Saturday, February 28, 2009

"---- दोनों हाथ ऊलिचियो ,यही सयानो काम " अर्थात बिहार की व्यथा -कथा

बिहार के मध्यम वर्ग या सत्ता धारी वर्ग , ( भाव ग्रहण करते हुए जिसमें भी सहूलियत हो वैसा माने ) में खास तरह के उद्यम और बुनियादी मुद्दों पर आम सहमति रही है .व्यक्ति ,परिवार ,कुल , गोतिया ,गाँव, समाज इन बुनियादी चीजों को कहें तो आदरणीय मानता रहा है. इस व्यापक आम सहमति के कारणों की चर्चा बाद में पहले सहमति के मुद्दों / प्रवृत्तियों और उद्यमों की चर्चा कर ली जाय 1. मेट्रिक की परीक्षा में अपने लाल या लाली को नक़ल ( जिसे हम चोरी कहते हैं ) करने के लिए हर तरह की कोशिस करना . परीक्षा केंद्र पर लाल और लाली जो कर पाए सो कर पाए , बाद में भी प्रयास जारी रहता है . एक प्रोजेक्ट के तौर पर इसे पुनीत कार्य का दर्जा.
2. लाल और लाली ने पढाई लिखायी में जो किया सो किया .कॉलेज और युनिवेर्सिटी में भी नक़ल/चोरी / पैसे / पारिवारिक /जातिगत संबंधों से जो कुछ भी संभव हो वह सब किया जाय. इस पचडे में न पड़ा जाय की प्रयास कानूनी है कि गैरकानूनी, नैतिक है कि अनैतिक , अपना भला सबसे पहले देखना है . देश दुनिया जाय भांड में.
3. लाल और लाली पढ़ गए तो नौकरी का भी इन्तेजाम होना चाहिए.अपने बल पर कुछ बने तो बने नहीं तो अपना पूरा सामर्थ्य झोंक देना है.इसमें भी सब सही है. Every Thing is Fair in Love and War के तर्ज पर.कुछ मायनों में प्रोजेक्ट की सबसे अहम् कड़ी .
4. लाल जैसी भी नौकरी में हों ,घूस में जितना कमायें उतना हीं अच्छा .और लाल नौकरी में रहते हुए परिवार कुटुंब , जात , जमात के लिए कायदे कानून की परवाह किये बगैर वह सब कुछ करे जिससे उनका हित साधन होता हो .
आप अगर किसी भी तरह से रसूख बाले हैं तो अपने उस सामर्थ्य का इस्तेमाल धन उगाही , अपना ,परिवार , कुटुम्ब ,जाति आदि के हित में करें.
"दोनों हाँथ उलिचीयो वही सयानों काम " के तर्ज पर .
आदर्श ,NAITIKATAA ,कानून ,मर्यादा जाय भांड में ,अगर आप येन केन प्रकारेण जैसे भी उगाही करते हैं आप सम्मान के हकदार हैं .समाज आप को सफल मानेगा.
शादी विवाह में जो जितनी बड़ी बोली लगवाले वह उतना हीं बड़ा आदमी.
आदर , श्रध्हा के पात्र रहे वो लोग जो इस कला को साध लिए .
इन प्रवृतिय्यों और इस उद्यम की व्यापक सामाजिक सहमति और आदर .
अस्सी के दशक में जब दिल्ली विश्विद्यालय में यहाँ के छात्रों की भीड़ बढ़ी तो ये अपने साथ बिहार की प्रतिमूर्ति लेते गए और संख्या बल मिलते हीं जातिगत गुटों और क्रमशः गिरोहों में ढलते गए .
खैर बाद में बिहार और देश में जो माहौल बना उसमें इनको फलने फूलने का प्रयाप्त मौका मिला .
ऐसे हीं माहौल में तक़रीबन पांच दशकों से बिहार में सफलता , असफलता ,मेरिट , योग्यता , संस्कार और समृधि के मानक तय हुये हैं.ज्यादातर नायकों ने नायकत्व इसी अखाडे में इन्ही दस्तूरों को अपनाते हुए प्राप्त किया.
बिहारी समाज में यह एक मुख्य प्रवृत्ति रही . इसके प्रतिरोध में दूसरी धारा भी निरंतर बहती रही है .जिस पर फिर कभी बाद में

Friday, February 27, 2009

दिल हीं तो है, न संगोखिश्त

( संजीव रंजन , मुजफ्फरपुर :मित्र संजीव आखिर हम सब के चंगुल में फँस ही गए.अपनी आप बीती सुना रहें हैं . वायदा है की इसकी कड़ियाँ वो क्रमशः जोड़ते जायेंगें .लुत्फ़ उठाएं और उनकी हौसला अफजाई करें. प्रस्तुत है उनकी रचना )

प्रिय कौशल,
यह पत्र मैंने २००७ के जुलाई-अगस्त महीने में अपने बेहद करीबी रिश्तेदार-दोस्त प्रभात को लिखा था. ऑफिस सील हो घुका था, कन्धा ज़ख्मी था, छोटे-मोटे काम और कर्जो से जीवन उबर-खाबर निकल रहा था. उन्हीं दिनों बड़े संयोग से एक अच्छे मुनाफे वाला दिलचस्प काम आया था. इस पत्र की आत्मा वही घटना है - इसे आपके ब्लॉग के सिपुर्द कर रहा हूँ :

प्रिय प्रभात,
मुजफ्फरपुर से आने के बाद जीवन और व्यवसाय में जो हलचल आया था अब लगभग शांत प्राय है। वैसे आलस्य अब भी विकट समस्या है और दीवानापन के दौरे आते हीं रहते हैं। स्वतः स्फूर्त नियमन वाला जीवन कमबख्त आये न आता है. यह जो पत्र मैं आज लिख रहा हूँ इसकी योजना पिछले दो महीनों से थी. अक्सर तो भूल हीं जाता था, जब याद आता कि लिखना है तब योजना करता कि आज रात को तसल्ली से जरूर लिखूंगा. रात आती और मुद्दे कि तरफ ध्यान जाता तो पाता कि वह योजना भीषण साहित्यीक चुनौती का वजन अख्तियार कर चुका है. कुछ उधेड़-बुन और लानत- मलामत के बाद यह निश्चय कर के कि कल तो पक्का हीं लिखूंगा उस बोझ के नीचे कुछ और चिंताओं को लेकर उखडा अनिश्चित सो रहता. यह सिलसिला जैसा कि पहले बता चुका हूँ पिछले दो महीनों से है।

बाक़ी काम-वाम का क्या है कि चल हीं रहा है. पिछली हफ्ते कुछ ऐसी स्थिति बनी थी कि तीन-चार अच्छे काम के मिलने की उम्मीद बंधी. लेकिन समय पर आवश्यक तैयारी कर संबद्ध चीजों को लेकर वक़्त पर नहीं पहुँच पाने से दो अच्छे काम ख़राब हो गए. एक तो बिल्कुल उखड गया और शिष्ट भाषा में लम्बा sangeen लेक्चर पिला गया. मैंने कुछ नहीं कहा कि क्या कहता!वैसे नुक्सान का ज्यादा मलाल नहीं हुआ क्योंकि उस दरम्यान में एक multinational NGO के ANNUAL रिपोर्ट का काम चल रहा था. काम के प्रत्येक चरण में प्रयाप्प्त प्रशंसा कि आमद थी और काम के स्केल के लिहाज़ से अच्छा मुनाफा बनता दिख रहा था. दूसरा बड़ा आकर्षण था कि जिस अथॉरिटी को मैं रिपोर्ट कर रहा था वह एक दिलफरेब महिला थी जिनसे दिन में कम-से-कम दो बार मिलने का अवसर था. लम्बा कद, लबालब व संपुष्ट संगठन, दिल्ली कि अक्सर महिलाओं-सी गोरी और सुंदर - बातचीत में बेबाक व सहज, और काम के फिनान्सिअल आस्पेक्ट्स के प्रति अतिरिक्त सजग. मिलने पर तपाक से हाथ मिलाती. मैं पता नहीं क्यों हिचक कर हाथ मिलाता. एक दिन उतावली में मैं उनसे पूछ बैठा कि आपके HUSBAND क्या करते हैं. उन्होंने छुटते हीं कहा, " आई ऍम सिंगल." आगे जब मैंने पूछा कि क्या वे दिल्ली हीं में जन्मी, पली और बढ़ी हैं तो उन्हों ने बड़े इत्मिनान और स्टाइल में कहा - हंड्रेड परसेंट. यहीं दिल्ली UNIVERSITY से एम.ए. करने के बाद अमेरिका के एक गिरामी UNIVERSITY से पीएच.डी कर संबद्ध NGO में बड़ी मुलाजिम हैं और मोटी तन्खाह पाती हैं. वसंत कुञ्ज में शानदार फ्लैट है, बड़ी गाडी है जिसे एक बुद्धू-सा ड्राईवर बड़ी सावधानी से चलाता है. उनकी छः महीने की विदेशी गुडिया-सी बिटिया है और सात-आठ साल का बड़ा मासूम बेटा है. शाम को काम के बाद वो अक्सर मुझे ड्राप कर दिया करती थी।

उनका काम हमने बड़ी मेहनत से बिलकुल वक़्त पर पूरा कर दिया. वे बहुत खुश हुईं और काम की तारीफ़ में चहक कर कहा - very beautiful, really beautiful. बिल देख कर अलबत्ता शांत हो गईं. बहुत देर तक देखती रहीं. चूँकि पन्नों की संख्या अनुमान से ज्यादा हो गईं थी अतः रिपोर्ट की प्रति इकाई राशि अनुबंधित राशि से ज्यादा थी. इसके प्रति हमने उन्हें काम के मध्य में हीं आगाह कर दिया था, फिर भी ऐसा लग रहा था कि उनके ध्यान में इस चीज को पहली बार लाया गया हो. मैं घबरा रहा था कि कहीं बहस न करने लगें और पैसे कम करनें कि जिद न कर बैठें. बहुत देर तक बिल कि पड़ताल करनें के बाद मामले को रद्द करते हुए उन्होंने कहा - ok. मैंने धीरे-से संतुलित जबान में पूछा - इज इट पिंचिंग? उन्होंने तनिक मुस्कुरा कर व्यंग्य में कहा - पेन्नी ऑलवेज पिंचेज. इसके बाद अपने महंगे पर्स से चेकबुक निकला, मेरी संस्था का नाम कन्फर्म किया और बिलकुल लड़किओं वाली हैण्डराइटिंग में चेकबुक को भर कर अपना तिरछा दस्तखत उस पर दर्ज कर रूखी मुस्कराहट के साथ मुझे थमा दिया. राशि को दुरुस्त पाकर मेरा कलेजा जोर से धड़कने लगा. चेक को सावधानी से मोड़ते हुए मैंने गुनहगारों वाले लहजे में कहना हीं शुरू किया कि 'आई डोंट नो इफ वी हैव औनर्ड योर एक्स्पेक्टेसनस और नौट ...' कि उन्होंने काटते हुए कहा - नो, आई हैव नो प्रॉब्लम. इट इज रादर गुड. इट डीपेन्ड्स औंन दी हाईअर अथॉरिटी. मैंने उन्हें याद दिलाया कि काम के दौरान उन्होंने एक और बड़े काम का जिक्र किया था और कहा था कि वह इस प्रोजेक्ट के ख़त्म होते हीं शुरू हो जायेगा. उन्होंने कहा - नहीं, उसमें अभी देर है. अभी तो एडिटिंग हीं चल रही है. मैंने पूछा - क्या महीने-दो महीने. उन्होंने कहा - दो महीने तो नहीं, लेकिन महीना-भर लग हीं जायेगा. मैंने चिंता और आग्रह को मिला कर अतिशय विनम्र भाव से पूछा - विल इट कम टू अस, ऐज promised. अबकी-बार वे हंस पड़ी. कहने लगीं - इट शुड. अब मेरे पास कहने या पूछने को कुछ नहीं था. चलने की बारी थी. सोच रहा था कि कुछ अच्छा कह कर हाथ मिला कर चलूँ. इसी दौरान उनका मोबाइल बजने लगा और वे फोन पर बातें करने लगीं. मैं असहज बैठा दीवारों पर लगे नोटिस और पेंटिंग्स को देखने लगा, कि टेबुल को हल्के से थपथपाने की आवाज आई. मैंने देखा कि वो कान से मोबाइल लगाये शिष्टाचार-वाली मुस्कराहट लिए मेरी तरफ मुखातिब हैं. आँखों को हल्के-से बंद कर के उन्होंने इशारा किया कि मैं जा सकता हूँ. मैं उठ खडा हुआ. हाथ मिलाने की पहल करने कि हिम्मत न हुई. उनकी शान में गर्दन को झुकाया और मुड़ कर वापस चल पड़ा. एक दो कदम बढाया हीं था की पीछे से उनकी आवाज आई - सी यू सून. मैंने मुड़ कर उनकी बात को गर्दन झुका कर एक्नौलेज किया, संक्छेप में सीयू कहा और बहार निकल आया. मन अतृप्त और अनिश्चित था, लेकिन कदम बड़े इत्मीनान से उठ रहे थे. शायद पैसे पूरे मिल जाने की वजह से. अब देखो कि वो दोबारा बुलाती हैं कि नहीं (... क्रमशः )
संजीव रंजन, मुजफ्फरपुर

