाई की है इसीलिये कौशल जी ने मेरे अनुभवों को पोस्ट करने को कहा. मैं अपने B. N. College के अनुभवों को लिख रहा हूँ. )


मैंने १९८१ में रांची से intermediate (विज्ञान) किया . उसी दौरान मेरी रूचि सामाजिक विज्ञान की और बढ़ी और समाजशास्त्र (sociology) पदने के लिए पटना गया. सच कहूं तो मुझे रांची छोड़ना था और मैंने ऐसा विषय चुना जिसकी पढाई रांची विश्वविद्यालय में नहीं थी. पटना में सिर्फ एक ही करीबी दोस्त था जो बिहार इंजीनियरिंग कॉलेज में mechanical इंजीनियरिंग पढ़ रहा था. उसने उसी समय admission लिया था और मुस्सलह पुर हाट के एक लौज में रहता था. मेरा दोस्त पटना में दो साल गुजार चुका था क्योंकि वह मुझसे सीनियर था और I.Sc. की पढ़ाई उसने साइंस कॉलेज से की थी हालाँकि वह लौज में ही रहता था. उसने मुझे पटना दिखाया -घुमाया. अशोक राजपथ, बोरिंग कैनाल रोड, , गाँधी मैदान, गोल घर, गंगा घाट, सिनेमा घर, आदि आदि.
गाँधी मैदान का एक खास आकर्षण था : रोज़ शाम को एक आदमी अपना मजमा लगता था. उसके चारो तरफ हरेक उम्र के लोग कौतुहल और विमुग्ध होकर उसकी बातें सुनते थे. वह काफी हँसता -हँसाता था . वह एक खास नुस्खे की दवा बेचता था : योन शक्ति बढ़ने की दवा. उसका दावा था की उस दवा के ताकत से बूढा अधमरा व्यक्ति भी खटिया तोड़ सकता है. हमें तो उस दवा की जरूरत तो थी नहीं, जरूरत थी उस योंन मायालोक के तिलस्मी मनोरंजन की .
कभी-कभी हम नाश्ते के लिए अशोक राजपथ जाते थे. हम collegiate गली के समोसे और जलेबा (जलेबी स्त्रीलिंग तो जलेबा अपनी विराटता के लिए जलेबा) के मुरीद थे. वहां विद्यार्थियों का हुजूम लगा रहता था खासकर पटना में कोचिंग लेने वाले विद्यार्थ्यीयों से. उस वक्त कोचिंग स्कूल्स का व्यवसाय जोरों से शुरू हुआ था क्योंकि हमारे हमउम्र के विद्यार्थियों का और खासकर उनके अभिभावकों का सपना होता था : मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला. यह शिक्षा के व्यापक व्यवसायीकरण का शुरुआती दौर था.
पटना में उस समय B. A. का admission शुरू नहीं हुआ था. खैर एक दो महीने के बाद मेरे दोस्त को हॉस्टल मिल गया जो law college के पास था और मजबूरन मुझे भी उसके साथ वहां रहना पड़ा. हॉस्टल में आकर पता चला की वह हॉस्टल तथाकतित scheduled castes और Backward castes के लिए अनौपचारिक रूप से आरक्षित था. law college पर उसी तरह ऊँचे वर्णों का वर्चस्व था. धीरे धीरे जाति, जातिय समीकरण और छात्रालयों में उनकी प्रभुता या प्रभुत्व जमाने की होड़. मुझे पता चला की फॉरवर्ड जाति-वर्ग में राजपूत और भूमिहार के बीच नहीं पटती. संक्षिप्त में कहा जाये तो एक और राजपूत-भूमिहार के बीच का दरार और उससे उपजी हिंसा तो दूसरी तरफ फोर्वार्ड और बैक्वार्ड जातियों का उभरता हुआ ध्रुवीकरण.
मजे की बात यह की मेरा दोस्त Backward जाति का था और हम दोनों में जातिगत कोई भावना ही नहीं थी लेकिन उसने मुझे अपने हॉस्टल में 'Backward' घोषित कर दिया. मेरे survival के लिए यह एक मामूली सा समझौता था जो मुझे कभी अखरा भी नहीं और मेरा surname भी इतना सर्वव्यापी था की किसीको कोई शक नहीं हुआ. उस हॉस्टल के मुखिया थे वीर सिंह (नाम बदला है ) उसे मेरी ग़ज़लें पसंद थी . वह एक बुद्धिमान और प्रतिभाशाली विद्यार्थी था जो धीरे-धीरे जातिगत हिंसा के दलदल में फंसता जा रहा था. वर्तमान में मिलने वाला दबदबा उसकी हौसला-आफज़ाई कर रहा था. उसने एक दिन मुझे देसी तमंचा दिखाया और एक दिन जब सिर्फ हम दोनों अकेले थे तो उसने कहा मैं जानता हूँ तुम Backward नहीं हो लेकिन यह राज राज ही रहे. उसदिन के बाद मैं और मेरा दोस्त काफी सहमे रहते थे की किसी तरह मेरा राज न खुल जाए .
खैर थोड़े दिनों में मुझे B. N. college के हॉस्टल में दाखिला मिल गया. मैंने B. N. college में इस लिए दाखिला लिया था क्योंकि कुछ सीनियर विद्यार्थिओं के सुझाव के मुताबिक, वहां का sociology विभाग पटना college से बेहतर था. हॉस्टल काफी भब्य था बिलकुल college के पास. हॉस्टल के वार्डेन जो मेरे विभागाद्ययक्ष भी थे मेरे पिताजी को जानते थे और उन्होंने एक अच्छा (?) सा कमरा allot कर दिया. पहले ही दिन जब मैंने अपना सामान रखकर बड़े से गोदरेज ताले से कमरा बंद कर गाँधी मैदान जाकर और वहां की घास पर लेटकर वापस लौटा तो पाया की कमरे की चाभी गाँधी मैदान में खो गयी है. वापस मैदान में ढूँढने की कोशिश नाकाम रही. लाचार होकर सब्जी बाग़ गया और लोहा काटने का ब्लेड खरीदा और दो घंटे लगे , गोदरेज का ताला काटने में. हॉस्टल में मैं किसीको नहीं जानता था. दो-तीन बाद एक नया रूममेट आया , जाति का राजपूत, उद्दंड स्वाभाव और राजधानी के मौजूदा फैशन से कदम से कदम मिलाने वाला. हालाँकि, अपने क्लास में कुछ day scholars से मित्रता बढ़ी और अकेलापन कम होने लगा. मेस में कुछ और मित्र बने.
मेस में मैथिल बावर्ची और कर्मचारी थे. मेरे कमरे की खिड़की मेस की ओर खुलता था. अपना कम खतम कर वे गांजा -बीडी पीते और जोर जोर से बतियाते थे जो मेरे पोस्ट-लंच siesta में खलल डालता था. मेरी काफी झड़पे होती थीं. मेस का एक आकर्षण था : आलू का कुरकुरा ( छना हुआ ) भुंजिया , जो सभी काफी चटक से खाते थे. कुछ मित्र अपने साथ अचार और घी लाते थे . हाँ, एक चीज़ मेरी नज़र में पड़ी की कुछ खास लोगों के लिए खास खाना banta था और उन्हें रूम-सर्विस की सुविधा थी. कौन थे वे लोग ?

