Monday, October 19, 2009

ड़ी पी एस आर के पुरम ,नयी दिल्ली ,से आई आई टी में दाखिले का सुपर हाई वे

ड़ी पी एस आर के पुरम से सीधे आई आई टी में दाखिले का सुपर हाई वे .

आई आई टी प्रवेश परीक्षा में शामिल होने के लिए निम्नतम योग्यता + २ परीक्षा में 80 या 85 % किये जाने की चर्चा है . अगर कोई विद्यार्थी +२ की बोर्ड परीक्षा में निर्धारित 80 -85 % से कम अंक लाता है तो वह आई आई टी के परीक्षा में शामिल नहीं हो सकता है.
अगर देश भर के विभिन्न राज्यों की माध्यमिक परीक्षा बोर्डों की बात की जाय तो 80 -85 % से ऊपर अंक से +२ परीक्षा पास करने वाले छात्रों की संख्या बमुश्किल से कुछ हजार होगी. आज के हिंदुस्तान समाचार पत्र में झारखण्ड ,उत्तराखंड ,उत्तर प्रदेश और बिहार के सन्दर्भ में यह आंकडा (2009 की बोर्ड परीक्षा के आधार पर ) 35 -3700 पहुंचता है. मतलब यह की 35 करोड़ की आबादी वाले हिंदी पट्टी के ये चार राज्यों के कुल जमा चार हजार छात्र आई आई टी की प्रवेश परीक्षा में बैठ सकेंगें.हाँ कहने वाले जरूर यह कह सकते हैं की इन राज्यों के सी बी एस सी के स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों में इस प्रवेश परीक्ष में बैठने की योग्यता वाले छात्रों की संख्या राज्य माध्यमिक बोर्डों से पास होने वाले छात्रों की तुलना में अच्छी होगी .तर्क के लिए अगर मान भी लिया जाय तो भी इन चार राज्यों से परीक्षा में बैठने वाले छात्रों का आंकडा दस हजार से कतय्यी आगे नहीं जाएगा.
हिंदी भाषी इन चार पिछडे राज्यों से अब निगाह हटायें और दिल्ली के कुलीन प्रतिष्ठित विद्यालय डीपीएस आर के पुरम को देखें.यह भारत की राजधानी दिल्ली के रसूख वाले लोगों के वारिसों का स्कूल है. 2009 की सीबीऍसई की बोर्ड परीक्षा में तक़रीबन ८०० छात्र छात्राएं 80 % से ज्यादा अंकों से पास की .विज्ञानं के तक़रीबन छः सौ छात्र आई आई टी की प्रवेश परीक्षा में शामिल होने की पात्रता रखते हैं.
अब आप बताईये किस सामजिक आर्थिक पृष्ठभूमि वाले छात्र आई आई टी में शामिल हो सकते हैं.जब प्रवेश परीक्षा में शामिल होने में हिन् इतनी बंदिशें तो सरकारी पैसों पर चलने वाले इन उच्च शिक्षण संस्थायों में ,हिंदुस्तान के गाँव और कस्बों छोटे शहरों के सरकारी और म्युनिसिपल स्कूलों से पढ़ने वाले बच्चे , शिक्षा प्राप्त करने का सपना कैसे देख सकते हैं
जनाब यह तो सीधे सीधे संस्थागत तरीके से ग्रामीण और कस्बाई सरकारी स्कूलों के बच्चों के EXCLUSION की साजिश है.
इसे कहते हैं संस्थागत रूप से प्रतिभा की छंटाई और प्रतिभा का सृजन .मेधा सृजन और निर्माण की यह नयी रवायत है.किसने कहा की सब को समान अवसर मिलना चाहिए . कौन कहता है की मेधा का सृजन सामजिक प्रक्रिया है .
सनद रहे ,इक्कीसवीं सदी में हम मुक्कम्मल तौर पर भारत को मेधा -आधारित समाज और राष्ट्र बनाना चाहते हैं.

Thursday, August 6, 2009

मगध के ऐतिहासिक धरोहर की हिफाजत कौन करेगा ?

