Saturday, March 28, 2009

बिहार विमर्श -५ : अथः स्कूल कथा

वीरेन्द्र की अथः स्कूल कथा

अथ स्कूल कथा 

( मित्र कौशल के आग्रह पर मैं यहाँ अपने उन अनुभवों को सूत्रबद्ध करने की कोशिश कर रहा हूँ जिनसे होकर एक विद्यार्थी के रूप में मैं बिहार के अपने छोटे-से गाँव की पाठशाला से निकलकर पहले दिल्ली विश्वविद्यालय और बाद में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय पहुंचा था. कह दूं कि यह सफ़र जितना लम्बा है, मेरी स्मृति उतनी ही कमज़ोर. ऊपर से यह धर्मसंकट अलग कि क्या याद करुँ, क्या भूलूँ. आप निःसंकोच हमारे साथ एक सहयात्री की तरह इस सफ़र में शामिल हो सकते हैं. मैं कोशिश करूँगा कि इस सफ़र के खास लम्हों से आपको रू-ब-रू करता हुआ चलूँ. )


तो आइये, सबसे अहले मैं आपको अपने गाँव के प्राईमरी स्कूल ले चलूँ.

गाँव के पूरब में अवस्थित इस स्कूल की स्थापना सन् १९३७ में की गयी थी. छठे दशक के पूर्वार्द्ध तक इस स्कूल में एक ही कमरा हुआ करता था जिसमें पॉँच-पॉँच कक्षाएं चलती थीं. नियुक्ति तो तीन शिक्षकों की थी, किन्तु उनमें से नियमित रूप से एक ही शिक्षक आते थे. यह जो आपके सामने बिना छत की अधगिरी दीवारें खड़ी हैं, कल वहां एक कमरा हुआ करता था जिनमें मास्टर साहब लोग कभी-कभी गाँव के लोगों के साथ मिलकर बीडी पीते या बतियाते थे. प्राईमरी स्कूल में मैं क्या पढ़ता था और क्या पढाया जाता था, मुझे अब कुछ भी याद नहीं है. हाँ, इतना ज़रूर याद है कि मैं तबतक हिंदी पढ़ना-लिखना और गणित का जोड़-घटाव-गुना-भाग करना सीख गया था. अलबत्ता, अंग्रेजी अबतक गधे की सिंग की तरह मेरे जीवन से गायब थी. जैसा कि मैं पहले बता चूका हूँ, इस स्कूल में नियमित रूप से एक ही शिक्षक उपलब्ध रहते थे और वही हमें सभी विषय पढाते थे. नाम था छतरबलि. उनका गाँव भी हमारे गाँव के जेवार का हिस्सा था. वे जाति के भूमिहार थे, समृद्ध थे और मेरे गाँव के समृद्ध परिवारों से उनकी भवधी चलती थी. स्कूल के अन्दर भी उनका व्यवहार भवधी के हिसाब से ही चलता था. पुरावारी पट्टी के बच्चे उनके विशेष कृपापात्र होते थे क्योंकि इन्हीं परिवारों की ओर से उनके मध्यान्ह भोजन का बंदोबस्त किया जाता था. मैं बता दूं कि मेरे गाँव में राजपूतों की पांच पट्टियाँ हैं जिनमें धनबल के हिसाब से पुरावारी पट्टी सबसे आगे था. मैं बिचली पट्टी का था और इस पट्टी में मास्टर छतरबलि का कोई मुरीद नहीं था. चूंकि मेरे बड़े भाई ने स्कूल जाकर वार्षिक चौक-चंदा की मनाही कर दी थी, इसलिए मैं माट्साब की आँखों की किरकिरी बन गया था. वे गाहे-बगाहे मेरे खिलाफ कोई न कोई मुद्दा तलाशते रहते थे. अब मुझे लगता है कि अगर मैं अन्य विद्यार्थियों से पढाई में बहुत अच्छा न होता तो इस स्कूल में मेरा टिके रहना संभव न हो पता. फिर भी, उन्होनें मेरा नाम दूसरी कक्षा में ही कट गया था क्योंकि मेरे घर से उन्हें चौक-चंदा की राशिः नहीं मिली थी. मैं परीक्षाएं देता रहा किन्तु परीक्षाफल में मेरा नाम हमेशा नदारद रहा. मेरी स्थिति रामजी, मुन्नीलाल और चान्ददेव से सिर्फ एक मायने में बेहतर थी कि उनकी तरह मुझे मास्टर साहब का पैर नहीं दबाना पड़ता था. बिल्कुल सही समझा आपने, रामजी जाति का लोहार था, मुन्नीलाल दलित और चान्ददेव कुर्मी था. अव्वल तो वे पढ़ने में रामभरोसे थे और दूसरे उनके घर चौक-चंदा की टोली भी नहीं पहुंचती थी.  

 
यह सब देखकर मेरा मासूम मन हमेशा बेचैन रहता था, किन्तु करुँ तो क्या करुँ? मैंने पिताजी से शिकायत की कि परीक्षा में अव्वल आने के बाद भी मेरा रिजल्ट नहीं निकला और नथुनी ठाकुर के बेटे सुरेश को प्रथम घोषित कर दिया गया. पिताजी आग-बबूले ही गए और नेताजी (शहीद वीरबहादुर सिंह जिन्हें गाँव के ज़मींदारों ने ही १९७१ में हत्या कर दी थी) के पास फरियाद करने पहुँच गए. नेताजी ने स्कूल इंस्पेक्टर से शिकायत की और वे एक दिन स्कूल आ पहुंचे. गाँव के लोग भी उपस्थित थे. मैं तब चौथी कक्षा में था. गाँव के लोगों में पुरवारी पट्टी के लोग भी थे जो माट्साब के हिमायती थे. नेताजी ने मुझसे कहा कि मैं अपनी बात खुद कहूं. मैंने हु-ब-हू सबकुछ बता दिया. वह दिन आज भी मेरी आँखों में बसा हुआ है. मैंने अपने जीवन का पहला भाषण उसी दिन दिया था. पुरवारी पट्टी के लोगों के अलावा सबने ताली बजाकर मेरा प्रोत्साहन किया और मास्टर छतरबलि के खिलाफ कार्रवाई हो गई. उनका तबादला कहीं और कर दिया गया. मैं आज भी अपने इस कृत्या पर गौरान्वित महसूस करता हू क्योंकि उस दिन के बाद स्कूल में छात्रों से पैर दबवाने और चौक-चंदा की परंपरा का अंत हो गया.
 
चूंकि इस स्कूल में सिर्फ पांचवीं कक्षा तक ही पढाई होती थी, इसलिए मैं भी १९७३ में इस स्कूल से फारिग होकर सन्देश के मिडिल स्कूल में आ गया. मिडिल स्कूल सन्देश में था और तब सन्देश धीरे-धीरे एक चट्टी के रूप में तब्दील हो रहा था. सप्ताह में दो बार साप्ताहिक हाट तो लगते ही थे, चाय-पानी की स्थाई दुकानें भी खुल गयीं थीं जिसमें अगल-बगल के गाँवों के लोग अक्सर आते-जाते चाय-नाश्ता के लिए रुकते थे. इसके अलावे, यहाँ कपड़े, बर्तन और गहने की दुकाने भी थीं जो शादियों के मौसम में विशेष रूप से गुलज़ार हो जाया जरती थीं. सन्देश का थाना बिहार के पुराने थानों में से एक था जिसके बाजू में ब्लाक डेवलपमेंट ऑफिस भी खडा हो गया था. गाँव की पाठशाला से निकलकर सन्देश आना हम सभी बच्चों के लिए एक रोमांचकारी अनुभव सिद्ध हुआ. 