थोड़े दिनों में पता चला की हॉस्टल के तीन blocks तीन जाति वर्गों पर आधारित थे. एक ब्लाक पर राजपूतों का वर्चस्व था तो दुसरे पर भूमिहारों का कब्ज़ा. मेरा ब्लाक थोडा मिश्रित था तब पता चला वार्डेन ने मुझे उस ब्लाक में क्यों कमरा क्यों दिया.

हॉस्टल के पास अशोक राजपथ के कोने पर एक पान की दूकान था जहाँ राजपूतों का नेता खादी का कुरता पजामा पहन अपना अड्डा लगाता था. देखने में वह शालीन था और दाढी के कारण उसमे एक गाम्भीर्य था. मैंने सुना था कि वह रात में रिक्शा लेकर (बगल में ही रिक्शे वालों का पडाव था) और रिक्शा चालक के भेष में प्रिया सिनेमा जाता था और सिर्फ लड़कियों या कमउम्र महिलाओं को उनके घर छोड़ता था. सवारी करते करते वह शुद्ध हिंदी या अंग्रेजी में बातें करता. आश्चर्यचकित सवार हुई महिलाओं या लड़कियों से पूछे जाने पर बताता की वह एक गरीब विद्यार्थी है जो दिन में पदाई करता है और रात को रिक्सा चलाता है. यह दिल जीतने और दिलफरेबी का नायब नमूना था. मैंने यह भी सुना था की वह बुरका पहन सब्जी बाग के उस हिस्से में घूमता था जहाँ महिलाएं होती थीं.

हमारा कॉलेज co-ed नहीं होने के कारन 'हीन भावना' से ग्रस्त था जो विभिन्न रूपों में परिलक्षित होता था. कुछ लोग स्टुडेंट स्पेशल बसों में छेड़खानी करते या सड़क के पास फब्तियां कसते. होली जब करीब आती तो रिक्सा =बसों से सफ़र करती लड़कियों पर गुलाला भी फेंका जाता.

झुंड-मानशिकता से अलग एक और घटना याद आती है. मेरा एक दोस्त जो अंग्रेजी साहित्य का विद्यार्थी था , सेक्स से काफी obsessed था . वह गोविन्द मित्र रोड के पास एक lodge में रहता था. एकदिन सबेरे-सबेरे उसने मेरा दरवाज़ा खटखटाया , चेहरा फुला और खूनी खरोंचों से भरा. पता चला उस lodge में ज्यादातर मेडिकल स्टूडेंट्स रहते थे . हमारे मित्र के कमरे के बगल में एक मेडिकल विद्यार्थी थे जिनकी नयी नयी शादी हुई थी और उन्होंने अपनी नयी नवेली पत्नी को lodge में कुछ दिनों के लिए लाया था. मेरे मित्र सारी रात प्रेम और काम क्रीडा की कल्पना करता रहा और जब उसे और सब्र नहीं रहा तो वह गर्मियों के मौसम के उस रात में उसने अधखुली खिड़की से अन्दर झाँकने की कोशिश में लग गया . उस विद्यार्थी ने उसे देख लिया और उसकी जम कर पिटाई की. मुझे अपने मित्र पर दया आयी मगर मैं यह नहीं समझ नहीं पाया की जो लड़का एक ओर नुक्कड़ नाटक करता है और मुझसे वोर्द्स्वोथ और मिल्टन की बातें करता है वह उत्सुकतावश ऐसी हरकत भी कर सकता है. शायद दोष उसका नहीं उस सामाजिक वातावरण का था.

हमारे कॉलेज के पास गंगा घाट भी था. छट पर्व के दिन हम रास्ते पर बाकायदा चादर बिछा देते औरप्रसाद का ठेकुयाँ मांगते. यह तकरीबन एक सप्ताह तक हमारे नाश्ते में काम आता.
उसी दौरान क्रिकेट और टीवी का प्रवेश हुआ . भारत ने कपिलदेव के नेतृत्व में विश्व कप जीता और आधी रात को मेरे एक मित्र ने (जो अब railways में उच्चाधिकारी हैं ) भारत के गर्व से गौरवान्वित होकर अपना वस्त्र उतार , बिलकुल नग्न होकर गाँधी मैदान तक की दौड़ लगाकर एक नयी मिसाल कायम की.
कुछ विद्यार्थी प्रगतिशील विचारधारा से प्रभावित होकर नुक्कड़ नाटक करते थे. मैंने भी एक लघु पत्रिका में गोविन्द निहलानी निर्देशित फिल्म " आक्रोश " पर एक लेख लिखा था .