दैनिक जागरण , पटना के हवाले से एक खबर आई है . नालंदा जिला , हिलसा अनुमंडल के थरथरी प्रखंड के राजबाद गाँव में तालाब की खुदाई में प्राचीन भगनाव्शेष मिलाने की खबर आई है . कहने की जरूरत नहीं की इस की मुकम्मल पुरातात्विक उत्खनन और संरक्षण की जरूरत है . यूँ पूरा मगध क्षेत्र हीं गौतम बुद्ध की कर्म भूमि रही है ,पर इस क्षेत्र के गौरवमयी (बुद्ध काल ,मौर्य, गुप्त काल और पाल वंश के पांच सौ साल के शासन काल तक ) इतिहास और सांस्कृतिक धरोहर को द्रिघ्कालीन सुदृढ़ नीति बनाकर सहेजकर रखने और विकसित करने की जरूरत है .इस समाचार को विस्तार से पढें .
तालाब की खुदाई में मिले प्राचीन सभ्यता के अवशेष
हिलसा (नालंदा) Aug 06, 09:42 pm
जिले के हिलसा अनुमंडल के थरथरी प्रखंड क्षेत्र के जैतपुर पंचायत अंतर्गत राजाबाद गांव में सरकारी स्तर पर तालाब खुदाई के दौरान प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिले है। ग्रामीणों ने समझदारी दिखाते हुए मशीनों से हो रही तालाब की खुदाई रोक दी है और खुद कुदाल व फावड़े लेकर भग्नावशेषों को बिना क्षति पहुंचाये खुदाई करने में जुट गये है। कार्य की देखरेख कर रहे ग्रामीणों ने विशेष कार्य प्रमंडल के जूनियर इंजीनियर को इस बाबत सूचित कर दिया है लेकिन भग्नावशेषों को मिले दो दिन गुजर गये, अब तक कोई भी सक्षम पदाधिकारी स्पाट पर नहीं पहुंचे है। पुरातत्व विभाग भी इस प्रकरण से अबतक अनजान है। वैसे एएसआई के निदेशक एमजे निकोसे ने कहा कि अगर तालाब खुदाई में प्राचीन स्थापत्य कला के भग्नावशेष मिले है तो वह जल्द ही विशेषज्ञों की एक टीम राजाबाद गांव भेजेंगे। जो तमाम तथ्यों का बारीकि से मुआयना करेगी।
बता दें कि राजाबाद अवस्थित तालाब की खुदाई विशेष कार्य प्रमंडल के अधीन हो रही है। खुदाई कार्य अंतिम चरण में पहुंच चुका है। 9.75 लाख की इस कार्य योजना के तहत तालाब को 335 वर्ग फुट क्षेत्र में 7.5 फुट गहरा किया गया है। इसी क्रम में तालाब के पश्चिमी क्षेत्र में 21 फुट लंबा व 16 फुट चौड़ा चबूतरा मिला है। इस चबूतरे में लगी ईटे 14 इंच लंबी, 9 इंच चौड़ी व 2.5 इंच मोटाई की है। चबूतरा पश्चिम से पूरब की ओर झुका हुआ है। चबूतरे के उत्तर-दक्षिण लकड़ी का भीमकाय कालम भी है। इसके अलावा पानी में डूबा एक विशालकाय लकड़ी का खंभा भी है। जिसे ग्रामीणों ने मशीन के सहारे उखाड़ने की कोशिश की लेकिन खंभा टस से मस नहीं हुआ। फिलहाल इस खुदाई कार्य की देखरेख कर रहे संजय सिंह, पंचायत के पूर्व मुखिया श्यामनंदन शर्मा, ललन सिंह, बिन्दा प्रसाद व संतोष कुमार सहित कई अन्य लोगों के नेतृत्व में तालाब की खुदाई करायी जा रही है। ग्रामीणों को कुछ और महत्वपूर्ण अवशेष मिलने की संभावना नजर आ रही है।