सन्देश के मिडिल स्कूल के चारों तरफ चहारदीवारी थी जो कई-कई ज़गहों पर टूटी हुयी थी. हम इनका इस्तेमाल पलायन-मार्ग के रूप में करते थे. वैसे, अगर चहारदीवारी टूटी न भी होती तो भी हमें कोई विशेष असुविधा न होती. अव्वल तो कोई भी टीचर दोपहर बाद स्कूल में रहता नहीं था और अगर कोई भूला-भटका रह भी गया तो उनकी दिलचस्पी जम्हाई लेने में ज्यादा और पढाने में कम होती थी. दोपहर के बाद हमारा मिडिल स्कूल वीरान हो जाता और स्कूल के पीछे का मैदान बच्चों के शोर से गुलज़ार. मुझे बहुत दिनों तक लगता रहा कि मिडिल स्कूल की पढाई आधे दिन की ही होती है. खैर, हम बच्चों को इस अधदिनिं स्कूल पर फक्र था क्योंकि हमें खेलने की पूरी आज़ादी मिल जाती थी. रामलीला मास्टर साहब बगल के गाँव के थे और उनका दबदबा पूरे स्कूल पर तारी था. मजाल कि हेडमास्टर भी चूं कर सके. वे साल भर बच्चों के लिए कुछ करें या न करें, वार्षिक परीक्षा के समय वे अतिरिक्त सतर्क हो जाते थे और चाहते थे कि उनके स्कूल के बच्चे किसी से पीछे न रहे. सो, बिन मांगे ही हम बच्चों की मुराद पूरी हो जाती और सबको परीक्षा भवन के अन्दर किताबें लाने और नक़ल करने की छूट मिल जाती. इस तरह हम विधाता की की मर्ज़ी से मिडिल स्कूल भी पास कर गए. 

मैं अक्सर सोचता कि जब मिडिल स्कूल की पढाई भी इतनी आसान और सस्ती थी, तो मेरे प्राईमरी स्कूल के कुछ साथी मिडिल स्कूल तक आने से क्यों कतरा गए? जातियों के आधार पर अगर आज मैं अपने बिछुडे साथियों का हिसाब लागौऊँ तो स्पष्ट हो जायेगा की उनमें से अधिकाँश दलित जातियों के बच्चे थे जिनके लिए पढाई का वह महत्व नहीं था जो अन्य बड़ी जाति के बच्चों के लिए था. शैक्षणिक परंपरा से लैश समुदाय के लिए शिक्षा की परंपरा का निर्वहन करना आसान तो होता ही है, ज़रूरी भी होता है. पंडित का बेटा अनपढ़ रह जाये तो बिरादरी के लिए कलंक है जबकि दलित का छोरा पढ़ ले तो दूसरों की आँख की किरकिरी बन जाये. खैर......  
मुझे सन्देश के हाई स्कूल में पढ़ने का मौका नहीं मिला क्योंकि मैं मिडिल स्कूल में पढ़ते हुए राष्ट्रीय ग्रामीण छात्रवृति की परीक्षा उतीर्ण कर जिले के तीन चयनित स्कूलों में से किसी एक में दाखिला लेने का हक़दार हो गया था. चूंकि आगे की पढाई फोकटिया यानी छात्रवृति के पैसे से संभव थी, इसलिए बिना उंच-नीच सोचे मेरे घरवालों ने भी मुझे आरा शहर के जैन स्कूल में दाखिला दिला दिया. इस तरह १४-१५ बरस की उम्र में मुझे शहर देखने का पहला मौका मिला. पहली बार जाना कि रेलगाडी कैसी होती है, कि उसमें से कैसे फक-फक धूंआँ निकलता है. पक्की सड़क भी मैंने पहली बार आरा में ही देखी थी. आरा आने से पहले मेरे मन में शहर के बारे में कई-कई छवियाँ बसी हुई थीं. मसलन, मैं मानता था कि शहर के लोग सिर्फ हिंदी बोलते हैं, धोती-कुर्ता के बजाय पैंट-शर्ट पहनते हैं और औरतें भी किसी मर्द के सामने घूंघट नहीं डालतीं. इसीलिए मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था जब मैंने देखा कि आरा शहर में भी लोग वही भोजपुरी बोल रहे हैं जो गाँव के लोग बोलते हैं. और तो और, यहाँ भी लोग धोती-कुर्ता पहने पहलवानी अंदाज़ में इधर से उधर डोल रहे हैं. मन में बसे शहर की छवि पर यह पहला तुषारापात था. लेकिन शहर का स्कूल, क्या कहने!

 
हरप्रसाद दास जैन स्कूल, आरा में नामांकन क्या हुआ, मेरी तो ज़िन्दगी ही बदल गयी. पहली दफा लगा कि स्कूल खेलने की ज़गह न होकर पढ़ने की ज़गह होती है. समय पर स्कूल खुलता था, समय पर शिक्षक कक्षा में आते थे और परीक्षा से पहले अनिवार्य रूप से पाठ्यक्रम पूरे कर लिए जाते थे. यही कारण था कि इस स्कूल में प्रथम श्रेणी कोई खास बात नहीं मानी जाती थी. प्रथम श्रेणी तो तकरीबन सभी छात्रों को मिल जाती थी, इसीलिए नाम सिर्फ उसका होता था जो अपनी कक्षा में प्रथम, द्वितीय अथवा तृतीय स्थान प्राप्त करता था. पढाई की गुणवत्ता ऐसी कि निजी ट्यूशन की ज़रुरत ही नहीं पड़ती थी. मैं आज भी मानता हूँ कि जिस स्कूल के शिक्षकों की याद हमारे मन में स्कूल छोड़ने के बाद भी शेष रह जाती, वह स्कूल अच्छा होता है. अजित सिंह, रामजी बाबु, आकारान्ताजी, रमाकान्तजी, मधुकरजी जैसे शिक्षकों के नाम क्या मैं आज भी भूल पाया हूँ? मेरा एक-एक रोम उनका आज भी ऋणी है. 
 