Wednesday, February 25, 2009

विश्व को ललकारने की धृष्टता - मित्र की राय सर आंखों पर

वीरेन्द्र के लेख पर प्रिय संजीव की टिपण्णी -आप ब्लॉग पर आए हम सब अनुगृहित हुए।जैसा की हम सब मित्रों की बरसों पुराणी राय रही है की आप बाचिक परमम्परा के दुरंधर एवं बेजोड़ रहें है.आपके इस अनमोल और दुर्लभ गुण के कारण , ज़माना गवाह है ,आपके मित्र कितना कुछ कर के आप का सानिध्य को बेचैन रहते है।संजीव का मतलब आनद और उल्लास पूर्ण सत्संग ( सात्विक लोग माफ़ करेंगें सत्संग शब्द के ऐसे प्रयोग से )और यह सत्संग ऐसा वैसा नहीं बल्कि , यह दिल मांगे मोर वाला ।खैर मित्र हम सब आपकी बहुमुखी प्रतिभा के पुराने मुरीद रहें हैं .और आप को हम सब घसीट कर यहाँ तक लाये यह अपार हर्ष का विषय है.और हम सब इसे अपनी उपलब्धि मानते हैं।रही बात आपकी टिप्पणी के लक्षणा अर्थ भेद की तो इसे विनम्र निवेदन मान कर पढा जाय ।विश्व को ललकारने का कोई चेतन प्रयास नहीं है। बल्कि यह एक इमानदार कोशिश है आस पास को समझने की । मैं और वीरेन्द्र अपने जीवन के ऊर्जा से सराबोर दौर में सहधर्मी और सह कर्मी रहें है.मिलाना महज संयोग नहीं था बल्कि अपनी आप बीती और जगबीती की तार्किक परिणति थी.हम सब जीवन के जिस पथ पर थे वह एक तरह निजी तो था पर उस दौरा -ऐ - ज़माना का हिस्सा था .परिस्थितियां सवालों को पैदा करती थी और उन सवालों को हम लोग अपने तमाम भोलेपन और अन्गढ़पने में , पर पुरी ईमान दारी से , उत्तर ढूँढ रहे थे । आज भी वो सवाल सामने से हटे नहीं हैं।हम यह तो नहीं कह सकते की उत्तर सही हैं या ये भी की सवाल वाजिब हैं .पर मित्र यकीन मानिए , पुरी संजीदगी और जिम्मेवारी के साथ प्रश्नों से साबका होता रहा है और इनको मन से बहिस्कृत नहीं कर पाये हैं.उत्तर खोजने की धृष्ट ता करते रहें हैं.सच कहें तो इसका एक अनोखा आनंद है।आपके प्रिय कवि सूरदास जी के शब्दों में कहें तो " सात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिये तुला एक अंग ,--, जो सुख सूर अमर मुनि दुर्लभ , वो सुख नन्द की भामिनी पावे "माता यशोदा कान्हा को थपकी देकर सुला रही हैं.सूरदास कहते हैं की सातों स्वर्ग और उसके सारे अप्वार्गों के सुखों को अगर तराजू के एक तरफ़ रख दिया जाय तब भी यह यशोदा के सुख के बराबर नहीं होगा .आप बीती को जगबीती का हिस्सा मानते हुए अगर सवाल खडा होता है और उसका ईमानदारी से उत्तर ढूँढने के प्रयास में अगर दुनिया को ललकारने की जरूरत हो जाय या दुनिया इसे चुनौती माने तो इस मामले में हम असहाय हैं .सादर

विश्व को ललकारने की धृष्टता - मित्र की राय सर आंखों पर

बिहार नायक तिरस्कार के अभिशाप की पीड़ा से जूझ रहा है

( वीरेन्द्र - अपने नए पोस्ट में बिहार के मौजूदा दौर की बदहाली के कारणों की तलाश इसके इतिहास में कर रहे हैं। लेख को पढ़ें और अपनी प्रतिक्रया से अवगत कराएँ ।)

बिहार नायक-तिरस्कार के अभिशाप की पीडा से जूझ रहा है

बिहार की वर्तमान दुरवस्था के लिए किसी एक कारण को चिह्नित करना गलत होगा. कोई चीज़ न तो एक दिन में बनती है और न ही एक दिन में मिटती है. भले ही आज बिहार बेहाली का पर्याय बना हुआ है, तो भी हमें झटके से यह नहीं मान लेना चाहिए कि मौजूदा बिहार एक ऐतिहासिक विचलन है, क्योंकि इतिहास में फिसलन इतना नहीं होता कि हम वर्तमान को उससे विलग कर समझ सकें. व्यक्तिगत तौर पर मैं मानता हूँ कि बौद्ध-मत के अलावा बिहार में ज्ञानोदय का कोई मुकम्मल दौर ज्यादा दिनों तक बरकरार नहीं रह सका. सच तो यह है कि बौध-धर्मं का स्वर्ण-काल भी कभी इतना ताक़तवर नहीं बना था कि उससे एक नई संस्कृति का सूत्रपात हो सके. धर्मं को जीवित रहने या रखने के लिए जरूरी है कि वह किसी नई आचार-संहिता अथवा संस्कृति का उत्स बने. बौध-धर्मं के काल में भी आचार-संहिता मनुस्मृति के नियमों के अनुरूप बनी रही. ब्राह्मणवादी सनातनी नैतिकता बौद्ध-मत को कभी भी स्वीकार नहीं कर पाई. उल्टे, उसके खिलाफ तरह-तरह की साजिशें कराती रही. कभी बुद्ध को नास्तिक करार देकर आम आदमी के मन में संशय के बीज बोने की कोशिश की गयी तो कभी उनकी आस्था की खिल्ली उडाई गयी. हम सभी जानते हैं कि बौद्ध-मत के समर्थन में एक तरफ अगर छोटी जातियाँ थीं तो दूसरी तरफ उसे सम्राट अशोक जैसे महान नृपतियों का भी राज्याश्रय हासिल था. लेकिन सदियों से दबी-कुचली और अनपढ़ रही इन निम्न जातियों के लिए यह संभव नहीं था कि वे अपने नए मत का कोई तार्किक और वैचारिक आधार ढूंढ पातीं. दूसरी तरफ राज्याश्रय की छत्रछाया में विकसित हो रहे इस धर्मं के प्रति ब्राह्मणी नैतिकता में सराबोर तत्कालीन बौद्धिक समाज की कोई खास रूचि नहीं बन पाई. कहने की जरूरत नहीं कि किसी नई विचाधारा को आगे बढ़ाने का काम उस समाज के बुद्धिजीवी ही करते हैं. चूंकि तब पढ़ने का अधिकार सिर्फ ब्राह्मणों या कह लीजिये द्विजों को था, इसलिए तब के हमारे समाज में अधिकाँश बुद्धिजीवी ब्रह्मण ही हुआ करते थे. ऐसे में यह अपेक्षा ही गैरवाजिब थी कि ये ब्राह्मण अपने धूर विरोधी के समर्थन में प्रचार-प्रसार करें. इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि राज्याश्रय की छाया हटते ही बौद्ध धर्मं का दायरा सिकुड़ता चला गया. अशोक के बाद के दिनों में खासकर पुष्यमित्र सुंग के शासन काल में बौद्धों के खिलाफ भरी दमन का सूत्रपात किया गया. लाखों की संख्या में बौद्ध भिक्षुक या तो मार दिए गए या फिर वे अपनी मातृभूमि से पलायन कर गए.

छठी सदी में हर्षवर्धन ने राजगीर में अंतिम बुद्धिस्ट काउंसिल बुलाई थी. इसे बुद्धिज्म का आखिरी पटाक्षेप भी कहा जा सकता है क्योंकि उसके बाद बौद्ध-धर्मं धीरे-धीरे अपने अवसान की ओर बढ़ता गया. उसकी प्राणशक्ति पर फिर से ब्राह्मणों का कब्ज़ा हो गया. बौद्ध-धर्मं के पुनर्जीवन की किसी भी संभावना को निरस्त करने के लिए पाखंड में सिद्धहस्त ब्राह्मणों ने उसी बुद्ध को विष्णु का दसवां अवतार घोषित कर दिया जो जीवन भर इसी पाखंड के खिलाफ लड़ते आया था. इतर विचारों को अपनाकर उसे अपनी तरह बना लेना ब्राह्मणों की सोची-समझी रणनीति रही है. अगर ऐसा न होता तो हमारे समाज में भगवान बुद्ध के जीवन से जुडी घटनाओं को लेकर कोई न कोई जीवंत लोक-उत्सव जरूर मनाया जाता. जहाँ हर छोटी-बड़ी बात अथवा घटना को लेकर जूलूस निकाले जाते हों, हर साधुनुमा आदमी की याद में हर गली, हर कूचे में सामूहिक आयोजन किये जाते हों, शोभा-यात्राएं निकली जाती हों, वहां आखिर ऐसी क्या बात हो गयी कि हमने महात्मा बुद्ध जैसे मनीषी की ऐसी अनदेखी कर दी. प्रति-संस्कृति के नायक की हत्या की सबसे आसान रणनीति यही है कि उसे तीज-त्यौहार, पूजा-उत्सव और मेला-बाज़ार के विमर्ष से बाहर कर दो. नायक-वध की ऐसी मिशाल आप कहीं और नहीं पाएंगे.