इन सब नवयुवक सुलभ बातों-व्यवहारों के बीच हिंसा की पौध भी पनप रही थी. रंगदार विद्यार्थियों का एक झुंड अशोक राजपथ के दूकानों से बिना पैसा दिए सामान ले लेता था. उसी दौरान हमारे हॉस्टल में राजपूत और भूमिहार गुटों के बीच घमासान संघर्ष शुरू हुआ. यह एक लम्बा सिलसिला था. शाम को जब वापस हॉस्टल आता तो पता चलता की बमबारी हुई है और विद्यार्थीयों की जगह पुलिस दिखाई देते. हॉस्टल खाली करा दिया जाता और पहली बार एक नया शब्द सुना: sine die . हॉस्टल में पुलिस की बंदोबस्त होने लगी. ऐसा कई बार होने लगा. फिर मैंने सुना की बैकॅवाङ - फॉरवर्ड के संघर्ष में वीर सिंह बुरी तरह जख्मी हो गया . मुश्किल से जान बची.मैं उससे मिलने PMCH भी गया.


इन्ही परिस्थितियों के बीच हमारी पढाई हो रही थी. हमारी B. A. (Hons) की परीक्षा करीब आ गयी . इतर गिता हमारे और पटना कॉलेज के बीच थी. हमलोग अपने सूत्रों से यह पता लगाने की कोशिश करते की पटना कॉलेज में Topper होने का कौन दावेदार है. सच कहूं तो मित्र बीरू का नाम पता चला. उनसे मेरे कभी मुलाकात नहीं हुई हाँ वर्षों बाद वे जेएनयू में मेरे मित्र बने और अभी भी मित्र हैं.
पुलिस बंदोबस्त के बीच परीक्षा हुई और नतीजा भी आया . मैं प्रथम श्रेणी में द्वितीय स्थान पर था और प्रथम स्थान पर एक ऐसा विद्यार्थी था जिसे कोइ जानता भी नहीं था. सुना की वह कुलपति या उपकुलपति का दामाद था . उसकी बहुत ऊँची पहुँच थी और वह बना topper!

आज इतने वर्षों के बाद उन बातों को याद कर एक मिश्रित भावना उमगती है .अगर मैं राजपूत, भूमिहार या अन्य जातीय गुट में शामिल होने को मजबूर होता तो क्या होता ?कितना संकीर्ण फासला था सही या गलत रास्तों में .उस उम्र में कितनी वैचारिक परिपक्वता थी , सही और गलत के फर्क समझने में.

" बहुत कठिन थी डगर पनघट की."

Thursday, April 16, 2009

अथ स्कूल कथा : कैसा था पटना का यह स्कूल १९७५ में ?

ग्रामीण छात्रवृति योजना के तहत मेरा चुनाव हुआ और जनवरी सन १९७५ में मेरा दाखिला पटना कौलेजिअट स्कूल में हुआ. रहने की व्यवस्था स्कूल होस्टल में. दाखिले के समय मैं ग्यारह साल का था .

छात्रवृति की यह योजना ग्रामीण छात्रों के लिए थी. हर प्रखंड से दो छात्रों का चयन द्वि स्तरीय लिखित परीक्षा के माध्यम से किया जाता था . चयनित छात्रों को जिला स्कूल में प्रवेश दिया जाता था .और रहने की व्यवस्था स्कूल हॉस्टल में की जाती थी . शुक्र है सरकार की इस योजना का की गाँव का लड़का राजधानी के स्कूल में आ गया .१९७५ में सौ रुपये की मासिक छात्रिवृति मिलती थी. हम सब का कदम कुँआ में स्टेट  बैंक की एक शाखा में बैंक अकाउंट खोला गया था. हर महीने हम सब बच्चे अपना अपना चेक खुद भर कर प्राचार्य महोदय से दस्तखत करा कर बैंक जाते और पैसे लेकर आते .छोटी उम्र में हीं बैंक से यह बढ़िया एक्सपोजर था . दृष्टि पात करने पर लगता है की बैंक में जगह की कमी के वावजूद कर्मचारी कार्य कुशल थे , बैंक में कुशल व्यवस्था थी और हम सब के चेक का भुगतान शीघ्र हो जाता था .

होस्टल की भव्य बिल्डिंग थी . बड़े बड़े कमरे और चौडे ओसारे .बीच में लॉन और किनारे में अशोक के बड़े पेड़. लॉन में दो चार नल लगे थे जहां हम सब के खुले में नहाने की व्यवस्था थी. होस्टल के चारों तरफ चहारदीवारी थी और दक्षिण तरफ बड़ा सा खेल का मैदान.हॉस्टल से सटे हॉस्टल अधीक्षक श्री जंग बहादुर लाल का आवास था . तीन चार बजते बजते स्कूल का विशाल मैदान हॉस्टल और आस पास के मुहल्लों के बच्चों से भर जाता था .बच्चे गुल्ली डंडा से लेकर क्रिकेट , फुटबाल तक में लग जाते थे . होस्टल के प्रवेश द्वार के साथ हीं स्कूल प्रिंसिपल श्री त्रिवेणी सिंह का आवास था. स्कूल परिसर में नीम और आम के विशाल पुराने दरखत थे और ढेर सारी चिडियों  की आश्रय स्थली .शाम होते ही पूरा परिसर तरह तरह की पक्षियों की चहचाहट से गुन्जायीत होता था.