आज जब पलटकर देखता हूँ तो लगता है कि ऐसे स्कूल ही बिहार के लिए आदर्श स्कूल हो सकते हैं. यानी, सस्ता, सुन्दर और टिकाऊ. हाँ, एक चीज़ की कमी अवश्य खटकती थी. स्कूल के पास कोई अपना खेल मैदान नहीं था, न ही स्कूल प्रशासन उसकी कोई ज़रुरत ही समझता था. नतीज़तन, खेल-कूद में इस स्कूल के छात्र फिसड्डी साबित होते थे. अनुशासन के नाम पर बरती जानेवाली सख्ती कभी-कभी बर्दाश्त से बाहर हो जाती थी. कुछ शिक्षक तो निर्दयता और सख्ती के बीच अंतर ही नहीं जानते थे. इन सबके बावजूद, यह स्कूल इतना अच्छा होते भी सबकी पहुँच में था. जो फीस सरकारी स्कूलों में लगती थी, वही फीस यहाँ भी लगती थी. लेकिन शिक्षा की क्वालिटी में ज़मीन आसमान का अंतर. चूंकि हम छात्रवृति प्राप्त छात्र थे, इसलिए छात्रवृति की शर्तों के अनुसार हमें हॉस्टल में रहना होता था. जी, अब मुझे भी मालूम है कि वह हॉस्टल पब्लिक स्कूलों के हॉस्टल की तुलना में हॉस्टल नहीं था. लेकिन, हमें उससे कोई शिकायत नहीं थी. हॉस्टल का घटिया खाना हम जिस उत्साह के साथ खाते थे, उसे देखकर कोई अज़नबी कह सकता था हमें सिर्फ भूख का स्वाद पता था, जीभ का नहीं. सच भी यही था, हॉस्टल में कितने बच्चे ऐसे परिवारों से आये थे जहाँ दो जून की रोटी भी आसानी से मयस्सर नहीं होती होगी. इसी परिवेश में रहते हुए एहसास हुआ था कि शिक्षा की डोर पकड़कर ही विकास के मार्ग पर अग्रसर हुआ जा सकता है; कि और कोई दूसरी राह नहीं है. 

 ( अब यहाँ थोडा विश्राम कर लिया जाये. आगे की कथा स्कूल से निकालकर कॉलेज और विश्वविद्यालय में कही जायेगी. आप हमारे साथ बने रहिये अगले इतवार तक)

 
वीरेन्द्र

Monday, March 23, 2009

बिहार विमर्श - 4 : दिल्ली के कॉलेज , यूनिवेर्सिटीयों में आना बिहारी छात्रों का

दिल्ली विश्वविदयालय में बिहारी छात्रों का आगमन 70 के उत्तरार्द्ध में शुरू हुआ . 1974 के बिहार आन्दोलन और बाद के घटनाक्रम ,छात्रों के पलायन की फौरी वजह बने .पर सातवें दशक की धीमी शुरुयात ,आठवें दशक के मध्य तक बबंडर का रूप ले लिया . और दिल्ली व जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्रवास इस भीड़ के लिए प्रयाप्त नहीं रह गए थे .

दिल्ली विश्वविद्यालय और जे एन यू के तत्कालीन अकादमिक माहौल की कम से कम तुलानातामक तौर पर जितनी भी तारीफ़ की जाय कम है. देश की राजधानी और उसके सिरमौर कॉलेज और विश्वविद्यालय . संसाधनों और योग्य शिक्षकों से भरे - पूरे. पढ़ाई - लिखाई का खर्च , पटना , भागलपुर अथवा मुजफरपुर से थोडा ज्यादा पर prohibitive नहीं. और अगर दिल्ली प्रवास का खर्च , हैसियत और औकात से फाजिल हुआ तो शहर सिखावे कोतवाली की तर्ज पर टीयुसन आदि से रहने और पढ़ने लायक जुगाड़ किया जा सकता था .

कॉलेज और विश्विद्यालय में आकर्षण के हजार विन्दु और बहाने.जिस ओर भी दिल करे बढ़ने और बिगड़ने के हज़ार रास्ते. पढ़ने का मन करे पढिये , उम्दा सरकारी नौकरियों की तैयारी करिए . राजनीति में शामिल हों या कैम्पस में बिखरी सुन्दरता को फटी निगाहों से दूर से निहारते हुए  अपने पर इमोशनल अत्याचार करते रहिये या फिर सुन्दरता को हथियाने का प्रयास कीजिये . सब कुछ संभव था और ये लड़के सब ओर लगे थे.

हाँ , बीच - बीच में बिहारी पहचान और इस पहचान के कारण 
तिरस्कार , उपहास और अपमान से भी जूझना पड़ता था 
दिल्ली के आधुनिक और तिलस्मी चकाचौंध के इस माहौल में अक्सरहां प्रतिक्रियावादी 
गुटों से निबटना भी पड़ता था .मार - पीट की नौबत बेवजह आ जाती थी .
 सारांश यह की व्यक्तिगत और सामुदायिक तौर पर बिहारी छात्रों को दिल्ली में बहु आयामी संघर्ष करते हुए आगे बढ़ना था.
दिल्ली में रहने , जीने और पढने के दरम्यान खास जद्दो - जहद से रु - ब्- रु होना पड़ रहा था . पर यह सब 
ख़ास मकसद और उम्मीद के साथ ये नौ जवान कर रहे थे .
परदेस में रहना भावनत्मक तौर पर सुखद कभी नहीं होता .अपने और पराये का भेद बना रहता है .अपने और पराये दोनों को टीसते हुए .यही हाल बिहारी छात्रों का था .

पर घर वापसी का विकल्प करीब करीब बंद था .क्योंकि बिहार के कॉलेज और विश्वविद्यालय अपने भयावह दौर से गुजर रहे थे . भ्रष्टाचार , हिंसा और शैक्षणिक कदाचार सर्वव्यापी होता जा रहा था .कॉलेज में जातीय गिरोहों का बोलबाला हो गया था . होस्टल्स जाति गत आधार पर मिलने और बंटने लगे . हॉस्टल मेस भी जातिगत आधार पर बाँट गए.यह गिरोहबंदी छात्रों से लेकर प्राध्यापकों तक सब जगह कायम हो गयी.

इस दरम्यान जनता पार्टी की सरकार ने 1978 - 79 में शिक्षा और राज्य सरकार की नौकरियों में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया . आरक्षण के सवाल ने तो पूरे माहौल को ऊपर से नीचे तक विषाक्त कर दो धडों में बाँट दिया .

याद करें यही वह दौर है जब खास विश्वविद्यालय और कॉलेज खास जातियों के कहे जाने लगे . शिक्षक और कर्मचारियों की ही नहीं बल्कि कुलपतियों की नियुक्ति की प्रथम कसौटी जाति बन गयी.छात्रों में आपसी मार - पीट ,गोली बारी से शुरू होकर हत्या और वाकायदा संगठित  अपराधी गिरोह बनने  और बनाने तक पंहुच गयी. परीक्षा कोई भी हो मेधा सूची में अव्वल विभाग अध्यक्ष का पुत्र, पुत्री या रिश्तेदार हीं होगा.मतलब यह की पढ़ने , पढाने सब में हिंसा और जातिवादी जहर साफ़ साफ़ दिखने लगा .1974 का बिहार आन्दोलन जिन चीजों के विरोध में था वे  प्रवृतियां ख़तम या कमजोर होने की वजाय 80 के दशक में तीक्ष्ण काउंटर अटैक लॉन्च कर दी .

 सवाल यह है कि 1975 से लेकर 1990 तक ,बिहार के कॉलेज और विश्विद्यालयों में  क्या - क्या हो रहा था ?

पैरवी , पैसे और जातिगत गिरोहबंदी द्वारा शिक्षा और मेधा की कैसी मूर्तियाँ और प्रतिमान गढे जा रहे थे ?

अगर सच - सच लिखा जाय तो आज से 25 -50 साल बाद की पीढी कहीं इन्हें अतिशयोक्ति न मान ले .