महात्मा बुद्ध की परम्पर की इस अनदेखी के लिए जिम्मेदार पूरा भारतवर्ष है, किन्तु सबसे ज्यादा बड़ा दोष तो बिहार का ही माना जायेगा क्योंकि बिहार ही उनका धर्मं और कर्म-स्थल रहा है। बिहार की दुरवस्था का एक कारण, मेरी समझ में, यही है कि उसने अपने इतिहास और धरोहर के प्रति बहुत ही कम संवेदनशील रहा है. नायक-पूजा जितनी बुरी बात है, उससे कहीं ज्यादा बुरी बात नायकों का तिरस्कार है. नायकों के प्रति मन में श्रद्धा का भाव ही किसी समुदाय अथवा समाज में उन्नयन के लिए सांस्कृतिक ऊर्जा प्रदान करता है.
वीरेन्द्र
( नोट - बिहार की दुरवस्था के दूसरे कारणों की पड़ताल अगली किश्तों में की जायेगी।)

Thursday, February 19, 2009

माटी का मोह - कथा कई समंदर पार से

( कैसा होता है माटी का मोह ? राजीव जी अपनी आपबीती बता रहें हैं इस पोस्ट में । इन्हें देश दुनिया का व्यापक अनुभव है .दुनिया के सारे समंदर पर कर चुके हैं और कथायों का भंडार है इनके पास । प्रस्तुत है पहली कड़ी )
प्रवासी भारतीय और भारतीय संस्कृति के लिए उनकी भावनाएं - एक व्यक्तिगत अनुभव (भाग १) -
कुछ रोज पूर्व एक मित्र से प्रवासी भारतीयों की भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था पर बात हो रही थी. चर्चा छिडी के रिश्तेदार जब विदेश से आते हैं तो यहाँ के परिवर्तन से अनभिज्ञ होते हैं और अभी भी पुरानी व्यवस्था की उम्मीद करते हैं. उनके लिए समय ठहर सा गया होता है.
कुछ वर्ष पूर्व बैंकॉक में अपनी संस्था के लिए कार्य करते समय फीजी जाने का मौका मिला। वहां हमारे सम्पर्क अधिकारी भारतीय मूल के थे सतीश कुमारजी.
बड़े ही नेक व्यक्ति - भावुक, शिष्टः, और अतिथिप्र्यिय।
उन्होने दूसरे दिन ही अपने घर खाने पर बुलाया। मैं और मेरी Director जो ऑस्ट्रेलिया से थीं, शाम को उनके घर पहुंचे. स्वागत का अच्छा खासा इंतज़ाम था. दोस्तों, और रिश्तेदारों को भी बुला रखा था. सभी बड़े ही गर्मजोशी से मिले. उनके दादा, दादी भी मौजूद थे जो अपने बचपन में ,1930 के दशक में ,बक्सर के गाँव से अपने रिश्तेदारों के साथ गए फीजी आए थे . आपस में वे सब भोजपुरी और अंग्रेज़ी का मिला जुला रूप बोल रहे थे.
मिलते मिलाते मैं दादा दादीजी के पास पहुँचा और प्रणाम किया। दोनो ने आशीर्वाद दिया और अपने पास बैठा लिया.
मैंने खालिस भोजपुरी में पूछा,"आजी कईसन बानी" ?
भोजपुरी सुनते ही दादीजी ने मेरा हाथ पकड़ा और रोने लगीं।
धाराप्रवाह आंसूं बहने लगी और बोली,"बबुआजी राउआ हमरा देश से आइल बानी। आपन माटी के याद हरियर भ गईल"
दादाजी की भी आँखें गीली हो गयीं और वहां उपस्थित कई औरों की भी।
बहुत देर तक वो मेरा हाथ थामें रोती रहीं।
मेरी भी आंखे नम हुई. मेरी Director हतप्रभ थीं की क्या हो रहा है।
इस तरह की भावनात्मक अभिव्यक्ति से शायद अनभिज्ञ थीं।
दादी जी को चुप कराया गया। पर शाम भर उन्होंने मुझे अपने पास से हिलने नहीं दिया।
गाँव की कहानियाँ कहती रहीं। अपने घर, खेत, खलिहान, गाय, दोस्त, सखी, रिश्तेदारों की बातें बताती रहीं. जैसे अपनी यादें ताजी कर रही हों. उनलोगों का गाँव से सभी संपर्क टूट चुका था. कोई रिश्तेदार नातेदार नहीं रह गया था. पर यादें थी. ढेरों. और शायद इतने दिनों बाद उन्हें कोई मिला था जो उनकी यादों को उनकी तरह समझ रहा था.
उनके बच्चों ने भारत नहीं देखा था।
दादी और दादाजी की भावनाओं के प्रवाह में अन्य भी सराबोर थे। शाम इसी उत्साह में बीती।
शेष पुनः
राजीव

Tuesday, February 17, 2009

वैलेंटाइन डे के बहाने - चाल और चेहरा

(मित्र वीरू का वैलेंटाइन डे पर केंद्रित पोस्ट की दूसरी किस्त प्रस्तुत है। वीरेंदर का कहना है की इस विषय पर इससे ज्यादा शिष्ट वो नहीं हो सकते हैं .पढ़ें और अपने उदगार से अनुग्रहीत करें .)



वैलेंटाइन डे के बहाने: भाग II
अपने लेख के पहले अंश में वैलेंटाइन डे की मैंने जो दो छवियाँ दिखाई थी, उसमें एक त्राषद तो दूसरी प्रहसनमूलक मानी जा सकती है. पहली छवि त्राषद इसलिए क्योंकि उसमें रामजी की आड़ में वह सब कुछ किया जा रहा है जो भगवान श्रीराम की छवि से कोसों दूर है. जिस राम का नाम सुनते ही हमारे मन में निराशा के बीच आशा, दैन्य के बीच पुरुषार्थ तथा हैवानियत के बीच इंसानियत की भावनाओं का स्वतः संचार हुआ करता था, आज वही राम निरीह बना शैतानी तांडव देखने के लिए मजबूर है. मुझे अक्सर ऐसा लगता है कि जिस तरह सीता मैया को रावन ने धोखे से अपहरण कर लिया था वैसे ही मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को भी अ-रामों ने अगवा कर लिया है. राम की यह छवि कितनी दयनीय है! राम के बगूला भगत उन्हें लेकर गली गली में घूम रहे है और सबको बता रहे हैं कि देखो भगवान राम का कितना अपमान हुआ है. जिस राम के सामने त्रिलोक कांपता था, आख़िर उस राम के साथ बेअदबी से पेश आने की किसने हिमाकत कर डाली? जिस राम ने भक्तशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास से भी अपने अपमान की बात नहीं कबूली, अब क्या हुआ कि वे रो-रोकर कभी किसी तोगडिया को, कभी किसी सिंघल को तो कभ किसी अडवानी को बिन पूछे बताये जा रहे हैं कि हे, मेरे सच्चे भक्त! तुम्हीं मेरा उद्धार कर सकते हो. अगर तुम्हारी थोडी-सी भी आस्था मुझमें है तो कसम खाओ कि तुम बाबरी मस्जिद को धूल-धूसरित कर दोगे; कि उसी जगह पर मेरा एक भव्य मन्दिर बनोगे. मैं वचन देता हूँ कि जिस दिन तुम ऐसा कर लोगे, उस दिन मैं तुम्हें और तुम्हारी पार्टी को केन्द्र कि सत्ता पर बैठा दूँगा. चाहो तो तुमलोग एक काम करके भी मेरा पूरा स्नेह और समर्थन हासिल कर सकते हो. क्या यह वाकई दुखद नहीं है?
गली-मोहल्ले के लुच्चे, लम्पट, लफंगे और दादालोग जिस तरह भारतीयता, राष्ट्र धर्मं और जातीय गौरव के नाम पर हर साल चौदह फरवरी को मानवीय प्यार का ज़नाज़ा निकालते हैं, उसे देखकर इतना तो कहा ही जा सकता है कि ये राम का मर्म जानते हैं और न ही उनका कर्म. अगर ये बौड़म राम के काल में पैदा हुए होते तो मुझे यकीन है कि ये राम और सीता को पुष्प-वाटिका में प्रवेश नहीं करने देते. इनकी नज़र में लक्ष्मणजी भी घोर पातकी कर्म कर रहे थे. बड़े भाई के प्रणय-निवेदन का चश्मदीद गवाह वे अकेले ही तो थे. नल-दमयंती, भरत-शकुंतला, अहिल्या-गौतम जैसे न जाने कितने पवित्र मनीषियों ने प्यार का पैगाम दिया है, आज यह बताने कि जरूरत नहीं है. हम जिस प्रेम को जानते हैं उसकी अभिव्यक्ति और उसका एहसास सिर्फ़ दो व्यक्तियों के लिए मायने रखता है. प्यार में तीसरे पक्ष की उपस्थिति ही गैरवाजिब है और इसीलिए उसकी छवि सदैव एक खलनायक की मानी गयी है. प्रेम सर्वथा सृजनकारी होता है. वह नूतन और अनदेखे सत्य का अन्वेषक होता है. वह नैतिकता, संस्कार और पवित्राचार की परम्परास्यूत परिभाषा को नवरूप देता है. प्रेम ऊर्जा का अक्षय भंडार होता है. वह न तो पुरातन है और न ही नवीन. वह चिरनवीन होता है. उसकी गरिमा इस बात पर निर्भर नहीं करती कि हम उसका इज़हार इस-उस या किस प्राकार करते हैं. लेकिन जो चीज इतनी सृजनकारी होगी वह अपने को स्थापित करने हेतु मौजूदा चीजों के क्रम में उतने ही फेर-बदल भी करेगी. इसके लिए हमें प्रेम के समाजशास्त्र से रु-ब-रू होना पड़ेगा.
स्थापित समाजों का इतिहास इस बात का गवाह है कि उनकी बुनियाद में प्रेम का कोई मसाला नहीं मिलाया गया है. भारतीय समाज तो व्यक्तिक प्रेम को सदैव एक विकार मानता आया है. स्त्री रूप में माया कि जैसी छवि हमारे धर्मं-ग्रंथों में उकेरी गयी है, वह कमोबेश आज भी हमारे मानस में रची-बसी है. पवित्रता-अपवित्रता के खानों में सजाया गया हमारा समाज सदैव एक जटिल संकुचन की पीड़ा से ग्रस्त रहा है. हम जो भी करें, हमें जाति, धर्मं, नाते-रिश्तेदारी, कुल-खानदान और हैसियत का ख्याल रखना पड़ता है. जो लोग वैलेंटाइन डे के बहाने प्रेम का प्रतिकार या तिरस्कार कर रहे हैं, वे बखूबी जानते हैं कि अगर हमारे समाज में व्यक्तिक प्यार को मान्यता मिल गयी तो न तो उनकी जाति बचेगी, न उनका धर्मं बचेगा और न ही बचेगा उनका कुल-खानदान. यह प्यार सबको भस्म कर देगा. और इसीलिए यह क्षयकारी रोग है, समूल विनाश ही उपचार है.

जय हो! जय हो!!

Sunday, February 15, 2009

वैलेंटाइन डे के बहाने

( मित्र वीरू का वैलेंटाइन डे पर पोस्ट अभी अभी मिला है । उसे पेश कर रहा हूँ .आपके उदगार का इंतज़ार रहेगा )


वैलेंटाइन डे के बहाने
मैं तकरीबन पचास साल का हूँ. फिर भी मुझे बेसब्री से वैलेंटाइन डे का इंतजार रहता है. इस साल भी था. इंतजार की वज़हें तो कई हैं, लेकिन इतना ज़रूर है कि उसमें सबसे दिलचस्प वज़ह शिव सैनिकों, राम सेनानियों तथा बजरंगदालियों जैसे संगठनों के सक्रिय कार्यकर्ताओं की कारगुजारियां होती हैं. वर्षा की प्रत्याशा में जिस तरह चीटियाँ रसातल की ठंढक छोड़ धरती की सतह पर आ जाती हैं, उसी तरह ये स्व-घोषित रणबांकुरे वैलेंटाइन डे पर अपने जीवन के नाना प्रपंचों से रुख्सती लेकर राष्ट्र-धर्मं और भारतीयता के अखाडे में आ धमकाते हैं. इनका तमाशा देखने लायक, समझने-बुझने लायक तथा सबसे बढ़कर गुनने लायक है.