हॉस्टल में १००-१५० , आठवीं से लेकर ग्यारहवीं तक के लड़के रहते थे .अस्सी प्रतिशत बच्चे ग्रामीण छात्रवृति योजना के तहत चयनित .और कुछ को छोड़ कर सब ग्रामीण और छोटे कस्बाई पृष्ठभूमि के . हम सब के लिए शहर में रहने का यह पहला अनुभव था .होस्टल में सटे दो मेस था . दोनों में से किसी में आप शामिल हो सकते थे . दिन में दो वार चावल , दाल सब्जी और भुजिया का भोजन .दाल पतला . सब्जी में मुख्य  रूप से आलू और वो सब्जियाँ जिनका सीज़न पार हो रहा होता था .भुजिया मुख्य रूप से आलू की जिसमें नाम मात्र का तेल और फोरन होता था . शुरुआत में तो कुछ स्वाद लगा पर बाद में मेस का खाना तो हम सब बच्चे भूख के जोर पर हीं भीतर ठेल पाते थे. फरबरी के महीने में माँ पटना आयी . बेटे की हालत देख कर आधा लीटर दूध रोजहा का इन्तेजाम कर गयी.दरिया पुर मोहल्ले का एक सख्श होस्टल में कुछ लड़कों को दूध दे जाता था.लेकिन लगता है की दूध में मिलावट शुरू हो चुकी थी और मुझे उस दूध के स्वाद का स्मरण कर आज भी उबकाई आती है.  खाने का चार्ज महीने का साठ रूपया . सौ रुपये की मासिक छात्रवृत्ति में मेस चार्ज के बाद चालीस रुपये हाथ में बच जाते थे. और खर्च करने के लिए पटना का पूरा बाजार था .

पटना कौलेजिअट स्कूल , पटना शहर का पुंरानास्कूल है . ब्रिटिश शैली में बनी हुई स्कूल की 
भव्य इमारत . गोल ऊँचे पाए . मुख्य भवन के सामने सुन्दर पार्क . उस पार्क में ऊँचे छोटे घेरे में पानी भर कर कमल के फूल की व्यवस्था थी. पहली बार जब देखा था तो कुछ कुछ जादूई लगता था . स्कूल इमारत के इतिहास की ठीक ठाक जानकारी नहीं है पर निसंदेह भवन उन्नीसवीं सदी का है. और यह पटना के चंद भव्य और खूबसूरत इमारतों में से एक रहा होगा . जिस किसी ने स्कूल परिसर की परियोजना बनायी थी उसने ने सारी व्यवस्था ग्रैंड स्केल पर किया था. 

 तो हम सब गाँव के बच्चे पटना शहर के इस पुराने स्कूल में रहने और पढ़ने लगे.पटना शहर के नापने और तौलने लगे.हथुआ मार्केट जाना और आते समय गोल गप्पे ( जिस हम सब फोचका कहते थे )और आलू टिक्की चाट खाना मुख्या आकर्षण रहता था . सब्जी बाग़ भी जाते थे.सब्जी बाग़ में बेकरी की दुकानें और तरह तरह की पाव रोटी और बिस्कूट . कोको कोला , चाट और सिनेमा से हम सब का परिचय हो रहा था .मेरे लिए पहली फिल्म थी रूपक में जे संतोषी माँ और फिर बाद में एलिफिंस्टन में शोले और वीणा में सन्यासी .साल भर में मैं पंद्रह बीस फिल्में देख लिया .एक मित्र देखी हुयी सारी फिल्मों का लिस्ट बना ता था . मैंने भी लिस्ट बनाना शुरू किया .साल के अंत में यह लिस्ट माँ के हाथ लग गयी . माँ ने पिटाई तो नहीं की पर पुरे घर में बड़ी बदनामी हुयी.याद करें यह वो दौर था जब सिनेमा को अभिभावक गण हेय दृष्टि से और बहुत हद तक अशलील और बच्चों के बच्चों को बिगाड़ने के शर्तिया नुख्से के तौर पर लेते थे . 

  यहीं क्रिकेट से परिचय हुआ .पर फिल्ड में खेलते समय अक्सरहां सब्जी बाग़ के बदमास और बड़े बच्चों से जूझना पड़ता था . एक से एक भद्दी भद्दी गालियाँ देते थे और उनका मन किया तो हम सब का बात बल भी छीन लेते थे .कुछ बड़े लड़के , दाढ़ी बनाने वाले उस्तरे साथ रखते थे और उसी से हम सबों को डराते थे.मार पीट तो कम लेकिन उन लड़कों के डराने का स्वांग हीं हम सबको बेहद भयभीत किये रहता था.पटना शहर में ७० के दशक में दुर्गा पूजा से लेकर छठ पर्व तक तरह तरह के शास्त्रीय संगीत के बड़े बड़े कार्यक्रमों का आयोजन होता था .और पटना कौलेजिअट स्कूल का मैदान इन आयोजनों की मुख्य स्थली होती थी. 

स्कूल में हमारे गाँव के स्कूल के लिहाजन अनुशासन ढीला ढाला था .कुछ दादा किस्म के लड़के हॉकी  सटीक 
 लेकर घूमते  थे. छात्रों पर शिक्षकों का अनुशासन था .आम तौर पर शिक्षक भी योग्य थे .एक दिल दहला देने वाला वाकया  याद है. हिंदी के एक शिक्षक शर्माजी थे . स्कूल परिसर में हीं उनका आवास था . पता नहीं  पढाने में उनकी योग्यता क्या थी ? ठीक से याद नहीं है .एक दिन क्लास में पता नहीं , एक बच्चे ने क्या गुस्ताखी कि शर्मा ने उस बच्चे को क्लास में आगे लाकर बेतरह पीटा. छोटा बच्चा रोता हुआ अपनी बेगुनाही और क्षमा याचना करता रहा .पर शर्मा ने कोई रहम नहीं किया .हम सब बच्चे पूरी तरह से आतंकित हो गए थे . इतने सालों के बावजूद जब भी इस वाकये का स्मरण होता है शर्मा के लिए मुंह में भद्दी गाली आती है.