उन तत्कालीन परिस्थितियों कि बिहारी छात्रों के दिल्ली पलायन में कितनी मत्वपूर्ण भूमिका रही इसका समग्र - आर्थिक और सामजिक विश्लेषण तो दूर , उन परिस्थितियों को पूर्ण समग्रता में रिकॉर्ड भी नहीं किया गया है.

Friday, March 20, 2009

माँ का घर और माँ की स्मृति


माँ को गुजरे हुए डेढ़ दशक हो गया . एक दुर्घटना में माँ अचानक चल बसी . मार्च के महीने में माँ रोजाना याद आती है .
पिछले जून में घर से लौटते समय रास्ते में माँ के घर पर नजर पड़ी . घर का वर्तमान मन में कहूं तो यादों की बारात ले आया . साथ में कैमरा था .सोचा दूर से ही सही इसकी एक तस्वीर उतार लूं .
घर १९३४ में मेरे नाना ने बनबाया था . उस दौर में इलाके भर में इकलौता भव्य मकान . बैठक खाने की फर्श में संगमरमर का काम .उसके एक साल बाद माँ का जन्म हुआ .संयुक्त परिवार - दो भाईयों के बीच में नौ संताने , माँ आठवें नंबर पर .कुल चार भाई और पांच बहनें . कहते हैं की माँ के जन्म के बाद मेरे ननिहाल में धन और यश दोनों की भारी वृद्धि हुई .फतुहा , कलकत्ता से लेकर ढाका तक से व्यापार हुआ .ग्रामीण और कस्बाई समाज में शानो शौकत के सारे संसाधन जुटाए गए . १९४२ तक शहर में ठौर ठिकाना , घोड़ा ,बन्दूक , जमींदारी , बड़े संतान की B H U से वकालत की पढ़ाई . चार भाईयों में , वकील , किसान ,प्रोफ़ेसर और डॉक्टर बने .माँ से बड़ी तीन बहनों की शिक्षा पांचवी तक पाठ शाले पर और १९३८ तक उन सब की शादी . दो बहनें खगडिया के एक प्रगति शील समृद्ध परिवार men शादी . परिवार स्वतन्त्रता men भी शरीक रहा . यह परिवार राजनीति में बारास्ता विधायक ( पांच बार ) मंत्री पद तक पंहुचा .माँ से ठीक बड़ी बहन की शिक्षा सन चालीस से चौआलिस तक पटना के एकमात्र बालिका आवासीय विद्यालय में हुई.
सन पचास के बाद भी माँ के घर के वारिशों का रसूख बढ़ता रहा . दूसरी पीढी ने भी तरक्की की .डॉक्टर , प्रोफ़ेसर , व्यापार , बहुराष्ट्रीय कम्पनी सब ओर.
माँ इसी घर में पली और बढ़ी .लेकिन आज माँ के घर की हालत देखिये .
ऐसा नहीं है की इस घर को वारिसों ने बेंच दिया है .
मालिकान हक़ बरकरार है . आज भी धन धान्य से परिपूर्ण .अर्थ , शिक्षा ,राजनीति और सामजिक हैसियत .
पर यह पारिवारिक विरासत बदहाल क्यों ?
क्यों इसकी तस्वीर धुंधली लगती है ?
क्या समय के साथ माँ की पुण्य स्मृति भी उसके घर की तरह धुंधली पड़ जायगी ?
सच कहूं सोच कर डर लगता है.

Monday, March 16, 2009

बिहार विमर्श (२) - दिल्ली में बिहारी: घर के न घाट के

वीरेन्द्र - बिहार विमर्श की दूसरी किस्त . विमर्श में आपकी भागीदारी हमारे सत्य शोधक प्रयास बहु आयामी और कारगर बनाएगा .
( मित्र ,बिहार पर जारी विमर्श में दोबारा और उतावाली में कूदने का दोषी तो हूँ, लेकिन करुँ तो क्या करुँ? किसी और आहर-पोखर के भूगोल से उतना वाकिफ भी तो नहीं हूँ. अब चाहे जो हो, अग्नि-स्नान से बच तो नहीं सकता. तथास्तु. )

दिल्ली में बिहारी: घर के न घाट के

कहते हैं कि दिल्ली पर बिहारियों ने नए सिरे से आक्रमण कर दिया है. कभी शेरशाह ने दिल्ली पर अपना झंडा गाडा था और हिंदुस्तान का शहंशाह बन बैठा था. अलबत्ता, वह ज्यादा दिनों तक दिल्ली की गद्दी पर विराजमान न रह सका और एक दुर्घटना में उसका इंतकाल हो गया. वह पहला और अबतक का अकेला ऐसा बिहारी था जिसने दिल्ली पर अपनी साख जमाई थी. उसके बाद किसी भी बिहारी में इतनी सामर्थ्य नहीं हुयी कि वह दिल्ली पर अपना रॉब गाँठ सके.
किन्तु, भारत की आज़ादी एकबार फिर बिहारियों के लिए वरदान साबित हुयी है. जब से आज़ादी मिली है तब से हर बिहारी, चाहे वह गाँव में रहता हो या कस्बे में, एकबार दिल्ली की तरफ कदम बढा ही लेता है. गाँव-देहात के निपट अनाडी से लेकर पढ़े-लिखे तक, सब मुंह उठाये दिल्ली की तरफ कूच कर गए हैं. आज स्थिति क्या है? जहाँ देखो, वहीं बिहारी. सड़क पर चलने का शहूर नहीं, फिर भी माथे पर पूरा घर लादे ये बिहारी आज दिल्ली के गली-कुचों में धमाल मचाये हुए हैं. क्या सचमुच इसे आक्रमण कहा जा सकता है? दिल्ली के गली-कूचे में भरे पड़े बिहारियों के चेहरे पर हमें जिस दैन्य-भाव के दर्शन होते हैं, उन्हें देखकर तो नहीं कहा जा सकता कि ये आक्रमणकारी हैं. यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि आक्रान्ता के चेहरे पर दैन्य का भाव नहीं, अपितु उन्माद का भाव होता है. कोई उसकी खिल्ली नहीं उडाता. उल्टे, उससे हर आदमी भय खाता है और ताक में रहता है कि कोई मौका मिले और वह जान बचाकर रफूचक्कर हो जाये. क्या शेरशाह की खिल्ली उडाई गयी होंगी दिल्ली में?

ऐसे में यह पूछना गैरवाजिब नहीं होगा कि क्या क्या सचमुच दिल्ली बिहारियों से त्रस्त है? जो रसूखवाले हैं या जो यह समझते हैं कि शिष्टता उनकी पुश्तैनी चीज़ है, वे सचमुच बिहारियों के चाल-चलन से परेशान हैं. उनके जाने, ये बिहारी फूहड़, बदमिजाज़ और अव्वल दर्जे के बेवकूफ हैं. ये दुल्हन रुपी दिल्ली के दामन पर काले धब्बे हैं. इन्हें यहाँ से हटाये बगैर न तो दिल्ली को वर्ल्ड क्लास का शहर बनाया जा सकता है और न ही उसे लानत-मलामत से महफूज़ रखा जा सकता है. मैं पढ़ा-लिखा आदमी हूँ और जानता हूँ कि बिहारी शब्द गाली नहीं है, अपितु एक विशेषण है जो बिहार से बना है. यानी, बिहार का रहनेवाला बिहारी है, ठीक उसी प्रकार जैसे पंजाब का रहनेवाला पंजाबी.