किसी को ठीक से याद रहे या न रहे, इन्हें बखूबी पता होता है कि वैलेंटाइन डे यानी चौदह फरवरी को कौन सा दिन है. अगर यह दिन मंगलवार हुआ तो इनका जोश दुगुना हो जाता है. कोई पूछे न पूछे, ये तरह तरह के उपक्रम करके दुनिया को बताते रहेंगे कि वे प्रेम के कतई खिलाफ नहीं हैं, उनका विरोध तो इसके प्रदर्शन के तरीकों को लेकर है. ये मानते हैं कि प्यार निजता की चीज है, और इसीलिए इसका सार्वजनिक प्रदर्शन राष्ट्र हित में नहीं होगा. प्यार की सार्वजनिक अभिव्यक्ति से समाज में व्यभिचार बढेगा और राष्ट्र का आत्म-बल कमजोर होगा, वह वीर्यमान नहीं रह सकेगा. ऐसा घालमेल आपने कहीं और देखा है? वे हमें बता रहे हैं कि प्यार चरित्र और राष्ट्र के क्षरण का उत्स है. दुनिया के और किसी भी मुल्क़ के किसी भी चिन्तक ने कभी नहीं कहा कि प्यार एक क्षयकारी रोग है; कि इससे चरित्र और राष्ट्र का सत्यानाश होता है. अखबार में इश्तेहार देकर जनता-जनार्दन को सूचित किया जाता है कि ये सद्यःजात सैनिक किसी भी कीमत पर हनुमान जी का अपमान नहीं होने देंगे. वे अपनी जान देकर भी मंगलवार को ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे और दूसरों से करवाएंगे भी. इन डंड-पिस्तौलधारी किंतु सर्वथा अप्रशिक्षित सैनिकों की उन्मादी उत्सवधर्मिता जितनी लुभावनी होती है, उससे कहीं ज़्यादा डरावनी होती है. फूहड़ अनाडीपन के साथ जिस तरह ये भाला-तलवार-लाठी भांजते हैं उसे देखकर आम जनता भले डर जाती हो, कोई प्रशिक्षित सैनिक या सिपाही उसे एक तमाशा या ज़्यादा से ज़्यादा बन्दर-घुड़की ही मानेगा. चिंता की बात इतनी भर है कि हमारे असली सैनिक और सिपाही भी सिर्फ़ तमाशबीन बनकर रह गए हैं. वे भूल गए हैं कि तमाशा करते करते तमाशावाले ही अपना तमाशा बंद कर कोई और तमाशा करने लगे हैं.

राम-मनुमान जी के इन रखवारों से अलग एक दूसरी पांत उन लोगों की है जो न तमाशा करना जानते हैं और न ही उसे उजाड़ना. ये ख़ुद ही तमाशा बनकर यात्रा-तत्र-सर्वत्र विराजमान रहते हैं. ये लोग इतने दीवाने होते हैं कि इन्हें अमूमन अपनी सुरक्षा की भी चिंता नहीं होती. न ये किसी से कुछ कहते हैं, न किसी को कुछ बताते हैं और निकल पड़ते हैं प्रेम की डगर पर, यह जाने बगैर कि 'बहुत कठिन है डगर पनघट की'. ये प्रेमानुरागी नहीं जानते कि वे किस सदी में और किस समाज में जी रहे हैं. जहाँ सुरक्षा की गोहर लगाने पर भी सुरक्षाकर्मी वारदात के बाद पहुंचते हों, वहां इन्हें यकीन होता है कि सिर्फ़ प्रेम की बांसुरी बजाकर ये प्रेम-शत्रुओं का विनाश कर लेंगे. नतीजतन, ये न तो अपने माता-पिता को, न अपने परिवार को और न ही पुलिस को इत्तला करना जरूरी समझते हैं. और फिर, वही होता है जो मंजूर खुदा होता है. किसी के बाल काटे जाते हैं, किसी को गाली-थप्पड़मिलाती है तो किसी को सरेआम नंगा कर खिल्ली उडाई जाती है.

(क्रमशः जारी)वीरेन्द्र

Saturday, February 14, 2009

सवाल जमात में शामिल होने का है ?

क्या आप अभिव्यक्ति की स्वंत्रता , नारी स्वन्त्रत्य ,भारतीय समाज में बन्धुत्व की भावना को विकसित करने वालों ,लोकतांत्रिक मूल्यों - या यूँ कहें की भारतीय समाज ,राजनीति और संस्कारों के व्यापक और मुकम्मल लोकतांत्रिक करण में विश्वास रखते हैं ?
या फिर धर्म , संस्कृति , सभ्यता , आतंकवाद जैसी किसी चीज की दुहाई देकर इन भावनायों के विरूद्ध जाने वाली दूसरी जमात में खड़े होते हैं ?
फर्ज किया जाय की आप हिंदू है और अपनी हिंदू पहचान पर jaayaj और स्वाभाविक गर्व करते हैं। इस महान धर्म की उद्दात मूल्यों - जैसे - घाट- घाट में राम ,जड़ - चेतन सब उसी राम की परम अभिव्यक्ति , तो फिर क्या अपना और क्या पराया , क्या धर्मी और क्या विधर्मी , क्या हिंदू और क्या मुसलमान ?
और इस महान paramparaa के
अयं निज करोवेती , गणना लघुचेतसाम
उदार चरितानाम वसुधैव कुटुम्बकम
इसमे निहित महान आदर्श को आत्मसात कर लिया है तो sankirntaayon के दायरे क्या साए में भी न आयेंगें
और अपनी paramparaa ही इतनी सम्रिद्छ है की दूर या सात समंदर पार देखने की जरूरत नहीं रहेगी .
तो दोस्तों असली बात यह है की आप किस जमात में आना और रहना चाहते हैं ?
क्या भारतीय मनीषा और संस्कृत वांगमय में निहित सार्वभौमिक और शाश्वत मानव मूल्यों में विश्वास रखते हुए प्रगति गामी धारा का वाहक बनते हैं या फिर
भारत और भारतीय मूल्यों का तालिबानी करण, पक्ष अथवा परोक्ष रूप में करते हैं।
सवाल असली जमात का है ?

Thursday, February 12, 2009

बिहार - सदी 13 से 1857 तक : क्या कहने योग्य कुछ भी नहीं है ?

कल एक मित्र से चर्चा हो रही थी । इतिहास के विद्यार्थी रहें हैं । लोक मंगल की भावना रखते हैं । अपनी आप बीती इमानदारी से बतातें हैं । डिंग हांकू वर्तमान दौर में ऐसे लोग जीवन के शाश्वत मूल्यों में आप की आस्था को मजबूत करते हैं।
बात चीत बा-रास्ता पटना विश्वविद्यालय ,बोरिंग रोड चौराहा , वीणा सिनेमा हॉल में बौबी फ़िल्म , ब्लैक से टिकट खरीदना ,और टिकेट ब्लैक करने वालों से मारपीट , से होते बिहार के इतिहास ,इतिहास लेखन और शोध तक पंहुच गया ।
एक प्रसंग आया की गुप्त काल ,फा हेयान और हुवेन सांग तक तो बिहार का प्रसंग इतिहास के औपचारिक लेखन में आता है , पर फिर शेरशाह के दिल्ली फतह के बाद औपचारिक इतिहास , बिहार और बिहारियों की दशा पर आम तौर पर मौन है।
हाँ, १७६४ का बक्सर युध्ध , ग़दर के सन्दर्भ में वीर कुंवर सिंह की बहादुरी और दानापुर की बगाबत आदि की चर्चा है।
लेकिन सोचने की बात यह है की क्या करीब ८००- १००० साल के इस लंबे दौर में लिखे और पढ़े जाने लायक कोई बात बिहार के भूगोल में नहीं घटित हुई ?
बख्तियार खिलजी द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय की लूट , उदन्तपुरी का बिहार शरीफ में बदलना , सूफी संतों का बिहार आना ( मनेर शरीफ ) , बिहार का भूगोल भारत में इस्लाम का आरंभिक ठिकानों में एक होना, बाद में अफगानों और मुग़लों की लड़ाईयां , अकबर के सेनापति मान सिंह के नेतृत्व में बिहार बंगाल अभियान .धीरे धीरे सूफी संतों ,इस्लाम का बढ़ता प्रभाव , चैतन्य महा प्रभु और कबीर की सीख को अपनाता बिहारी कृषक समाज , मध्य युग के भीषण दुर्भिक्ष ( १६७० का दुर्भिक्ष जिसका फैलाव बनारस से राजमहल तक था ) - इन चुनिन्दा घटनायों का कुछ असर तो बिहारी समाज पर पड़ा होगा ?
क्या हजार साल के इस दौर में यहाँ के समाज ,राजनीति ,संस्कृति ,कृषि , तकनीक आदि में कुछ तो बदलाव आया होगा ?
इतिहास की एक परिभाषा के अनुसार इतिहास वर्तमान और भूत का निरंतर चलने वाला संवाद है । वर्तमान भूत से और उसके बारे में सवाल करता है । यही सवाल जवाब इतिहास है। कहने की जरूरत नहीं की यह प्रश्नोत्तरी कभी ख़त्म नहीं हो सकती है ।
कोई समाज इतिहास vihain नहीं होता ।
हाँ अगर समाज में ख़ुद पर bharosa है की अपने ithaas को अपनी najron से देखे तो इतिहास shunaytaa का prashna hin नहीं uthataa है।
इस दौर पर शोध करने waale २५-५० etihaaskaar अगर हो jaayen तो क्या औपचारिक इतिहास लेखन और विमर्श में यह najarandaaji बनी रह paayegi ?

Wednesday, February 11, 2009

बिहार - कितने गाँव , कितने बच्चे और कितने हाई स्कूल ?

स्वप्न सा है वह सब कुछ जो बिहार के भूगोल में आज हो रहा है ।
पर यह समझने के लिए बिहार के वर्तमान सन्दर्भ को देखना पडेगा ।
क्या है बड़ी तस्वीर ?
वर्त्तमान जनसंख्या तक़रीबन साढे नौ से दस करोड़ , 75 से 80 फीसदी ग्रामीण आबादी।
डिविजन 9,
जिले 38,
सब डिविजन १०१ ,
सामुदायिक विकास प्रखंड 534 ।
पंचायत ८४७१
राजस्व ग्राम 45103 ( जिसमे कुछ बे- चिरागी होंगें )
शहरी क्षेत्र ९
शहर 130
हर राजस्व ग्राम के दायरे में कई सामान्य ग्राम और टोले अर्थात ग्रामीण बसाहट या सामान्य गाँव की कुल संख्या लगभग साठ हजार ।
और मोटे तौर पर 1682 सरकारी और कहें तो 2000 गैर सरकारी हाई स्कूल ।
कुल योग 3682
बिहार की समस्त ग्रामीण आबादी के लिए कितने हाई स्कूल हुए ?
बिहार की कुल जनसँख्या का २०% ( 1।6 करोड़ ) हिस्सा छः साल से नीचे है ।
ये बच्चे कल को किशोर होंगें ।
बिहार के भूगोल में रहने वाले यही किशोर इस बदहाल राज्य के कल के भाग्य विधाता बनेंगें ।
और इनको पूरे देश के शहरों में मजदूरी कर जीवन यापन और जहालत की जिंदगी नहीं व्यतीत करना है तो आप ख़ुद अंदाज लगाएं की कितने और हाई स्कूल खोलने की जरूरत पड़ेगी ?
खैर बिहार में फिलहाल जो कुछ भी हो रहा है वह किसी स्वप्न से कम नहीं है।
खुदा करे यह स्वप्निल दौर चलता रहे ।

Tuesday, February 10, 2009

बिहार में हाई स्कूल कितने हैं ?