राष्ट्रीय स्तर की मेधा छात्रवृति के बदौलत मैं १९७६ के मध्य में मेरा दाखिला नैनीताल के एक प्रतिष्ठीत आवासीय स्कूल में हो गया .पटना कौलेजिअट स्कूल में बिठाये डेढ़ साल कई मायनों में याद गार रहे .कई तरह के नायब अनुभव हुए. शहर में रहने का यह पहला अनुभव था .शहर की विशालता , सुविधायों ,जददो - जहद और खास तरह की गुमनामी का अहसास उस कच्ची उम्र में भी हो रहा था .पर समग्रता में कहूं तो ये सारे अहसास बेहद सुखद थे . शायद हर बचपन और कैशोर्य जीवन के तमाम उतार चढाव और संघर्षों के वावजूद सुखद हीं होता है .

शहर के पहले स्कूली अनुभव की बाकी यादें  बाद में .

 
 

Saturday, April 11, 2009

हाल -ये -बयान ,पटना के कॉलेज ओं का -१९८०, की शुरुआत में


सुजीत चौधरी ,सुना रहें हैं अपनी आप बीती , बरास्ता पटना शहर और बी एन कॉलेज .पढिये और अपने अनुभवों से इस सिलसिले को आगे बधाईये.

( मित्र कौशल ने बिहारी विद्यार्थियों के दिल्ली जाने के शुरुआती दौर , उस समय के बिहार के (खासकर पटना के) कॉलेज और पटना विश्वविद्यालय की स्थिति और विशिस्ट सामाजिक - आर्थिक और राजनीतिक कारणों की चर्चा कर एक विचार-विमर्श का प्रारंभ किया है. मैंने भी पटना में स्नातक और पूर्व-स्नातक की पढ़ाई की है इसीलिये कौशल जी ने मेरे अनुभवों को पोस्ट करने को कहा. )

मैं अपने B. N. College के अनुभवों कोलिख रहा हूँ.
मैंने १९८१ में रांची से intermediate (विज्ञान) किया . उसी दौरान मेरी रूचि सामाजिक विज्ञान की और बढ़ी और समाजशास्त्र (sociology) पदने के लिए पटना गया. सच कहूं तो मुझे रांची छोड़ना था और मैंने ऐसा विषय चुना जिसकी पढाई रांची विश्वविद्यालय में नहीं थी. पटना में सिर्फ एक ही करीबी दोस्त था जिसने बिहार इंजीनियरिंग कॉलेज में mechanical इंजीनियरिंग पढ़ रहा था. उसने उसी समय admission लिया था और एक लौज में रहताथा. पटना में B. A. का admission शुरू नहीं हुआ था. मेरा दोस्त पटना में दो साल गुजार चुका था क्योंकि वह मुझसे एक साल सीनियर था और I.Sc. की पढ़ाई उसने साइंस कॉलेज से की थी हालाँकि वह लौज में ही रहता था. उसने मुझे पटना घुमाया. अशोक राजपथ, गाँधी मैदान, सिनेमा घर, आदि आदि. पटना कॉलेज के सामने वाली गली के समोसे और जलेबा (जलेबी स्त्रीलिंग तो जलेबा अपनी विराटता के लिए जलेबा) . विद्यार्थियों का हुजूमलगा रहता था वहां. उस समय पटना में कोचिंग schools काफी थे क्योंकि हमारे हमउम्र के विद्यार्थियों का सपना होता था मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला. खैर एक दो महीने के बाद मेरे दोस्त को हॉस्टल मिल गया जो law college के पास था और मजबूरन मुझे भी उसके साथ वहां रहना पड़ा. हॉस्टल में आकार पता चला की यह हॉस्टल तथाकतित scheduled castes और Backward castes के लिए अनौपचारिक रूप से आरक्षित था. law college पर उसी तरह ऊँचेवर्णों का वर्चस्व था. धीरे धीरे जाति, जातिय समीकरण और छात्रालयों में उनकी प्रभुता या प्रभुत्व जमाने की होड़. मुझे पता चला की फॉरवर्ड जाति-वर्ग में राजपूत और भूमिहार के बीच नहीं पटती. संक्षिप्त में कहा जाये तो एक और राजपूत-भूमिहार के बीच का दरार और उससे उपजी हिंसा तो दूसरी तरफ फोर्वार्ड और बैक्वार्ड जातियों का उभरता हुआ धूरिकरण. मजे की बात यह की मेरा दोस्त Backward जाति का थाऔर हम दोनों में जातिगत कोई भावना ही नहीं थी लेकिन उसने मुझे अपने हॉस्टल में 'Backward' घोषित कर दिया. मेरे survival के लिए यह एक मामूली सा समझौता था जो मुझे अखर भी नहीं और मेरा surname भी इतना सर्वव्यापी था की किसीको कोई शक नहीं हुआ. उस हॉस्टल के मुखिया थे भीम सिंह जिन्हें मेरी ग़ज़लें पसंद थी . वह एक बुद्धिमान और प्रतिभाशाली विद्यार्थी था जो धीरे-धीरे जातिगत हिंसा के दलदल में फंसता जा रहाथा. वर्तमान में मिलने वाला दबदबा उसकी हौसला-आफज़ाई कर रहा था. उसने एक दिन मुझे देसी तमंचा दिखाया और एक दिन जब सिर्फ हम दोनों अकेले थे तो उसने कहा मैं जानता हूँ तुम Backward नहीं हो लेकिन यह राज राज ही रहे. उसदिन के बाद मैं और मेरा दोस्त काफी सहमे रहते थे की किसी तरह मेरा राज न खुल जाए . खैर, तबतक मुझे B. N. college के हॉस्टल में दाखिला मिल गया. मैंने B. N. college में इस लिए दाखिला लिया था क्योंकि कुछसीनियर विद्यार्थिओं के सुझाव के मुताबिक, वहां का sociology विभाग पटना college से बेहतर था. हॉस्टल काफी भब्य था बिलकुल college के पास. हॉस्टल के वार्डेन जो मेरे विभागाद्ययक्ष भी थे मेरे पिताजी को जानते थे और उन्होंने एक अच्छा (?) सा कमरा allot कर दिया. पहले ही दिन जब मैंने अपना सामान रखकर बड़े से गोदरेज ताले से कमरा बंद कर गाँधी मैदान जाकर और वहां की घास पर लेटकर वापस लौटा तो पाया की कमरे कीचाभी गाँधी मैदान में खो गयी है. वापस मैदान में ढूँढने की कोशिश नाकाम रही. लाचार होकर सब्जी बाग़ गया और लोहा काटने का ब्लेड खरीदा और दो घंटे लगे , गोदरेज का ताला काटने में. हॉस्टल में मैं किसीको नहीं जानता था. दो-तीन बाद एक नया रूममेट आया , जाति का राजपूत, उद्दंड स्वाभाव और राजधानी के मौजूदा फैशन से कदम से कदम मिलाने वाला. हालाँकि, अपने क्लास में कुछ day scholars से मित्रता बढ़ी औरअकेलापन कम होने लगा. मेस में कुछ और मित्र बने. थोड़े दिनों में पता चला की हॉस्टल के तीन blocks तीन जाति वर्गों पर आधारित थे. एक ब्लाक पर राजपूतों का वर्चस्व था तो दुसरे पर भूमिहारों का कब्ज़ा. मेरा ब्लाक थोडा मिश्रित था तब पता चला वार्डेन ने मुझे उस ब्लाक में क्यों कमरा क्यों दिया. हॉस्टल के पास अशोक राजपथ के कोने पर एक पान की दूकान थी जहाँ राजपूतों का नेता खादी का कुरता पजामापहन अपना अड्डा लगाता था. देखने में वह शालीन था और दाढी के कारण उसमे एक गाम्भीर्य था. मैंने सुना था कि वह रात में रिक्शा लेकर (बगल में ही रिक्शे वालों का पडाव था) और रिक्शा चालक के भेष में प्रिया सिनेमा जाता था और सिर्फ लड़कियों या कमउम्र महिलाओं को उनके घर छोड़ता था. कभी कभी वह बुरका पहन सब्जी बाग के उस हिस्से में घूमता था जहाँ महिलाएं होती थीं. दूसरी तरफ रंगदारविद्यार्थियों का एक झुंड अशोक राजपथ के दूकानों से बिना पैसा दिए सामान ले लेता था. उसी दौरान हमारे हॉस्टल में राजपूत और भूमिहार गुटों के बीच घमासान संघर्ष शुरू हुआ. बमबारी की शुरुआत हुई और हॉस्टल खाली करा दिया गया . हॉस्टल में पुलिस की बंदोबस्त होने लगी. ऐसा कई बार होने लगा. फिर मैंने सुना की बैकॅवाङ - फॉरवर्ड के संघर्ष में भीम सिंह बुरी तरह जख्मी हो गया . मुश्किल से जान बची.इन्ही परिस्थितियों के बीच हमारी पढाई हो रही थी. हमारी B. A. (Hons) की परीक्षा करीब आ गयी और असली प्रतियोगिता हमारे और पटना कॉलेज के बीच थी. पुलिस बंदोबस्त के बीच परीक्षा हुई और नतीजा भी आया . मैं प्रथम श्रेणी में द्वितीय स्थान पर था और प्रथम स्थान पर एक ऐसा विद्यार्थी था जिसे कोइ जानता भी नहीं था. बाद में पता चला की उसकी बहुत ऊँची पहुँच थी.