लेकिन, एक बिहारी होने की वज़ह से जानता हूँ कि दिल्ली में बिहारी का मतलब क्या होता है. स्नातकोत्तर की पढाई दिल्ली में पूरी करने की हसरत लिए जब मैं पच्चीस साल पहले दिल्ली आया था तो सोचा था कि पढाई पूरी होते ही बिहार लौट जाऊंगा. पहली हसरत तो जैसे-तैसे पूरी हो गई किन्तु दूसरी हसरत अभी तक मृग-मरीचिका ही साबित हुई है. अब लौटूं भी तो किस बुतात पर? न घर में इतनी खेती-बारी है कि गाँव जाकर खेती कर लूं, न ही पुरुखों ने कोई ऐसा धंधा-पानी छोडा है कि जाकर उसे सम्हाल लूं. नतीजतन, मन मारकर दिल्ली में ही रोज़ी-रोटी कमाकर जीने के लिए विवश हूँ.

जिस दिल्ली ने कभी अपने आगोश में दुनिया भर के आक्रान्ताओं को पनाह दी थी वही दिल्ली आज बेबस-बेहाल बिहारियों के लिए इतनी तंगदिल हो गई है कि पनाह देने की बात तो दूर, सीधे मुहं बात करना भी गवारा नहीं करती. दिल्ली की समस्यायों पर जब भी कोई चर्चा होती है तो बिहारियों का नाम जरूर लिया जाता है. दिल्ली आज आबादी के भार से बेहाल है तो बिहारियों की वज़ह से, दिल्ली अगर आज शरीफों के लिए सुरक्षित नहीं रह गई है तो बिहारियों की वज़ह से और कल अगर दिल्ली किसी के काम की नहीं रह पाई तो भी बिहारी ही दोषी माने जायेंगे. मुंबईवाले 'एक बिहारी सौ बीमारी' का जूमला जड़ते हैं तो दिल्लीवाले सिर्फ बिहारी कहकर हर बिहारी के दिल को छलनी किये देते हैं. बेबस की बेबसी का ऐसा तिरस्कार करने के बाद भी जिस दिल्ली की आंखें नम नहीं होती, वह दिलवालों की दिल्ली नहीं हो सकती.

ज़रा सोचें. जो लोग बिहारियों पर आक्रमणकारी होने का तोहमत लगा रहे हैं, उन्हें यह अधिकार किसने दिया? क्या वे सचमुच समझ रहे हैं कि वे क्या कर रहे हैं. यह कैसा आधुनिक बोध है जिसमें मानवीय संवेदना के लिए कोई ज़गह नहीं है? बिहारियों की बेबसी पर अट्टहास करनेवाले ये छद्म आधुनिक वास्तव में नए रूप में ब्राह्मणी अवतार हैं. किसी की बेबसी और लाचारगी को नियत मान लेना प्रकारांतर से जाति-व्यवस्था के सिद्धांतों को नए तरीके से वैध ठहराने की कोशिश नहीं तो और क्या है? बिहारी टिड्डियों का झूंड नहीं होते कि उनके आगमन को आक्रमण मान लिया जाये. जिनकी आखें गन्दगी से परहेज़ करती हैं, उनके बाजुओं में इतनी ताक़त जरूर होनी चाहिए कि वे उस गन्दगी से निजात दिलाने में समर्थ हों. देश की राजधानी देश के किसी खास हिस्से की जनता से नफ़रत करेगी तो क्या देश सुरक्षित रह पायेगा? लेकिन पवित्रता के नामालूम-से ढेर पर बैठे शिष्ट जन को इससे क्या मतलब? उनका घर गन्दा न हो, इसलिए उन्हें सेवक चाहिए, लेकिन सेवक की ज़िन्दगी गन्दगी से सराबोर रहे तो भी उन्हें कोई गुरेज़ नहीं. बिहारी उनके घर के बर्तन धोये, कपडे साफ करे लेकिन रहे कहीं और.

भई, वाह! ऐसा नवाबी ज़ज्बा तो बहादुरशाह ज़फर भी नहीं रखते होंगे. अपनी अनुदारता और अकर्मण्यता को महिमामंडित करने का जैसा जटिल जतन कभी इस देश के ब्राहमणों ने किया था, कुछ-कुछ वैसा ही हमारे नए बाजारू समाज के शिष्ट लोग भी करते प्रतीत हो रहे हैं. भलेजन, आप नहीं जानते कि आपकी चमक के लिए कितने बेबसों को अपनी अस्थियों को भस्म करना पड़ा है. बिहारियों को टिड्डी कहकर आखिर आप किस मानसिकता का परिचय दे रहे हैं? हमने तो आपकी खिल्ली कभी नहीं उडाई, तब भी नहीं जब विदेशी आक्रान्ताओं के सामने आप खीसें निपोर रहे थे. क्या आपकी समृद्धि में, आपकी शिष्टता में, आपकी चमक-दमक में हमारा कोई योगदान नहीं रहा है? क्या आप स्वयम्भू हैं? क्या आपको किसी से कोई लेने-देना नहीं है? अगर आपका जवाब हाँ में है तो मुझे कुछ नहीं कहना. किन्तु, अगर आप मानते हैं कि अकेला चना भांड नहीं फोडता तो मेरी गुजारिश है कि आप अपने दिल की निर्दयता को संयमित करें और मानवीय ज़ज्बे को तवज्जो दें.

वीरेन्द्र

बिहार विमर्श (१) -- और रोने को क्या चाहिए ?

वीरेन्द्र का लेख बिहार पर .

और रोने को क्या चाहिए?

अगर आप बिहारी हैं; और बिहार से बाहर रहते हैं; और साल में दो-चार बार कुछ दिनों के लिए ही वहां जा पाते हैं तो मैं यकीन से कह सकता हूँ कि आपने भी बहुत कुछ ऐसा देखा सुना होगा जिसके आधार पर आप मौजूदा बिहार के समाज की सोच और उसके रुझान के बारे में कोई मत व्यक्त कर सकें. मित्र कौशल अपने ब्लॉग पर बिहार में तेजी से स्थापित हो रही एक खास तरह की वैचारिक सहमति को लेकर अपनी चिंता जता चुके हैं. चिंता इसलिए कि आज के बिहारी समाज में जो नई सहमति बनी है, उसे दुनिया का कोई देश, कोई समाज नैतिक, वैध और जायज़ नहीं समझता. यानी, बिहार नैतिकता के नए मानदंड गढ़ रहा है.अगर ऐसा है तो क्या यह चिंतनीय है? बिल्कुल है. मित्र कौशल की चिंता से मैं पूरी तरह सहमत हूँ. इस मुद्दे पर असहमति का सवाल, दरअसल में, मानवीय संवेदना के होने न होने का सवाल है.