बिहार मंत्रिमंडल की बेगुसराय जिले के एक गाँव में बैठक हुई . गाँव में बैठक के लिहाजन इसे ऐतिहासिक कहा जा रहा है. मंत्रिमंडल ने शिक्षा के क्षेत्र में दो महत्वपूर्ण निर्णय लिया है. पहला की हर सरकारी हाई स्कूल में अब इंटर स्तर तक की पढ़ाई होगी .इसके लिए सारी सुविधाएँ मुहैया की जायेंगी. दूसरा निर्णय अनुमंडल स्तर पर ३९ नए सरकारी ( जिसे हम अंगीभूत की संज्ञा देते हैं )कॉलेज खोले जायेंगें .इन निर्णयों के लिए बिहार की वर्त्तमान हुकूमत बधाई की पात्र है.लेकिन नए निर्णय के पीछे कुछ आंकडे चौंकाने वाले है.बिहार की वर्तमान जनसंख्या ९-१० करोड़ के बीच है. जानकार कहते हैं की इस आबादी का तक़रीबन पंद्रह से बीस फीसदी हिस्सा प्रवासी हो गया है. मतलब सात से आठ करोड़ बिहार राज्य के भूगोल में रहते है.हाई स्कूल में पढने लायक छात्र / छात्राएं कम से कम पचीस से पचास लाख के लगभग .पर सरकारी हाई स्कूलों की संख्या मात्र १६६२ .फर्ज किया जाय की इतने ही निजी स्कूल भी होंगें . तो ये रही बिहार में आधुनिक शिक्षा की बुनियाद की तैयारी और इन्तेजामात .क्या आपको अब भी आश्चर्य हो रहा है की बिहार इतना पिछडा क्यों है कॉलेज शिक्षा और कॉलेजों की बात की जाय तो लगता है की किसी साजिश के तहत अब तक ज्ञान पर पारंपरिक सामंती एकाधिकार और शैक्षणिक पिछडेपन के पीछे निहित स्वार्थ की व्यवस्था को जारी रखा गया है. ३९ अनुमंडलों में कोई कॉलेज नहीं.शिक्षा को बरबाद करने की साजिश और उसको अमली जामा आठवें दशक में पहनाया गया .लेकिन इन उत्क्रमित हाई स्कूलों में क्या पढ़ाई का जिम्मा शिक्षा मित्रों के भरोसे रहेगा ? वो शिक्षा मित्र जिन्हें ५००० मासिक दरमाहे पर रखा गया है.जिन पर पंचायत पर हावी सामंती और माफिया टाइप के लोगों का दबदबा बना रहता है.योग्य शिक्षकों की अगर नियुक्ति न की गई तो बिहारी समाज की दो पीढी का भविष्य अन्धकार मय बना रहेगा .एक कदम आगे और दो कदम पीछे वाली उक्ति चरितार्थ होगी.बिहार के विकास की चुनौती और उसके विविध आय्मों की चर्चा जारी रहेगी .

क्या बिहार में विकास और राजनीति का नया मुहावरा गढा जा रहा है ?

बिहार की बदहाली और उससे उपजी जीवन संघर्ष कि तीव्रता , कुरूपता और तमाम जद्दोजहद के बीच भी ढेरों प्रेरणादायक प्रसंग बिहार में यत्र - तत्र - सर्वत्र बिखरे हैं. देश भर में बिहार कि इस बेचैन करने वाली बदहाली को महसूस करने के लिए लोगों को बिहार आने की जरूरत नहीं है . आज शायद देश का शायद ही कोई कोना बचा हो जहाँ बिहारी और खास कर बिहारी मजदूर और कारीगर काम नहीं कर रहें हैं. देश कि मास मीडिया द्वारा बिहार और बिहारियों कि निर्मित एक खास छवि तो जग जाहिर है. पर इधर हाल साल से समाचार पत्रों और टी वी चैनेल्स में बिहार से ख़राब खबरें कम आ रही हैं.कोसी तटबंध टूट ,प्रलय और उससे उपजी मानवीय त्रासदी आदि को अगर छोड़ दिया जाय तो विकास परक खबरें ही आ रही हैं।
आज बिहार का मंत्रिमंडल बेगुसराय के एक गाँव में अपनी खास बैठक करने जा रहा है ।
तो क्या सचमुच बिहार विकास के रास्ते पर है ?
या यह सब नए जमाने कि नई नौटंकी भर है ?
वैसे तो यह निर्विवादित सत्य है कि आर्थिक और सामजिक विकास और वह भी बिहार की ठोस परिस्थिति में दीर्घ कालीन और चुनौती भरा कार्य है । पर जानकार कह रहें है की बिहार में सामजिक न्याय के साथ विकास हो रहा है.आर्थिक विकास के लिए अपरिहार्य आधार भूत संरचना के सब आयामों के तीव्र विकास का प्रयास सरकारी स्तर पर हो रहा है.राजनीति और सत्ता शीर्ष पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लग रहे हैं.संगठित अपराध तंत्र , माफिया और राजनीति के गठजोड़ को तोडा जा चुका है.आम तौर पर जनता सुरक्षित महसूस कर रही है.शहरों में सड़क ,नाली ,बिजली आदि आधारभूत संरचना का काम हो रहा है. राज्य की सडकों का जीर्णोधार हो रहा है.राज्य भर में स्वाथ्य के क्षेत्र में उत्साह बर्धक काम हो रहा है. सरकारी अस्पतालों की दशा सुधर रही है.ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूल नियमित रूप से काम कर रहे हैं. नए शिक्षकों की नियुक्ति हो रही है . स्कूल से बाहर बच्चों की बड़ी जमात स्कूल में लायी गयी है.धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए विशेष योजनायें लागू कि जा रही हैं. स्कूल में मिड डे मील कार्यकर्म चालू है ।पंचायत चुनावों में हर जगह महिलायों के लिए ५० % आरक्षण , महिला सशक्ति कारन की नयी इबारत लिख रहा है.हर गाँव और पंचायत में कृषि और ग्रामीण विकास से सम्बंधित काम हो रहे हैं।किसानों को फसल बर्बादी होने पर मुआवजा मिल रहा है.
तो क्या बिहार में सामजिक न्याय के साथ आर्थिक विकास के नए दौर की शुरुआत हो चुकी है ?
विकास और बदलाब का यह झोंका स्थाई हो गया है ?
क्या बिहारी समाज जातिवाद और भ्रष्टाचार के defining feature से ऊपर उठ रहा है ?
क्या वहाँ का समाज और राजनीति नए मुहावरे और लक्ष्य गढ़ रही है ?
क्या वहाँ कोई नया सामाजिक और राजनैतिक consensus बन रहा है ?
जो हो रहा है क्या वह सब चिरस्थायी रह पायेगा ?
इन सारे सवालों पर चिंतन और बहस कि प्रयाप्त गुन्जायिश है ।

Monday, February 9, 2009

पंख दिए हैं तो आकुल उड़ान में विघ्न न डालो . अर्थात हम डरते क्यो है ?

( वीरेन्द्र का लेख - मित्र वीरू के लेख की नयी किस्त प्रस्तुत है। भय , मन की निर्बिघन उड़ान और आत्मविश्वास के अंतर्संबंधों की पड़ताल करता विचारोत्तेजक लेख । पढ़ें , गुने और अपनी राय देने से संकोच न करे । सादर )

जोगी मुनि लोग बता गए हैं कि भय-मुक्ति में सहजावस्था की साधना काफी कारगर होती है. यह सहजावस्था है कौन सी बला? आम आदमी की भाषा में कहें तो सहजावस्था हमारी चेतना की वह अवस्था होती है जहाँ हमारा मन मान-अपमान, राग-विराग, अपना-पराया, दुःख-सुख यानी वह सबकुछ जिसे जोगी-मुनि माया कहते हैं, की अलग-अलग अनुभूतियाँ नही करता. वह सुख में उत्सवधर्मी नहीं होता और न ही दुःख में कातर. देखा जाय तो समझने के लिए यह कोई जटिल बात नहीं है. दिक्क़त फ़क़त इतनी है कि आम आदमी की जिंदगी की चिंताएँ जोगी-मुनि की चिंताओं से अलग होती हैं. उसके सामने सिर्फ़ मोक्ष का सवाल नहीं होता, उसे मुक्ति भी चाहिए - मुक्ति अपनी उन परिस्थितियों से जिनकी वज़ह से उसका जीवन दुखी होता है. उसके लिए सम्भव नही है कि वह मानापमान से परे हो जाए और सबको गले लगा ले - दोस्त को भी, दुश्मन को भी. उसके मन में सदैव एक हलचल मची रहती है कि उसने ऐसा क्या कर दिया कि उसकी जिंदगी लगभग बेमतलब हो गयी. कभी वह ईश्वर को धिक्कारता है तो कभी अपने आपको और कभी पूरे समाज को. लेकिन उसकी यह चीख पुकार ज़्यादा से ज़्यादा तूती की आवाज़ बनकर रह जाती है.

जोगी-मुनियों की तरह वह अकेले ही मोक्ष अथवा मुक्ति के जतन में उलझा रहता है. उसे लगता है कि कोई रहस्यमयी शक्ति उसके खिलाफ साजिश कर रही है. हार-थककर वह भाग्यवादी बन जाता है और मान लेता है कि इस जन्म में न सही, अगले जन्म में उसे ईश्वर-कृपा अवश्य प्राप्त होगी; कि वह भी जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त होकर ईश्वरीय सत्ता का हिस्सा बन जाएगा. उसके लिए दुःख-सुख महज़ संयोग हैं. वह न तो अपने दुःख का निमित्त है, न सुख का. यानी, मुन्दहीं आँख, कतहूँ कुछ नाहीं'. आम आदमी के लिए सहजावस्था की साधना करना न तो सम्भव है और न ही वांछनीय. जीवन सिर्फ़ बुद्धि विलास का मसला नहीं होता. बुद्धि निर्वात में सक्रिय नहीं होती. चित्त की शान्ति जगत की शान्ति की परछाईं भर होती है. अगर हमारे बाह्य जीवन में शान्ति-भंग की तमाम संभावनाएं मौजूद रहेंगी तो चित्त भी शांत नहीं रह सकेगा. शान्ति की खोज कोई अकर्मक क्रिया नहीं है जो बिला वज़ह घटित हो जाए. सच्ची शान्ति की खोज वही कर सकता है जो अपनी परिस्थितियों को ठीक से समझेगा और तदनुरूप ठोस कार्य-योजना को कार्यान्वित करेगा. सिर्फ़ आत्मशुद्धि के जरिये मुक्ति की कामना करनेवाले अनजाने ही बाह्य दुनिया की विसंगतियों की अनदेखी कर देते हैं. भारत का दार्शनिक चिंतन इसका अन्यतम उदहारण है. चूंकि, इस चिंतन में जगत को माया मान लिया जाता है, इसीलिए यह किसी भी सार्थक/निरर्थक हस्तक्षेप के जरिये समाज में परिवर्तन की हर सम्भावना को नकार देता है.