Thursday, April 9, 2009

कैसा था गाँव का स्कूल ? बिहार विमर्श : अथ स्कूल कथा - भाग दो

वीरेन्द्र , बिहार विमर्श की अगली कड़ी : अथ स्कूल कथा  - भाग दो . 

 कैसा था गाँव का स्कूल ?

'अथ स्कूल कथा' के नाम से जो संस्मरण मैंने सुनाया था, वह कई कारणों से मुझे अधूरा लगा. अव्वल तो यही कि मैं उन तमाम लम्हों से आपको रु-ब-रू नहीं करा सका जो मेरे बनने-बिगड़ने में खास रूप से सहायक रहे थे. तो आईये, एकबार फिर मेरे साथ स्कूल की यादें ताजा करें. 

तो सबसे पहले मैं आपको फिर से अपने गाँव के प्राईमरी स्कूल ले चलता हूँ. था तो हमारा स्कूल छोटा, किन्तु उसका एक अलग परिसर था जिसमें बेर, कैक्टस और अमरूद के पेड़ लगे हुए थे. खाली ज़मीन पर माट्साब धन और गेहूं की खेती करवाते थे. जाडे के दिनों में हम बच्चे कभी-कभी साग-सब्जी की खेती भी कर लिया करते थे. गाँव का कोई भी व्यक्ति स्कूल की खेती को कभी कोई नुक्सान नहीं पहुंचाता, उल्टे बिन मांगे ही कभी हल चलवा देता तो कभी खाद छिड़कवा देता. मुझे अचरज होता कि जब रखवाली के बाद भी कई किसानों की फसल फसल-चोर काट लेते थे, तब स्कूल की खेती कैसे बची रह जाती थी. संभव है, चोर यह मानते हों कि स्कूल की चोरी से उन्हें ज्यादा पाप लगेगा. खैर, बाद के दिनों में स्कूल के बेर के पेड़ कटवा दिए गए और उनकी लकडियों से बच्चों के बैठने के लिए पटरियाँ बनवा दी गयीं. चौथी और पांचवीं कक्षा के छात्रों के लिए ईंटों के पाए बनाकर उनके ऊपर पटरियों को बिछा दिया गया ताकि वे उनका इस्तेमाल तख्ती के रूप में कर सकें. हेडमाट्साब के लिए कुर्सी के अलावा एक टूटा हुआ टेबल भी था जिसके ऊपर एक ग्लोब स्थापित कर दिया गया था. ग्लोब को छूने की जिज्ञाषा हमारे मन में लगातार बनी रहती, किन्तु माट्साब के डर से ऐसा करने की हिम्मत कभी नहीं हुई.  
 