बहुत जरूरी है कि बिहार नैतिक विपर्यय का अगुआ न बने. यह वहां की जनता के हक में नहीं होगा. इतिहास गवाह है (माफ करें, मैं यहाँ उनकी बात नहीं कर रहा जो मानते हैं कि इतिहास मर चूका है) कि कोई समाज उन्नत तभी होता है जब वहां के लोग अपने जीवन में, अपने व्यवहार में कायदा-कानून और उदात्त नैतिक मूल्य की अहमियत को समझते हैं. इस मुद्दे पर एक संजीदा विमर्श की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता. हम सब इस विमर्श में अपना अपना योगदान कर सकते हैं; बशर्ते हम इस मुद्दे पर बेहिचक कुछ कहने-सुनने के लिए तैयार हों. तो चलिए, मैं भी इस यज्ञ में अपने हिस्से की अमिधा की लकडी डाल ही देता हूँ.
मुझे अक्सर लगता है कि बिहार के अधिकाँश लोग मानते हैं कि आज इस मुल्क में बिना बैशाखी के कोई खडा नहीं है. समाज और व्यक्ति के जीवन में जो कुछ भी होता है, जुगाड़ से होता है. परीक्षा में अच्छे अंक चाहिए तो जुगाड़, अच्छी नौकरी चाहिए तो जुगाड़, अच्छी जगह पर तबादला चाहिए तो जुगाड़, नौकरी में प्रोन्नति चाहिए तो जुगाड़ और सब कुछ गलत करते हुए भी बाला बांका न हो तो जुगाड़. यानी, दुख लाख और दवा एक. जुगाड़ में कभी कभी बेगारी करनी पड़े तो भी गिला नहीं. पढाई-लिखाई फ़क़त दिखावे की चीज मानी जाती है, डिग्री सिर्फ गेट पास है. यह कहीं से भी हासिल की जा सकती है. बिहार के लोग आप पर बरबस हंस पड़ेंगे अगर उन्हें मालूम हो जाये कि आप दफ्तर में बाबु को घूस दिए बगैर काम कराने की बात करते है. लोग छूटते ही हाथ में गंगाजल लेकर किरिया खा लेंगे और कह देंगे कि कि आप इस लोक के वासी हैं ही नहीं. मैं बिहार के एक ऑफिसर को जानता हूँ जो एकबार ऐसी ही एक बात पर विहँसने लगे थे. खैर, हम यहाँ एक या दो व्यक्तियों की बात नहीं कर रहे हैं. बात पूरे अवाम की है. अगर यह मान भी लिया जाये कि नैतिकता के मानदंड सिर्फ बिहार में ही गड्ड-मड्ड नहीं हुए हैं, तो भी क्या इसी बिना पर हम इस सवाल को दरकिनार कर देंगे? नहीं, क्योंकि आँख बंद कर लेने से ही संकट काफूर नहीं हो जाता.

कुछ कहने के बजाय मैं अपना एक तल्ख़ अनुभव बयां करना चाहूँगा. तकरीबन पांच साल पहले की घटना है. मैं अपने गाँव गया था, बिना किसी खास प्रयोजन के. हर बार की तरह इसबार भी गाँव का मेरा रूटीन वही था. सुबह नाश्ता करने के बाद दोस्तों की टोली के साथ सन्देश बाज़ार पहुँच जाना. दुर्गा साव की चाय दूकान पर चाय पीना, गाँव-जवार के अन्य लोगों से हाल-अहवाल जानना, सोने नदी के किनारे घूम आना, आकर फिर चाय पीना और दोपहर के बोजन से पहले फिर गाँव लौट आना. दोपहर में भोजन करने के बाद किसी के दरवाज़े पर किसी भी उम्र के लोगों के साथ ताश खेलना और शाम होने से पहले फिर से सन्देश बाज़ार पहुँच जाना. शुरू में तो मुझे भी इस रूटीन में कुछ अटपटा नहीं लगा, किन्तु जब इस पर गंभीरता से सोचने लगा तो मन कसैला हो उठा. मुझे लगा कि घर और बाज़ार के बीच आते-जाते गाँव के लोगों की ज़िन्दगी छीजती जा रही है. सोचा, क्यों न गाँव के नौजवानों के साथ एक बैठक कर पता लगाने की कोशिश करुँ कि आखिर उनका दुख क्या है.

अगले दिन जब मैंने गाँव के युवकों के सामने अपनी ईच्छा का इज़हार किया तो वे मान गए. शाम में बड़का दुआर के दालान की छत पर सभी युवक इकठ्ठा हुए. बैठक की शुरुआत करते हुए मैंने उनसे कहा कि मैं अपने गाँव की सूरते-हाल से काफी निराश हूँ क्योंकि यहाँ तो खालिस निठल्लापन है. मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि आपका असली दुख क्या है. मेरी यह बात सुनते ही उनकी आँखों में एक चमक आ गयी. मुझे इस चमक के रहस्य को समझने में देर नहीं लगी. चूंकि मैं दिल्ली से गया था और मेरे पास तब एक मुकम्मल नौकरी भी थी, इसलिए सबको यह भरोसा था कि भैया चाहेंगे तो उनके दिन भी जरूर बहुर जायेंगे. इसके पहले की बात आगे बढ़ती, वे समेवत बोल पड़े, "भैया, बेरोज़गारी ही हमारा एकमात्र दुख है. हम कुछ भी करने के लिए तैयार हैं. आप इतने बड़े पद पर हैं, आपके एक इशारे पर पूरे गाँव को नौकरी मिल सकती है. आप ही हमारे आसरा हैं. आप अवतारी हैं, इस डीह का कायाकल्प करने का मादा सिर्फ आप में है. आप अगर हमारी थोडी भी मदद कर दें तो हमारी ज़िन्दगी सुधर जायेगी".

युवकों के ऐसे उदगार सुनकर मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था; समझ नहीं पा रहा था कि आखिर इनकी ऐसी कौन-सी विवशता है कि मुझे ही अवतार माने जा रहे हैं. मैंने प्रतिवाद करते हुए समझाने की कोशिश की कि इस देश में इतना ताक़तवर कोई नहीं है जो सबको नौकरी दे दे या दिला दे. मेरी बात सुनकर उनका पूरा उत्साह काफूर हो गया. कुछ देर चुप्पी के बाद एक युवक ने कहा, "अगर आपको नौकरी नहीं देनी थी तो हमें इस मीटिंग में बुलाया ही क्यों?" विकल्पहीनता की ऐसी स्थिति किसी कौम के लिए कितनी खतरनाक हो सकती है, इसे फिर-फिर बताने की जरूरत नहीं है.