अपने-अपने क़ैद की तार्किकता को वैध मानते हुए मुक्ति की आकांक्षा तो एक पक्षी भी नहीं करता, फिर मनुष्य तो मनुष्य है, उसे यह क्योंकर गवारा होने लगा? जी हाँ, यह सच है कि हम अपनी-अपनी क़ैद को ही ज़्यादा से ज़्यादा सहनीय बनाने के लिए प्रयासरत रहते हैं. हम पिंजडे की सार्थकता पर कभी बहस नहीं करना चाहते. दुनिया बदले नहीं और हमें वह सब मिल जाए जो उस पिंजडे में सम्भव ही नहीं है. ऐसे ही सपनों को दिवास्वप्न कहते हैं. वास्तव में, हम ख़ुद से बेगाने होते हैं और समझते हैं कि हमसे दुनिया ही बेगानी हुयी जा रही है. ज़रा गौर फरमायें तो साफ़ हो जाएगा कि हमारे अधिकाँश दुःख-सुख इसी मनोवृति की ऊपज होते हैं. जब हम अपनी परिस्थितियों का सम्यक आकलन नहीं कर पाते तो अकेला चना भांड फोड़ने की कोशिश करने लगते हैं. ऐसे में जब संयोग से कोई उपलब्धि मिल जाती है तो शिशुवत चपलता के साथ उत्सवधर्मी हो जाते हैं और अगर दुर्योग से कोई विपत्ति आ जाती है तो अत्यन्त कातर और निराश हो जाते हैं. कहने की जरूरत नहीं कि जहाँ हमारी प्रत्येक उपलब्धि-अनुपलब्धि महज़ संयोग-दुर्योग का प्रतिफल होगी, वहां हमारे करने के लिए बहुत कुछ नहीं होगा. भय, संकोच और वैक्तिक आत्मविश्वास की कमी हमारे एकल प्रयासों की तार्किक परिणतियाँ हैं, न कि किसी संजोग-दुर्योग, शकुन-अपशकुन अथवा साजिश का प्रकटीकरण.

गणित में शून्य छोटा हो बड़ा, होता वह शून्य ही है. इंसान का पद छोटा हो या बड़ा, है वह पद ही. पद के हिसाब से न तो इंसानियत बड़ी होती है और न ही छोटी. जिस समाज में इंसानियत के लिए जिस समाज में जितनी ज़्यादा जगह होगी, उस समाज में इंसानियत भी उतनी ही बड़ी होगी. इंसानियत के दायरे को बढाये बगैर न तो हम व्यक्ति के रूप में बड़े हो सकते हैं और न ही समुदाय या समाज के रूप में. और इसीलिए हममें से प्रत्येक को तय करना होगा कि हम अकेले और सबके साथ मिलकर इस इंसानी दायरे को कहाँ तक बढ़ाना चाहते हैं. अपने डर को, अपने भय को, अपनी चिंता को तिरोहित करने का यही मार्ग है. जरूरत फ़क़त इतनी है कि एक-दूसरे के लिए हम अपने-अपने मन में थोड़ा और प्यार, थोडी और ईज्ज़त और थोड़ा और सहिष्णुता पैदा करें. इतना करके हमें कुछ और हासिल हो न हो, मन थोड़ा सहज तो हो ही जाएगा. सहजावस्था की तरफ़ एक कदम ही सही, हाँ चल तो पड़ेंगे.

वीरेन्द्र

Saturday, February 7, 2009

बिहार में परिवर्तन - भाग 2

( मित्र वीरू वायदे के अनुसार बिहार और परिवर्तन के मुद्दे पर अपने उदगार की दूसर किस्त के साथ हाजिर हैं .आपके मंतव्यों का स्वागत है। पटना गाँधी मैदान आप का इंतज़ार कर रहा है।)

यह क्या अजीब नहीं लगता कि जिस बिहार ने इतिहास से लेकर वर्त्तमान दौर तक सभी परिवर्तनकारी शक्तियों को अपने यहाँ पनाह दी है, वही बिहार आज विचारों की ऊष्मा के लिए तरस रहा है. हम जानते हैं कि समाज की सडांध को सिर्फ़ नवविचार और नवाचार ही दूर कर सकते हैं. दमित जातियों के शुरूआती उभार के दौर में (छठे-सातवें दशक में) ऐसा लगा था कि हो न हो बिहार भी एक नई करवट के लिए बेताब हो जाए. नाई जैसी ज़ाति के किसी व्यक्ति के लिए मुख्यमंत्री कि कुर्सी तक पहुँच पाना वास्तव में उस करवट की पहली अनुगूंज थी. माननीय कर्पूरी ठाकुर के उदय में एक बात साफ तौर पर उभरकर सामने आयी थी कि बिहार की राजनीति में संख्या बल ही राजनीतिक सफलता का एकमात्र मानदंड नहीं हो सकता. लेकिन यह स्थिति ज़्यादा दिनों तक बनी नहीं रह सकी. औपचारिक राजनीति के खिलाड़ियों को यह समझने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा कि असल में इस चुनावी लोकतंत्र में संख्या की उपेक्षा करना अपने ही पैरों पर कुल्हाडी मारने जैसा आत्मघाती कदम साबित होगा. बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव का उदय इसी तर्क-विपर्यय का नतीजा माना जा सकता है.

औपचारिक राजनिति के सामने सबसे बड़ी चुनौती जातिबद्ध समाज को बुद्धिसम्मत बनाने की थी किंतु वह ख़ुद आकंडों के भंवरजाल में फंस गयी. जातियां बनी रहीं, राजनीति चलती रही. जातियों की यथास्थिति बनाये रखने के लिए न तो किसी वैचारिक आन्दोलन की जरूरत होती है और न ही विकास के किसी सम्यक प्रयत्न की. नतीजतन, बिहार में न तो भूमि-सुधार के जरिये आजीविका के संसाधनों को समतामूलक बनाने की कोशिश की गयी और न ही आज़ादी पूर्व चलनेवाले सामाजिक-धार्मिक आन्दोलनों को ही आगे बढाया जा सका. जातियों की अलग-अलग एकजूटता ही औपचारिक राजनीति को मज़बूत आधार देने में कारगर साबित होती रही. अपनी-अपनी जाति में नायकों की खोज करना ही काफी समझा जाने लगा. लेकिन चूँकि जातियों का आधार धार्मिक था, इसलिए इन नायकों की छवि भी किसी अवतारी पुरूष के रूप में ही बनाई जाने लगी. और नायक की ऐसी छवि बनते ही वह सामान्य मानवीय बुद्धि की ज़द से बाहर हो जाता है. हम उसके कृत्यों-अ-कृत्यों मूल्यांकन इस आधार पर नहीं करते कि उनसे हमारी कौन-सी तात्कालिक अथवा दूरगामी चिंता का समाधान होता है. अवतारी पुरूष के आकलन के लिए तात्कालिता का मानदंड अपनाया नहीं जा सकता क्योंकि उसके अमंगल में भी मंगल की कामना छुपी होती है. यही कारण है कि तमाम लानत-मलामत के बावजूद कोई नेता अपनी जाति में अपना रुतबा आसानी से नहीं खोता. उसकी जातिवाले उसकी हर आलोचना को दूसरी जाति की साजिश मानते हैं.

बिहार की बदहाली का सारा दोष वहां की राजनीति अथवा भ्रष्टाचार के माथे मढ़ देना काफी नहीं होगा. देश के दूसरे हिस्सों में भी राजनीति न तो पवित्र है और न ही वे भ्रष्टाचार से मुक्त हैं. अलबत्ता, वे एक बात में बिहार से अलग जरूर हैं. दक्षिण के राज्यों में जहाँ सामाजिक आन्दोलनों की सुदीर्घ परम्परा रही है, वहीं बिहार में ऐसी किसी परम्परा का लंबा इतिहास नहीं मिलता. छठे दशक में समाजवादियों की अगुआई में जाति-व्यवस्था के खिलाफ जो सांस्कृतिक आन्दोलन चलाये गए, वे संस्स्क्रितिकरण के चौखटे को पार नहीं कर सके. उदहारण के लिए, पुरोहितवाद को समाज से दूर करने के नाम पर हर जाति के अन्दर ही पुरोहितों की एक अलग जाति बना ली गयी. यानी, ब्राह्मणवादी फांस की गिरफ्त में आकर यह आन्दोलन भी किसी वैकल्पिक संस्था का निर्माण नहीं कर सका. यही कारन था कि छठे दशक का समाजवादी नवोन्मेष राजनीति के स्तर पर पिछडे वर्ग कि उपस्थिति दर्ज कराने के अतिरिक्त कोई वास्तविक बदलाव की दिशा नहीं ढूंढ पाया.

अस्सी के दशक में जयप्रकाश नारायण की अगुआई में लोकतान्त्रिक विचलन के खिलाफ जो आन्दोलन चला, वह बहुत हद तक वैचारिक शून्यता पर टिका था. उसमें न तो कांग्रेसी संस्कृति के खिलाफ किसी नवजागृति का मुकम्मल संदेश था और न ही इतना समय कि राजनीति के नवागंतुकों को नई सांस्कृतिक चेतना का मुकम्मल पाठ पढाया जा सके. खुदा झूठ न बोलाय, इतिहास इस बात का गवाह है कि राजनीति में लम्पटों कि ऐसी भीड़ पहले कभी नहीं देखी गयी जैसी कि वह संपूर्ण क्रांति के बाद के दिनों में देखी गयी. राजनीति में जातीय उन्माद की यह शुरूआत भर थी. परवान तो वह आगे चढी.

बिहार को बदलने के लिए हमें राजनीति के सामाजिक आधारों को फिर से खंगालना पड़ेगा. राजनीति संसद और विधानसभावों में प्रतिनिधियों का जमघट भर नहीं होता. वहां जो कुछ दिखता है, उसकी जड़ें कहीं गहरे हमारे समाज के ताने-बाने में ही छुपी होती हैं. प्रत्येक सामाजिक बनावट की एक ख़ास राजनीति होती है. अगर ऐसा न होता तो हमारी मौजूदा राजनीति इतने दिनों तक हमारी छाती पर बैठकर मूंग नहीं दल रही होती. पतनशील राजनीतिक संस्कृति, चौतरफा भ्रष्टाचार और ज़लालत के प्रति अगर बिहारी समाज सहिष्णु बना रहा तो इसीलिए कि हमारा समाज ऐसी सहिष्णुता को खाद-पानी देता रहा है.

लोकगीतों के नयों की जगह इन्हीं गूंडों को नायकत्व सौंपा जा रहा है. 'नायक पूजा' कि सामंती संस्कृति में यही गुंडे 'जातीय गौरव' के सांकेतिक प्रतीक बनते जा रहे हैं. राजनीती के क्षेत्र में आवारों की बढ़ती संख्या इसी पतनोन्मुखिता को प्रतिबिंबित करती है.

इस स्थिति से निपटने के लिए नवजागरण की जरूरत है. अगर इस नवजागरण को भगवती जागरण से कुछ अधिक होना है तो बिहार के सभी संवेदनशीलों को अपने और अपनी जाती के न्यस्त स्वार्थों की संकीर्ण गलियों से बाहर आकर एक ऐसे जनमानस को तैयार करना होगा जो विवेकप्रवन हो, आधुनिक हो तथा पुरातन के निर्मम विश्लेषण की क्षमता रखता हो. गीतकारों और कवियों को चाहिए कि वे जनता में सहृदयता, प्रेम और साहस का प्रचार करें न कि चालीसा के नए नए गुटके निकालें. लेकिन यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल. विचार को व्यवहार में उतरने के लिए संस्कार और अंतरात्मा कि भट्ठी में तपना होता है.