पहले बता चूका हूँ कि इस विद्यालय में एक ही शिक्षक नियमित रूप से आते थे और वही पहली कक्षा से लेकर पांचवीं कक्षा के छात्रों को हरेक विषय पढाते थे. लेकिन जो दो शिक्षक अनियमित थे, उनमें से एक हेडमास्टर साहब के छोटे भाई थे और दूसरे चेला गाँव के पंडीजी. दोनों बच्चों से खूब प्यार करते थे. सच तो यह है कि पंडीजी से कोई बच्चा डरता ही नहीं था. डरे भी तो किसलिए? पंडीजी तो खुद ही बच्चों के साथ रोज़ शाम में 'मुअनी-जीअनी' का खेल खेलते थे. मुझे आज तक पता नहीं चल पाया कि यह खेल खुद पंडीजी ने ईजाद किया था या फिर यह किसी और देश से हमारे देश में आया था. खैर, इस खेल के नियम बड़े सरल थे. बच्चों की टोली गोला बनाकर पंडीजी के चारों ओर घूमने लगती; पंडीजी आँखें बंद किये मुहं में कुछ बुदबुदाते रहते और अचानक अपनी तर्जनी ऊंगली को सीधे किसी बच्चे की नाक से सटा देते. बच्चा ज़मीन पर गिर जाता, गोया उसके प्राण-पखेरू उड़ गए हों. इस क्रिया को पंडीजी मुअनी कहते थे. एक-एक कर पंडीजी सभी बच्चों को मार देते और फिर खुद रोने लगते. उनका विलाप सुनकर शारीरिक रूप से मज़बूत कोई दूसरा बच्चा पंडीजी के पास आता; उनके रुदन का कारण पूछता. जवाब में पंडीजी रोते हुए उसकी पीठ पर बैठ जाते और कहते कि अब चलो मुझे वैद्य जी के घर ले चलो. पंडीजी बच्चे की पीठ पर बैठे-बैठे सभी मृत बच्चों के पास जाते और कान में कुछ कहते. परिक्रमा पूरी कर जब वे वापस अपने स्थान पर खड़े होते तो उनके हाथ में सरकंडा की एक खोखली छड़ी होती. वे उसमें कुछ देर तक फूंकते रहते और अचानक किसी बच्चे का नाम पुकारकर उसके फिर से जिंदा हो जाने की घोषणा करते. इस क्रिया को हम 'जीअनी' कहते थे. पंडीजी जब भी स्कूल आते, हम बच्चे उनसे जिद्द करते कि वे हमारे साथ मुअनी-जिअनी का खेल ज़रूर खेलें. पंडीजी ने हमारे आग्रह की कभी अनदेखी नहीं की. जिस दिन पंडीजी स्कूल आते, उस दिन हम बच्चों की मस्ती हो जाती. पंडीजी के अलावे हमारे स्कूल में एक और शिक्षक भी थे जिन्हें हम थर्ड माट्साब कहते थे. ये छतरबली माट्साब के अपने छोटे भाई थे और स्कूल में सिर्फ उन्हीं दिनों आते थे जब किसी कारणवश छतरबली माट्साब स्कूल आने में असमर्थ हो जाते थे. बच्चों से इनका व्यवहार बहुत अच्छा था और शायद ही कभी किसी बच्चे को उनसे डांट खानी पड़ी होगी. उनके पढाने का तरीका भी बहुत सुन्दर था. मेरे स्कूल में तब कई बच्चे ऐसे थे जो बिना अक्षर-ज्ञान के ही पहली कक्षा की किताबें पढ़ लिया करते थे. इन तमाम बच्चों को थर्ड माट्साब पहचानते थे. कुछ नया पढाने से पहले वे अक्सर इन बच्चों से चुहल करते थे. ऐसा करते समय वे चान्ददेव का नाम कभी न भूलते. वे ऊंची आवाज़ में चान्ददेव का नाम पुकारते और चान्ददेव की ऊंगुलियाँ 'रानी, मदन, अमर' के पन्ने पलटने लगतीं. सर झुकाए वे पढ़ते रहते, "मां, पिताजी...आगे देखो... भालुवाला आया' ..वगैरह-वगैरह. हम सब बच्चे थर्ड माट्साब के स्कूल आने की रोज प्रतीक्षा करते, किन्तु वे कब आते और कब चले जाते हमें याद नहीं रहता. लगभग पूरे भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि पांचवीं तक की पढाई में जितनी बार वे स्कूल आये होंगे उससे कहीं ज्यादा स्कूल इंसपेक्टर ने हमारे स्कूल का दौरा किया होगा. 
 
चूंकि तब यह गाँव-जवार का एकलौता स्कूल था, अतः यहाँ पढ़नेवालों में सलेमपुर, कांधरपुर, जनई, खुटियारी, तिरकौल और कुर्मी टोला के छात्र भी होते थे. तिरकौल के मदरसा में पढ़नेवाले छात्र भी इस स्कूल में हिंदी सीखने आते थे. शुरू में तो इनकी उपस्थिति बच्चों के मन में एक कुतूहल पैदा करती थी, क्योंकि उम्र में वे पूरी तरह व्यस्क नहीं तो किशोर अवश्य हुआ करते थे. यह तो बाद में पता चला कि वास्तव में वे हाई स्कूल कर चुके थे और यहाँ सिर्फ हिंदी पढ़ने के लिए आते थे. लेकिन, उम्र के अलावा उनमें और हममें कोई और अंतर नहीं होता था. वे भी हमारे साथ लकडी की तख्ती पर बैठते थे और उनके झोले में भी स्लेट-पेंसिल के अलावा सिर्फ एक-दो नन्हीं किताबें हुआ करती थीं. उनसे भी अगर गलती होती तो हम मास्टर साहेब के निर्देश पर उनके कान उमेठ देते थे. इस काम में एक अलग तरह का रोमांच हुआ करता था.  
 