आत्म-शक्ति के तिरस्कार के प्रति ऐसी सहमति आपको किसी और समाज में ढूंढें नहीं मिलेगी. कहा जा सकता है कि आज का बिहारी समाज अपनी तमाम धार्मिक आस्थाओं के बावजूद गीता के उपदेश को सर के बल खडा करने की कोशिश कर रहा है. उसे फल चाहिए, करमा नहीं. उदहारण के लिए हम पढाई और कमाई की बात कर सकते हैं. आज बिहार के गाँव-गाँव में जिस तरह तथाकथित अंग्रेजी स्कूल खुल रहे हैं, उसे देखकर किसी को गुमान हो सकता है कि बिहारी समाज जल्द ही शिक्षा के क्षेत्र में नई बुलंदियों को छू लेगा. लेकिन वास्तविकता कुछ और ही बयां कराती है. जहाँ एक तरफ निजी स्कूलों और कोचिंग सेंटरों की बाढ़ आई है वहीं दूसरी तरफ सरकारी स्कूल रसातल की ओर तेज़ गति से फिसलते जा रहे हैं. यह ताज्जुब की बात है कि पूरा समाज स्कूल की शवयात्रा में शामिल है, किन्तु किसी के चहरे पर कोई मलाल नहीं. स्कूल हों न हों, स्कूल में पढाई हो न हो, शिक्षक स्कूल आये न आये, किसी को कोई परवा नहीं. परवाह है तो सिर्फ इस बात की कि इस मरुस्थल में भी उनके लाल के प्रमाण-पत्र में अच्छे अंक दर्ज हो जाएँ. और यही कारण है कि जहाँ दूसरे समाजों के विद्यार्थी और उनके अभिभावक परीक्षा के बाद शांतचित्त होकर परीक्षाफल का इंतज़ार करते हैं, हम बिहारी दूसरी तीर्थयात्रा पर निकल पड़ते हैं. यहाँ-वहां से पता करते हैं कि किस विषय की कॉपी कहाँ और किसके पास गई है. फिर जुगाड़ से यह पता करते हैं कि परीक्षक के पास किसके मार्फ़त से और क्या या कितना लेकर पहुंचा जाये. छात्र की सफलता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि उसकी तयारी कैसी है, बल्कि इस बात पर निर्भर करती है कि उसके मां-बाप कितने जुगाड़ी हैं. दुख की बात तो फ़क़त इतनी है कि इस जुगाड़ी प्रवृति की वज़ह से पूरा समाज मदारी बनता जा रहा है और हम इसी मदारीपने में मस्त हुए जा रहे है. कमाई की बात, रोज़ी-रोटी की बात का खुलासा करने के लिए मैं अपने गाँव का हवाला पहले ही दे चूका हूँ. तो, अभी के लिए रुख्सती की इजाजत दीजिये, फिर मिलेंगे चलते-चलते, कहते-कहते.
वीरेन्द्र

जीना हुआ दुश्वार

संजीव रंजन की कविता . कविता का सन्दर्भ मित्र संजीव ने लिख भेजा है.पढें और अपनी राय से सब की हौसल अफजाई करें.
कौशल जी,
प्रस्तुत कविता प्रिय वीरू के हौसले का प्रतिफल है. मैंने टेलीफून पर कभी बात-चीत के दौरान उनसे अपने बालकनी के नीचे-के पार्किंग स्पेस में जड़ पकड़ रहे एक नन्हे वट वृक्ष के ताजा स्थिति का ज़िक्र किया था. उन्होंने कहा कि यह कविता-सी प्रतीत हो रही है - आप इसे कौशल जी के ब्लॉग पर भेजें. अब यह आप के हाथ में है :

जीना हुआ दुश्वार ...
मेरी बालकनी के नीचे-के
पार्किंग स्पेस
मेंएक बे-आबरू कुआँ और एक नन्हा वट-वृक्ष hai
oopar-वाले तले का किरायदार
उस पर सुबह और शाम को पाइप से पतले-धार
कीबारिश करता हैजिससे
उसके अक्सर पत्ते
और उसका आधा से ज्यादा
किशोर धड
सतह पर भींग जाता है
नीचे की ज़मीन भींग जाती है,
पर पानी-पानी नहीं होता है
(बदहाल ज़मीन क्षण-भर मेंपी जाती है)
उसका बाक़ी-का मुख्य आहार
फिनाइल आदि के मसाले-wala
kachade का शोरबा है
अल्ल-सुबह से देर दोपहर tak
safaayee -वाले और waaliaan
taawad tod
वह शोरबा
गुटखे की पीक के saath
us नौनिहाल की जड़ में
पटाये जाते हैं.
.......
दोपहर में
कभी कुछ देर तक
उस बेजुबान को
जब देखने का अवसर होता hai
tab लगता hai
ki फुन्गिओं पर कीउसकी
नवजात हरी pattiyaan
सिहर रहीं है.
.. संजीव रंजन, मुजफ्फरपुर

Thursday, March 12, 2009

पटना शहर की मुख्य सड़क "चौक" - इसवी सन 1814, सीता राम की कलाकृति

क्या आपको भी पटना शहर समृद्ध दिख रहा है ?

आज से करीब दो सौ साल पहले पटना सिटी चौक ऐसा दिखता था .इस चित्र में चौक से मंदिर ,मस्जिद और दुकानों का खूबसूरत नज़ारा मिलता है .चौडी और साफ़ सुथरी सड़क पर हाथी, बैलगाडी और छकडा की गरिमामय उपस्थिति को कलाकार ने चित्रित किया है.

कलाकार सीता राम की वाटर कलर में 1814 में बनायी गयी पेंटिंग .

साभार - ब्रिटिश लाइब्रेरी ,लन्दन 

Friday, March 6, 2009

गंगा के मझधार से एक नजारा पटना का - 1780 की कलाकृति



 १८ वीं सदी में मुग़ल सल्तनत के कमजोर होते हीं बिहार यूरोपीय तिजारती कंपनियों , मराठों ,नबावों के बीच अधिपत्य की लडाई अखाडा बन गया.

१७४५ तक बिहार मराठों ,बंगाल के नबावों और अफगानी फौजों के द्वारा रौंदी जाती रही .

बेहाल रियाया और बिहार की हुकूमत के कई हक़दार . 
पर इस उथल पुथल के बीच पटना का व्यापारिक महत्व निरंतर बढ़ता रहा . बिहार इसी बीच नील और अफीम की खेती और पटना  इस व्यापार का मुख्य केंद्र . पूर्व ,पश्चिम और उत्तर दिशा में देसी विदेशी व्यापार का केंद्र .स्थानीय और विदेशी व्यापारी की भरमार .डच , फ्रांसीसी , अंग्रेज, आर्मेनियाई , पश्चिम उत्तर प्रान्त , तिब्बत सब जगह के लिए और सब जगह का माल . 
पटना और मगध को रौंदती रघुजी भोंसले , दरभंगा के अफगानों और ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौजें .
 
१७६४ के बाद क्रमशः ,बिहार में ईस्ट इंडिया कंपनी की मजबूत होती हुकूमत और जनता भी हलकानी के हालिया दौर से मुक्त . बाहरी फौजों के आक्रमण से मुक्ति . परमानेंट सेत्तलेमेंट की बुनियाद .


 और राजनैतिक स्थायित्व और व्यापार जनित शहरी समृधि के इस दौर में   गंगा नदी के धार से पटना ऐसा दिखता था.