पिछले अंक के अंत में जिस पेंच कि बात कही गयी थी, उसका विश्लेषण यहाँ समीचीन होगा। सच है कि बिहारी आज हर जगह पाए जाते हैं, कि वे शिक्षित हैं; कि उनके पास बिहार को विकास कि पटरी पर लाने का हूनर है; कि वे बिहार के विकास के स्वाभाविक सहयात्री हैं. लेकिन, वे एक ख़ास तरह की ज़िन्दगी के आदी भी हो चुके हैं. जो मध्य वर्ग आज बिहार से पलायन कर चुका है, वह तभी लौटकर बिहार जाएगा जब उसे वहां भी वही सब सुविधाएं मिलेंगी जिसे वह अपना अधिकार समझता है. हममें से प्रत्येक व्यक्ति इसी जीवन-शैली का गुलाम है. हमारा दुःख बहुत हद तक एक ख़ास जीवन शैली से चिपके रहने की वज़ह से पैदा होता है. अगर आज की राजनीति में गुंडों का बोलबाला है तो इसीलिए की उसकी मुखालफत के लिए हम तथाकथित पढ़े-लिखे लोग आगे नहीं आ पा रहे हैं. जो साहस एक गुंडा दिखा सकता है, वह कोई भी शिक्षित व्यक्ति दिखा सकता है. लेकिन तोता रटंती विद्या से इसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती. हम एक व्यैक्तिक ख्वाब का पीछा करते बड़े होते हैं और जो कुछ पा लेते हैं, उसे ही ख्वाब का पूरा होना मान लेते हैं. अक्सर लोग कहते सुने जाते हैं कि मेरी अमुक उपलब्धि सपने के साकार होने जैसा है. वास्तव में हम संकुचित सपनों के युग में जी रहे हैं. जहाँ सपने इतने छोटे होने लगे कि उसे कोई परीक्षा उतीर्ण कर पा ले, एक माकन बनाकर हासिल कर ले या फिर अपने बच्चे को किसी विदेशी यूनिवर्सिटी में दाखिला करा कर पा ले, तो समझ लेना चाहिए कि हमारा सपना सर्वे भवन्तु सुखिनः के लिए नहीं है. स्व के सपने को जबतक लोकमंगल की कामना से बद्ध न कर लिया जाए तबतक हम नहीं कह सकते कि हमारा सपना सबका सपना है. बिहार के लोगों को भी अपने अपने सपनों की स्वर्णिम क़ैद से बाहर आकर लोकमंगल के गीत गाने होंगे. तभी और केवल तव्ही हम बिहार को पतनशीलता के भंवरजाल से बाहर निकल पायेंगे. हमारे अनुकूल दुनिया बन जाय तब हम उसमें रहने के लिए तैयार होंगे, यह तो कोई बात नहीं हुई. यह दुनिया हमारे सबके रहने के काबिल बने, इसके लिए हुम सबको एकसाथ मिलकर काम करना होगा. लेकिन .... बहुत कठिन है, डगर पनघट की. सपने देखेंगे तो राह भी निकलेगी. सपनों को जिंदा बचाए रखना बहुत जरूरी है क्योंकि सबसे बुरा होता है सपनों का मर जाना.

Friday, February 6, 2009

बिहार का विकास किस रास्ते से ?

बिहार का वर्तमान सन्दर्भ क्या है ?
७५ से ८० % आबादी ग्रामीण। ग्रामीण जनता का जीवन यापन का मुख्या जरिया खेती और नॉन फार्म इन्फोर्मल क्रिया कलाप ।
तक़रीबन हर ग्रामीण परिवार का कम से कम एक सदस्य भारत वर्ष के विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों में औद्योगिक मजदूर , रिक्साचालक , सब्जी और फल बेचनेवाले , कुछ छोटे व्यापारी , कंप्युटर रीपैर करने वाला, दिल्ली के ऐ टी एम् के सामने बैठा गार्ड , बड़े शहरों के गेट वाली कोलनियों का चौकीदार । सरकारी नौकरियों में स्टाफ सेलेक्शन कमीशन , रेलवे भरती बोर्ड और बैंक भरती बोर्ड से प्राप्त की जाने वाली नौकरियों में बिहारी युवा एन केन प्रकारेण पुरे भारत वर्ष में १० -१५ वर्षों में छा गए हैं.इन प्रवासी बिहारियों और उनकी दशा पर कभी अलग से दृष्टि पात किया जायेगा ।
बिहार छोटे किसानों , छोटी जोत वाले , जिनकी कुल जोत अलग अलग टुकडों में गाँव के चारों ओर बिखरी हुई है। गाँव की पारंपरिक सामुदायिक ( गैर-मजरुआ जमीन और नदी तालाब जैसे अन्य) संसाधन जिन पर हिंसक दबंगों और दलालों का कब्जा .अगर मध्य बिहार ( मगध ) की बात करें तो गाँव की भौगोलिक स्थिति - खेत, जोत , आहार , पयीअन, अलंग ,गाँव से बाहर निकलने का रास्ते आदि tamaam बदहाली के waabjood आज भी अपनी मध्य युगीन स्थिति में है। टेढे मेढे अलंग और उसके किनारे के आहर, पयीअन जिसमें फल्गु और बारिस के पानी से सिंचाई होती है ,जिसका कभी जमींदारी व्यवस्था के तहत गुआम और यदा कदा गोहार से सामुदायिक श्रम और भागी दारी से निर्माण और रख रखाब होता था .आज बदहाली और बर्बादी का कारण बन गया है। क्योंकि पिछले छः दशकों में जिसक मन किया पुरी श्रधा से अपनी जोत में कब्जा कर बरबाद कर दिया । और बिहार की भ्रष्ट जातिवादी सरकारों और व्यवस्था को इन बारीक चीजों से और बेहतर प्राथमिकताएं थी।
फिलहाल बिहार की भौगोलिक सीमा और उसके भीतर रहने वाले बिहारियों और उनकी दुनियावी स्थिति की ही बात की जाय । बिहार के आर्थिक विकास की निहायत जरूरी ढेर सारी शर्तें , आर्थिक विकास शास्त्रीय कितावों के आधार पर , गिनाये जा सकती हैं। पर एक जरूरी शर्त है वहाँ के ग्रामीण क्षेत्रों और खेती का विकास ।
हर गाँव के लिए हर मौसम laayak सड़क । पर सड़क कहाँ और कैसे? क्या खेती और सिचाई के लिए निर्मित पारंपरिक तटबंध ( अलंग ) पर नए रोड बनाए जा सकते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी जमीं नहीं बची है। एक- एक इंच जमीन पर पिछले हजारों सालों से खेती हो रही है।
सड़क , स्कूल , सामुदायिक भवन , अस्पताल आदि के लिए जमीन का इन्तेजाम सरकार ही कर सकती है। किसानों को जमीन दान करने की अपनी सीमा है। बिना ठोस नीति और प्रयास के इन सारी जरूरतों के लिए लैंड मिलना मुश्किल है . जाहिर है की सही समझ पर आधारित ठोस नीति , दृढ़ राजनैतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति ग्रामीण क्षेत्र में आधारभूत संरचना के लिए जरूरी है।
प्रदेश की छोटी जोत और वो भी टुकडों में विभक्त और बिखरी खेती के विकास और आधुनिकरण की पूर्व शर्त है चक बंदी । छोटी जोत और खेतों को इक्कठा करना ।
अगर ये बातें सही है और सोच की दिशा वाजिब तो अगला prashn है की क्या ये मुद्दे बिहार के चालु निजाम -ऐ- हुकूमत के जेहन और एजेंडा में शामिल है ?
आप भी अगर ऐसा mahsus करते हैं तो likhiyegaa ?

बिहार में परिवर्तन

( मित्र वीरू ने ये उदगार पहले पोस्ट पर दिया है। संवाद को आगे बढाते हुए इसे यहाँ पेश किया जा रहा है । पढ़ें और इस संवाद की प्रकिर्या को आगे करें )

सवाल निहायत ही वाजिब है। क्या बिहार बदलेगा?
अथवा क्या बिहार नहीं बदलेगा ?
बिहार के बारे में चीजें वैसे भी अतिशयोक्ति परक तरीके से बताईं जाती हैं और सुनी जाती हैं । मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अधिकाँश बिहारी, जिसमें मैं भी शामिल हूँ, ख़ुद भी चाहते हैं कि उनके जीवन से इस अलंकार को बिल्कुल ही गायब नहीं कर दिया जाए. बिहार के बारे में जो बात मोटेतौर पर बिहारी भी स्वीकार करेंगे कि - वह एक ठहरा हुआ अथवा ऋणात्मक रूप से गतिशील समाज और राज्य व्यवस्था है.
आप बिहार में उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम, कहीं भी घूम आइये बिहार एक जैसा ही दिखेगा. ऐसी हेठी बिहार के अलावा आप किसी दूसरे प्रदेश में नहीं पाएंगे. सड़क विहीन, बिजली विहीन, पेयजल विहीन, बाज़ार विहीन, स्कूल-कॉलेज विहीन, अस्पताल विहीन फिर भी तने हुए और ऐंठे हुए ।
बिहार कहाँ से बदलेगा, वह राह इस बौद्धिक जुगाली के बाहर जाकर मिलती है। जो समाजों के इतिहास के बारे में जानते-समझते हैं, वे जरूर मानेंगे कि बिहार का समाज किसी आदिम समाज का जीवित रूप नहीं है। उसके पास आर्थिक, सांस्कतिक और सभ्यतामूलक विकास का गौरवपूर्ण इतिहास है। गंगा और सहायक नदियों द्वारा बनाई गयी दुनिया के पैमाने पर मुकाबला करने वाली ऊर्वरा भूमि है, गरीब लेकिन कर्मठ किसान ,मजदूर और मेहनतकस अवाम है। पूरे के पूरे हजारों की तादात में दुनिया भर में बिहारी गाँव/मोहल्ला बसे हुए हैं. वे शिक्षित हैं, हूनर वाले हैं, वे भी बिहारी समाज के विकास में सहयात्री हो सकते है. लेकिन पेंच यहीं पर है .
बिहार के बदलाव में सबकी भागीदारी कैसे बने ? इस बदलाव के अगुआ कौन कौन लोग हो रहे हैं ?
इन सवालों और पेंच के अलग - अलग लहरों ( घुमाव ) पर चर्चा आगे होगी ।
वीरेंदर

Wednesday, February 4, 2009

बिहार की दिशा और दसा परिवर्तन - भारत का नेतृतव कर्ता ?