हमारा प्राईमरी स्कूल पूरी तरह लोकतांत्रिक था. सभी जाति और धर्मं के बच्चे यहाँ मौजूद थे; सबके बैठने की ज़गह भी एक ही हुआ करती थी. हाँ, लड़कियों के बैठने के लिए आगे की एक-दो पंक्तियाँ आरक्षित कर दी गयी थीं. तो भी, दूसरे गाँव की लड़कियां यहाँ पढ़ने के लिए नहीं आती थी. कुछ-कुछ लड़कियां उम्र में हम बच्चों से बहुत बड़ी होती थीं. बाद में पता चला कि वे लड़कियां शादी से पहले चिट्ठी पढ़ने-लिखने भर की विद्या अर्जित करने आती थीं. छतरबली माट्साब न तो खुद कभी स्कूल से नागा होते थे और न किसी छात्र को नागा होने की ईजाज़त देते थे. उन्होनें तो एक तरह से अपना फ्लाईंग स्क्वैड ही बना रखा था. इधर हाजिरी खत्म हुई, उधर फ्लाईंग स्क्वैड बच्चों की धर-पकड़ के लिए अलग-अलग गांवों की ऑर निकल पड़ता. घंटे-अधघंटे में फ्लाईंग स्क्वैड गैरहाज़िर बच्चों को भेंड-बकरियों की तरह हांकते हुए स्कूल धमक पड़ते. फिर उनमें से कोई मुर्गा बनता, कोई पिटाई खता और कोई डांट-डपट सुनकर ही छुटकारा पा लेता. सजा छात्र की अनुपस्थिति की आवृति के अनुपात के मुक़र्रर की जाती. लेकिन इस वाकये की सबसे दिलकश बात कुछ और हुआ करती थी. जब माट्साब किसी छात्र से उसकी अनुपस्थिति का कारण पूछते तो वह न जाने क्या सोचकर ऐसे-ऐसे जवाब देता कि उनपर यकीन करना किसी के लिए संभव नहीं जान पड़ता. मिसाल के लिए कोई कहता, "माट्साब, हम त स्कूल आवते रहीं, बाबुएजी नु बैल पहुँचावे खातिर पछिमभर के बधार में भेज देलन?'  
 

आज अगर कोई मुझसे पूछे की अह्पुरा प्राईमरी स्कूल के बारे में दो अच्छी बातें क्या थीं तो मैं निःसंकोच कह सकता हूँ कि एक तो शिक्षक की मर्यादा पूरे गाँव के लिए सर्वोपरि थी और दूसरे स्कूल के माहौल में सीधे रूप से जातियों का प्रभाव परिलक्षित नहीं होता था. चूंकि तब सरकारी स्कूल के अलावा कहीं कोई तथाकथित इंग्लिश मीडियम स्कूल नहीं थे, इसलिए लोगों के सामने शिक्षा के क्षेत्र में अपनी हैसियत दिखाने का कोई दूसरा जरिया भी नहीं था. क्या गरीब, क्या अमीर सबके बच्चे इसी स्कूल में पढ़ते थे. लेकिन आज स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है. बिहार और उत्तरप्रदेश के अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि इन स्कूलों का अछूतीकरण कर दिया गया है. आज सरकारी स्कूलों में सिर्फ गाँव के दलित बच्चे पढ़ते हैं या वे बच्चे जिनके मां-बाप के पास निजी स्कूलों की फीस देने की कुव्वत नहीं है. सन्देश का मिडिल स्कूल तो मेरी नज़रों के सामने अपनी अधोगति केपी प्राप्त कर रहा था. पुराने हेडमास्टर जिनके बारे में कई-कई किंवदंतियाँ ईलाके में मशहूर थीं, अवकाशप्राप्त हो चुके थे. उनकी ज़गह जो नए हेडमास्टर आये वे स्कूल का रुतबा कायम नहीं रख सके. प्राईमरी स्कूल के विपरीत, मिडिल स्कूल में मुझे साम्प्रयादायिक रुझान के दर्शन हुए थे.

एक वाकया यहाँ गौरतलब है. जब मैं सातवीं क्लास में था तो मेरे स्कूल में एक उर्दू शिक्षक की नियुक्ति हुई थी. हम उन्हें मौलवी साहब कहते थे. कई बच्चे उनसे फूहड़ शरारत करने से बाज़ नहीं आते थे. एक दफा उनने हेडमास्टर साहेब से शिकायत भी की. किन्तु कुछ न हुआ. उल्टे उन्हें सुझाया गया कि बेहतर यही होगा कि वे अपना स्थातान्तरण किसी मुस्लिम स्कूल में करा लें. दूसरी तरफ, लालाजी माट्साब के लिए स्कूल के ही दो कमरों को अलग कर उनके परिवार के घर बना दिया गया था. लालाजी स्कूल की ज़मीन पर साग-सब्जी की खेती भी करते थे और स्कूल के फलदार वृक्षों पर भी उन्हीं का अधिकार था. बता दू कि लालाजी यह सब लाठी के जोर पर नहीं कर रहे थे, अपितु स्कूल की प्रबंधन समिति ने हे उन्हें सुविधा मुहय्या कराइ थी. लालाजी का परिवार बड़ा था और आमदनी छोटी, इसीलिए उनके लिए एक खास सहानुभूति सबके मन में थी.

आरा जैन स्कूल के बारे में विस्तार से फिर कभी बताऊंगा. 

 
 
वीरेंद्र