Saturday, July 25, 2009

पटना के आला पुलिस अफसरों का तबादला : दोषियों को उचित सजा मिलना बाकी है

एक्जीविशन रोड की शर्मसार करने वाली घटना में अभी सारे दोषियों को गिरफ्तार किया जाना बाकी है .पर सरकार ने फौरी कार्रवाई करते हुए इलाके में तैनात आला पुलिस अफसरों का तबादल कर दिया है.लेकिन इतने से नहीं होगा . इस शर्मनाक घटना में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में शामिल सभी तत्वों को एक्सेम्प्लारी दंड देने की आवश्यकता है . देखिये ऐसा कब तक होता है . लेकिन जितनी कारवाई अभी तक हुयी है संतोष प्रद है.समाचार विस्तार से पढें ;
Stripping of woman: Top police brass transferred
AGENCIES 25 July 2009, 08:27pm ISTPrint
PATNA: Bihar Chief Minister Nitish Kumar on Saturday reshuffled the state's top police brass following an alleged assault and stripping of a woman by a group of men. The incident shocked the nation.
Fourteen Indian Police Service (IPS) officers including the inspector general of police and the deputy inspector general have been transferred, IANS reported.
Top police officers in Patna, including district and city police chiefs, have been removed and posted at different places.
Fourteen deputy superintendents of police have also been transferred.
The reshuffle of the police brass is being seen as a damage control exercise after the opposition and women's rights activists criticised the government for alleged lawlessness in the state.
A group of men had abused, assaulted and then stripped a woman in her 20s in full public view at a busy road in the state capital Thursday evening.
A police team was reportedly present at the site and watched the attack on the woman for nearly an hour before taking the culprits to the police station.
Assistant sub-inspector Shiv Nath Singh, who was in charge of patrolling the area, has already been suspended for not helping the woman in time.
The woman was identified as a resident of Jesidih, a town in the neighbouring state Jharkhand. Rakesh Kumar, a resident of Punaichak here, had lured her to Patna with a promise of providing a job to her.
Soon after she came here, Rakesh allegedly forced her to have sex with his friends. She ran away from the hotel where she had been staying with him for the last few days. However, Rakesh and his friends caught up with her and attacked her.
3 held for assault on girl in public
According to PTI, three persons were on Saturday arrested in connection with alleged assault and stripping of a young woman by a group of people.
Police said the arrested persons were Ashok Kumar, owner of the hotel where the woman allegedly engaged in flesh trade stayed, and the hotel manager besides an alleged pimp.
DIG Police (central range) J S Gangwar said that the arrests were made after a case was registered on the basis of the woman's statement under various sections of the IPC and the Prevention of Immoral Trafficking Act.

Friday, July 24, 2009

शर्मसार माहौल में संवेदनशीलता और मानवता की किरण - सी आई एस एफ के जवान और कार चालक को सलाम

कल पटना गाँधी मैदान से सटे एक्जिविसन रोड में दिन दुपहरिया जो शर्मनाक वाकया हुआ उसकी जितनी भी भर्त्सना की जाय कम है. हम सब को मिल बैठकर सोचने की जरूरत है की ऐसी घटनायों की पुर्नावृत्ति कैसे रोकी जाय .इस तरह का वीभत्स व्यवहार तो निरा बर्बर समुदायों में ही संभव है.अब जब यह हादसा हो गया है तो इस कुकृत्य में सीधे तौर पर शामिल लोगों पर तो कार्रवाई हो ही , उन लोगों पर भी करवाई होनी चाहिए जो बतौर मूक दर्शक इसमें शामिल थे.
हाँ संतोष इस बात का है की समाज की संवेदन शीलता ख़तम नहीं हुयी है .हम उस बहादुर जवान और कार चालक को सलाम करते हैं और उम्मीद करते हैं की उसे राजकीय सम्मान मिले . और उस महिला का चरित्र हनन करने वाले पुलिस के आला अधिकारियों को भी उचित सजा मिले.
ये जनाब कुछ इस अंदाज में उस महिला को जिस्म फरोश कह रहे थे जैसे उनको यह अधिकार मिला है की जिस्म फरोसी में शामिल हर महिला को वे ऐसी सजा दिलवाएं .सरकार ऐसे संवेदनहीन और भ्रष्ट पुलिस वालों से तो निपटे या न निपटे हम जरूर भगवान से प्रार्थना करेंगें की प्रभु इन्हें सद्बुद्धि दें ,और इनके अपनों को इस महिला जैसा दिन कभी न देखना पड़े .
समाचार अंश विस्तार से पढें .