( एक पत्रकार मित्र ने यह लेख भेजा है .किसी कारण वश गुमनाम रहना चाहते है। पटना का गाँधी मैदान बिहार और पटना के जनजीवन का आइना है और यह मैदान सब के लिए खुला है। राजनैतिक रैलियाँ , सरकारी और सतरंगी विपक्ष से लेकर मेलों, धार्मिक प्रवचनों , योग गुरुओं और तरह तरह की सेहत और यौन वर्धक दवा बेचनेवालों , आल्हा -उदल के गीत गाने वालों से लेकर निठल्लों तक सब को गाँधी मैदान सुविधा ,आश्रय और श्रोता मुहैया करता है.उसी भवन के तहत यह लेख पोस्ट किया जा रहा है.आप की टिप्पणियों का स्वागत है।)

बिहार की बदहाली की शुरुआत और राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी पहचान सातवें दशक से बनने लगी थी। यूं तो १९६६-६७ में केंद्रीय बिहार में बाढ़ और सुखाड़ से बनी दुर्भिक्ष की स्थिति ने भी देश का ध्यान बिहार की ओर खिंचा था .उस दौर में पुरे देश की स्थिति और बिहार की स्थिति में ज्यादा फासला नहीं था। असली गिरावट की शुरुआत और सपनों का अंत ७४-७५ तक आते आते दिखना शुरू हो गया था । भोजपुर का किसान आन्दोलन और लोक नायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में १९७४ का बिहार आन्दोलन , बिहारी समाज के बदलाव की चाहत का प्रकटीकरण था । १९७७ में सत्ता परिवर्तन और तीन साला प्रयोग कोई स्थाई परिवर्तन नहीं ला पाया। हाँ एक उम्मीद जरूर जगा गया । वर्ग , जाती और सामुदायिक स्तर पर ।
१९८० के राजनैतिक शक्ति उन्हीं लोगों के हाथ वापस आ गयी जिनके विरूद्ध ७० के दसक की राजनैंतिक लड़ाई। राजनीति की विडम्बना यह की ७० के दशक के प्रमुख राजनैतिक खलनायक अभी हाल तक बिहार के सत्ता पक्ष से जुड़े थे।१९८० के बाद ही बिहार मरणासन्न स्थिति में आ गया था । १९८० से ९० तक उन्हीं सामजिक और राजनैतिक शक्तियों का वर्चस्व बिहार में बना रहा। जातिवाद और सरकारी खजाने को लूटने का खुला खेल चलता रहा । संसदीय राजनीति चंद जातियों के अलग अलग खेमों की चेरी बन कर रह गई। बिहार के सारे कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक चंद जातियों के । पटना के ललित नारायण मिश्रा संस्थान के सारे पद एक ही जाति के लिए । निर्लज्जता और मनमानी के सैंकडों उदहारण गिनाये जा सकते हैं।
बदहाली से उबी जनता ९०-९१ में एक नए राजनैतिक नेतृत्व को हुकूमत की बागडोर सौंपती है। लेकिन अगले पन्द्रह साल में जनता फिर ठगी जाती है। वो तमाम चीजें जो पहले हो रही थी वो और बड़े पैमाने पर और कुरूपता , निर्लज्जता के साथ जारी रहती है। बदहाल बिहारी जनता , खास कर युवा पीढी , रोजी रोटी और शिक्षा की खोज में पुरे भारत वर्ष में फ़ैल जाते हैं। अपनी मेहनत और प्रतिभा के बदौलत नयी जगह में अपनी ठौर ढूंढते हैं.राष्ट्रीय विमर्श में और मीडिया में बिहार की छवि नकारात्मक और उपहास की हो जाति है।फलस्वरूप बिहारी हर जगह पूर्वाग्रह और उपहास का शिकार बनते हैं। यही नहीं पागलों के जिस गिरोह का मन किया , बिहारियों का कत्लेआम कर देश को अपना घिनोंना संदेश देता रहा.
१९७० से लेकर २००० तक देश के बहुत सारे राज्य तेजी से तरक्की करतें हैं। बिहार , गरीबी और भ्रष्ट्राचार का रूपक बन जाता है।
बिहार के विकास का प्रश्न विद्वत जनों के लिए यक्ष प्रश्न बन कर खडा हो जाता है।
लेकिन पिछले तीन सालों से बिहार से बुरी खबरें कम में आ रहीं हैं। जानकार लोग कहते हैं की बिहार में न्याय के साथ विकास की इमानदार पहल राज्य के मुख्यमंत्री कर रहें हैं। हलाँकि सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार हाल में चर्चा के दायरे में है।
अगर बिहार का वर्त्तमान राजनैतिक नेत्रित्व राज्य का अगले सात आठ साल में काया पलट कर देता है तो , राजनीति गठबंधन और मोर्चे की सरकारों के इस दौर में क्या भारत का नेतृत्व करने का हकदार ,राजनैतिक और नैतिक रूप से बन जायेगा ?
सोचने में क्या बुराई है ?

Tuesday, February 3, 2009

क्यो भयभीत है हम ? भाग -1

( भय देश और काल सापेक्ष है। अगर व्यक्ति के स्तर पर कहा जाय तो जीवन यात्रा के अलग अलग पडावों पर भय की तीव्रता और कारण अलग अलग होते हैं । कुछ बातें तो मानव मात्र पर लागू होती है पर कुछ बातें व्यक्ति विशेष की खास पहचान या कमजोरी बन जाती है।" भय और कल्पना का अभाव " विषय पर एक निजी पत्र व्यहार में प्रिय मित्र वीरू ने अपने उदगार इस वायदे के साथ व्यक्त किये हैं की विचार की यह सरणी वे जारी रखेंगें। प्रस्तुत हैं उनके विचार )

शास्त्रों में बयान किया गया है की भय से मुक्ति की साधना ही मनुष्य को मोक्ष का अधिकारी बनाती है. हम सभी किसीं न किसी भय से ग्रस्त रहते हैं. हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने तरीके से इस भय के बारे में जानने और उसे दूर करने की कोशिश में लगा रहता है. कभी हम अपने संकोच को, कभी अपने परवरिश को तो कभी असफलता से पैदा हुए आत्मविश्वास की कमी को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं. लेकिन, अक्सर हम किसी एक कारण पर टिक नहीं पाते. हम जिसे असफलता कहते हैं, वह वास्तव में हमारी ख़ुद की गढ़ी हुयी परिभाषा की परछाईं होती है. सफलता के मानदंड ही तय करते हैं कि हमारे लिए असफलता क्या होगी. दूर क्यों जायें, अपने ही समाज से एक उदहारण ले लेते हैं. एक ब्रह्मण के लिए अशिक्षित रह जाना असफलता है, जबकि एक दलित के लिए स्वाभाविक. एक ही चीज किसी के लिए अनुकरणीय मान लिया जाता है तो किसी के लिए वर्जनीय. दुनिया के दूसरे समाजों में भी ऐसी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है. जिस तरह दुनिया कि हर चीज का एक इतिहास होता है, उसी तरह हमारे मनोभावों का भी एक इतिहास होता है. दासयुग अथवा सामंतीयुग में सफलता और असफलता के जो मानदंड थे, वे लोकतंत्र में नहीं होंगे. समाज में जब धर्मं की सत्ता होती है तो मुक्ति मोक्ष के अलावा कुछ और नहीं होती. धर्मराज्य में जिसे मोक्ष कहा गया है, वही पूंजीवाद में आज़ादी और समाजवाद में मुक्ति के नाम से जाना जाता है.

भय के अलग-अलग रूप जीवन की अलग-अलग अवस्थावों में अलग-अलग तरीके से हमारे सामने प्रकट होते हैं. बचपन में हम जिन चीजों से डरते हैं, वे जवानी के दिनों में बचकाना लगने लगते है. जैसे जैसे हम जवान होते जाते हैं, वैसे वैसे हमारी दुश्चिंताओं में बेरोजगारी, पद और प्रतिष्ठा की हानि, अपने और परिवार की सुरक्षा की चिंता, स्वस्थ्य और प्रगति की कामना, सामनेवाले की प्रगति से कोफ्त वगैरह वगैरह चीजें जुड़ती जाती हैं.

लेकिन क्या कोई व्यक्ति इनसे परे जा सकता है? आमतौर पर सच यही होगा कि मोह और माया से बिंधी दुनिया में मनुष्य के लिए इससे परे जाना सम्भव नहीं है? मैं नहीं मानता कि भय, संकोच और आत्मविश्वास की कमी के बारे में जिज्ञाषा सिर्फ़ आध्यात्मिक उत्तर की मांग करती है. मेरा दृढ़ विस्वास है कि भय, संकोच, चिंता की जड़ें समाज की संरचना में छुपी होती है. अलग-अलग पांतों में सजे समाज में प्रत्येक व्यक्ति के लिए पद, प्रतिष्ठा और सफलता के मायने एक जैसे नहीं होते और न ही मने जाते हैं. सबके लिए अलग-अलग आचार-संहिता होती है. किसी के लिए औरों की सेवा करना ही धर्म है तो किसी के लिए शाषण करना. दरअसल समाज खंडित मनुष्यों का जमावडा होता है, पूर्ण मनुष्य समाज के सांचे में ढल ही नहीं सकता. यह अकारण नहीं है कि सिद्धि कि चाहत में भटकनेवाले लोग समाज का ही त्याग कर देते हैं. समाज की बनावट में, उसके रीती-रिवाजों में और उसके व्यक्त-अव्यक्त सरोकारों में सदैव संगति नहीं होती. ज़्यादा सच तो यह है कि असंगति ही उसकी नियति है. मज़े की बात तो यह है कि कोई भी समाज इस विसंगति को औपचारिक तौर पर कभी स्वीकार नहीं करता. और इसीलिए हर व्यक्ति अपने-अपने तरीके से इस विसंगति को समझने की और उसी में येन-केन-प्रकारेण संगति ढूढने की कोशिश करते रहता है. और जब हम संगति नहीं ढूंढ पाते तो ज़िन्दगी को एक पहेली मानकर संतुष्ट हो लेते हैं. क्या यह अजीब नहीं है कि हम जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं, हमारी जिंदगी ऐसी visangatiyon में और ज़्यादा ulajhati जाती है. हमारा मन स्वीकार नहीं कर पाता कि जो हमसे पद, प्रतिष्ठा और ताकत में आगे है, वे हमसे किसी भी मायने में बेहतर हैं. हमें लगता है कि हमारे साथ अन्याय हो रहा है. हमारी चिंता के मूल में इसी अन्याय का प्रतिकार न कर पाने की मजबूरी होती है. जी, बिल्कुल सही फ़रमाया आपने कि मैं भी इसी मजबूरी का shikar हूँ.

पुर्ण मनुष्य कुछ होने से पहले भी मनुष्य ही रहता है और कुछ बन जाने के बाद भी मनुष्य ही रहता है. किसी इतर सन्दर्भ में कहे गए ग़ालिब का एक शेर यहाँ बरबस याद आ रहा है:'कुछ न था तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता, मुझको डुबोया होने ने, मैं न होता तो क्या होता.' आत्मनकार की इस बानगी में चाहे तो कोई पराजित मन की पीड़ा के दर्शन कर सकता है. लेकिन ख़ुद को इस तरह भूला पाने की निर्ममता बिरले लोगों में ही होती है. यही बात हिंदू भक्तों की विनयप्रवन समर्पण की चाहत में भी दिखायी पड़ती है. अपने प्रति निर्मम होना कोई आसान काम नहीं है. अपने प्रति निर्मम होने का मतलब अपने विचारों के प्रति, अपने ख्यालों के प्रति, अपने विश्वासों के प्रति, अपनी रुचियों के प्रति, अपनी अरुचियों के प्रति और सबसे बढ़कर अपने सरोकारों के प्रति भी निर्मम होना होता है. यह निर्ममता मनुष्य को अलग-अलग परिस्थितियों में भी समरस बनाये रखने में सहायक होता है. मार्क्सवादी के लिए भी सत्य सिर्फ़ वही नहीं होता जो दीखता है, अपिटी वह भी सत्य होता है जो अभी अस्तित्व में नहीं है. मार्क्स का द्वंद्ववाद यही तो है.

विचार-सरणी अभी जारी है। इंतज़ार ही मुकाम तक ले जाएगा। अभी इतना ही.
वीरेंदर