Tuesday, March 3, 2009

दीवाली - वीरेन्द्र की भोजपुरी कविता

वीरेन्द्र की भोजपुरी कविता - दीवाली .पटना गाँधी मैदान का यह मंच ,हम सब के लिए बिहारी जन जीवन , इतिहास ,समाज ,आशा और निराशा , जय पराजय अर्थात हमारे सामूहिक जीवन के राग रंग का आइना या कहें की मेटाफर है. मित्र वीरू ने कविता का सन्दर्भ दिया है . इसे पढें और अपने उदगारों से अनुगृहित करें. अब उनकी जुबानी ----

मैं भोजपुरी भाषी हूँ. भोजपुरी शब्दों के अर्थ जिस तरह खुद-ब-खुद निचुड़ कर मेरे जेहन को शुकून पहुंचा जाते हैं, वैसा आमतौर पर हिंदी और अंग्रेजी के शब्द नहीं कर पाते. बहुत दिनों तक मुझे लगता रहा है और अभी भी लगता है कि जिस भाषा में हम संगीत समझ पाते हैं, उसी भाषा में कविता भी करनी चाहिए. जानता हूँ कि कविता का लयात्मक होना कविता होने की शर्त नहीं होती, फिर भी दिल है कि मानता नहीं. आज मैं आपके लिए भोजपुरी कवितायेँ लेकर आया हूँ. मन में संशय है कि गैर-भोजपुरी भाषी इन कविताओं को गैरवाजिब तो नहीं मान लेंगे? रब झूठ न बोलाय, मैं भाषा के आधार पर इस मुल्क में किसी नई राजनीतिक अस्मिता की पैरोकारी कटाई जरूरी नहीं समझता. तो आईये, इसे पढें और थोडी-सी प्रशंशा करें ताकि लगे कि भोजपुरी में कविता भी हो सकती है, सिर्फ भोंडे गाने ही नहीं लिखे जा सकते .

कविता का मथेला (शीर्षक) दीवाली --- सन्दर्भ बताना यहाँ जरूरी समझता हूँ. कल्पना कीजिये कि कोई प्रिय दीवाली के दिन अपनी प्रियतमा के साथ नहीं है. प्रियतमा समझ नहीं पा रही है कि क्या करे, क्या न करे. दीप जलाए कि न जलाए. फिर पता नहीं क्या आता है उसके मन में कि वह भी दीवाली की रात दिए जला देती है. प्रभु की माया देखिये कि इधर वह दीप जला बूझी आँखों से आकाश को निहार रही है कि उसका प्रियतम आन पड़ता है. प्रियतमा का दीप जलाना प्रिय को अच्छा नहीं लगता और वह शंकालु हो उठता है. उदास हो जाता है कि उसकी गैर मौजूदगी में भी उसकी प्रिया के मन में इतना उमंग और उत्साह है कि वह दीप जला उसका इज़हार कर रही है. यही सन्दर्भ है और आगे कविता के रूप में प्रियतमा का जवाब है.


ई दीवाली के दीप जनी बूझ बलम,
ई सुहागिन के प्रीत जनी बूझ बलम.
एही जियरा के माटी के दियरा बनल,
आपन धूनल परनवा के बाती पूरल,
जोगल नेहिया के तेलवा से दियरा भरल
ओमें बिरहा के अगिया से तितकी धरल
जरल जिनगी के जिनगी ना बूझ बलम
ई सुहागिन के प्रीत जनी बूझ बलम
ई दीवाली के दीप जनी बूझ बलम.
दिया अंचरा के ओट में ई कबतक रही
चोट सुधिया के जियरा ई कबतक सही
चटक जाई दियरा, सब तेल धरती बही
ई बियोगिन के जिनगी में कुछ न रही
ई ता माटी ह, लोहा ना बूझ बलम
ई सुहागिन के प्रीत जनी बूझ बलम
ई दीवाली के दीप जनी बूझ बलम.

Monday, March 2, 2009

नारी - तुम मेरी माँ हो ,बेटी और पत्नी भी हो -----( वीरेन्द्र की नयी कविता )

प्रिय कौशल,
मेरी घुसपैठिया कविता आपको अच्छी क्या लगी कि मैं उन्मादी हो गया. और पुरातात्त्विक हो चुकी डायरी से एक और कविता निकाल लाया. इस उत्साह को अन्यथा न लें. आगे कविता नियमित रूप से न भेज सकूंगा.
वीरेन्द्र

नारी
तुम मेरी मां हो
बेटी और पत्नी भी हो.
मैं नहीं कहता
कह भी नहीं सकता
ki
ुम सबसे सुन्दर कब दीखती हो.
तुम्हारी ममता को
छद्म कहना
तुम्हारा अपमान है.
बेटी बन
बाप की गोद को
युद्ध-भूमि भी बना देना भी
महज नाटक नहीं है.
नाटक इसमें भी नहीं
कितुम बीबी बनकरएक
हो जाती हो जिस्मानी तौर पर
मेरे साथ.
तुम्हारे अंग-प्रत्यंग
में जो उमड़ता है
उमंग उसे भी स्वीकारता हूँ
सत्य ही.
तो भी एक सवाल जेहन में
छटपटाता है
तुम्हारे उत्तर के लिए
मेरी मां, मेरी बेटी, मेरी पत्नी.
क्यों तुम सभी
एकसाथ ही
रहती हो आतंकित
किसी अजाने भय से?
क्यों नहीं बताती
भय का कारन भी?
कहीं कोई पाप
या कुछ ऐसा-वैसा
तो नहीं किया था
अतीत में?
अगर नहीं, तो क्यों
जीवन को
प्रायश्चित की तरह
ढोने में
सुख मिलाता है तुम्हें?
मेरी मां, मेरी बेटी, मेरी पत्नी.
क्यों
जब कुछ कहने की बारी आती है
लजा जाती हो तुम?
क्यों
छुपकर रहती हो
खटमलों की तरह?
क्यों
क्यों नहीं कहती
कि
अब सहा नहीं जाता
ईज्ज़त, लाज, अनुशासन
का भारढोया नहीं जाता?
क्यों
कोई दहशतज़दा माहौल
तुम्हें छुए बगैर
गुज़रता नहीं?
तुम जानती हो
बखूबी जानती हो
कि
तुम्हारे बगैर
अस्तित्व नहीं होगा
मानव का
धरा पर.
कि
तुम्हारे समेवत नकार से
संभव है
बंद हो
जाना एकल नारी की चीख का.
वीरेन्द्र

Sunday, March 1, 2009

वीरेन्द्र की कविता - समाचार

वीरेन्द्र की कविता - समाचार
मित्र कौशल,
आज मैंने भी एक कविता लिख डाली. सोचा कि कर ही लूं मन की मुराद पूरी. क्या पता फिर पूरी हो न हो. तो मित्र, कविता के क्षेत्र में एक और घुसपैठ.

समाचार
कमरे में पड़ा अखबार
कोई खबर शायद दमदार
मिल जाये
यही सोचकर उठाता हूँ.
टाईम्स ऑफ़ इंडिया के
पहले पृष्ठ
पर दाहिनेवाले कालम में
सबसे
नीचे एक खबर दबी थी
"सर्दी से पांच मरे, उत्तर बिहार में".
तभीमेरी आँखों में
छतरबलि मास्टर के
टेबुल पर
स्टैंड के सहारे
टिका ग्लोब घूम जाता है.

ग्लोब में दर्ज है
वायुदाब की pattiyaan
dhruvo की स्थितियां
समुद्र से पठार की दूरी
और
इलाहाबाद और लन्दन का तापान्तर.
भौगोलिक स्थिति
कुछ और साफ हो
इसलिए करता हूँ
भूगोल में गणित का प्रयोग.
गणित फल
सिद्ध नहीं करता
की उत्तर बिहार
ध्रुवीय प्रदेश में है.
फिर शीत से मौत उतर बिहार में क्यों ?
(आप ही बताइए ? )