सीआईएसएफ का जवान था युवती को थाने पहुंचाने वाला
Jul 25, 12:41 am
पटना एक्जीबिशन रोड पर भरी भीड़ से युवती को बचा कर गांधी मैदान पहुंचाने वाला केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल का जवान था। इसके अलावा डेयरी प्रोजेक्ट के निदेशक के कार चालक ने भी युवती को भीड़ से निकालने में अहम भूमिका निभाई थी।
एक्जीबिशन रोड पर गुरुवार की शाम जब भारी भीड़ युवती के साथ बदसलूकी कर रही थी तो दो युवकों के हौसले ने मानवता को और ज्यादा शर्मसार होने से बचा लिया था। गुरुवार की शाम वरीय पुलिस अधिकारियों ने इन्हें बिहार पुलिस का जवान बताते हुये इनकी खोज किये जाने की बात कही थी। पुलिस अधिकारियों के अनुसार इनमें से एक केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल का जवान देवेंद्र था। यह एक्जीबिशन रोड स्थित एक बैंक आया हुआ था। भीड़ देख जब वह मामला जानने नजदीक गया तो उसे भरी भीड़ में युवती फंसी नजर आयी। उसने अपना परिचय देखकर राकेश व युवती को भीड़ से बाहर निकाला। इस काम में डेयरी प्रोजेक्ट के निदेशक के चालक विनीत ने भी अहम भूमिका निभाई। ये दोनों ही राकेश व युवती को लेकर गांधी मैदान पहुंचे। दोनों को आज पुलिस मुख्यालय बुला कर इनकी पीठ ठोंकी गयी। पुलिस अधिकारियों के अनुसार इन दोनों को जल्द ही सम्मानित किया जाएगा।
: दैनिक जागरण पटना से साभार

Monday, July 13, 2009

दरवाजे पर तिरंगे में बी पी एल ,परिवार ( बिलो पावर्टी लाइन )का ठप्पा - दृश्य सोनीपत , हरियाणा के एक गाँव से


इस तस्वीर को गौर से देखें .जिला सोनीपत , हरियाणा के इस गाँव में गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर करने वाले (बी पी एल) हर घर की चौन्खट पर यह ठप्पा लगा हुआ है . इस का प्रारूप देने वाले का सौन्दर्य बोध तो देखें , इसे तिरंगें में बनाया गया है .
यह ठप्पा गरीब और गरीबी की पहचान को आसन बनाता है या के गरीब और गरीबी को दागदार करता है ?
मैं कोई निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया शायद आप पहुँच जाएँ. 

Monday, May 25, 2009

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी : आई आई टी प्रवेश परीक्षा -सुपर थर्टी , पटना और कोटा का अंतर.

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी : आई आई टी प्रवेश परीक्षा ,सुपर थर्टी ,पटना और कोटा का अंतर .

राजस्थान का कोटा शहर ,डेढ़ दो दशकों से +2 के बाद कि मेडिकल और इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा कि तैयारी का अहम् मुकाम बना हुआ है .पचासों हजार लडके लडकियां , हर साल ,यहाँ के नामी गिरामी कोचिंग संस्थायों में मेडिकल ,इंजीनियरिंग में दाखिला लेने के सुन्दर सपने संजोये आते हैं.बंसल क्लास्सेस और अल्लेन सरीखी संस्थायों में माध्यम वर्ग कि हैसियत से फाजिल शुल्क लगता है . कई अभिभावक पेट काट कर ऊँचे फीस वाले इन व्यवसायिक संस्थानों में अपने बच्चों को साल दर साल भेजते रहें हैं. हर साल प्रवेश परीक्षायों में अपेक्षित सफलता इन संस्थानों को मिलती रही है . पता नहीं समानुपातिक नजरिये से देखें तो सफलता का क्या प्रतिशत बैठेगा . पर ये कोचिंग संस्थान साल दर साल जरूर इतना कुछ कर लेते हैं कि इनके बाजार और ग्राहकों में उतरोत्तर वृद्धि होती रहती है.जानकार बताते हैं कि कोचिंग के इर्द गिर्द अरबों रुपये का व्यवसाय कोटा में संचालित हो रहा हैऔर फलस्वरूप स्थानीय अर्थव्यवस्था फल फूल रही है.

कोटा के इन व्यवासायिक कोचिंग संस्थानों कि तुलना अगर पटना के सुपर 30 ( फिलहाल श्री आनंद कुमार द्वारा प्रायोजित और पूर्व में अभयानंद जी द्वारा संयुक्त रूप से संचालित ) सुपर 50 ( अभ्यानान्दजी ) रहमानी थर्टी , अंग , मगध और नालंदा थर्टी जैसी संस्थायों से करें कुछ खास बातें सामने आती हैं.पटना और बिहार के इन संस्थानों में ये सारे प्रयास समाज के उन मेधावी छात्रों के लिए हैं जो वंचित तबके से आते हैं. छात्रों का चुनाव लिखित प्रवेश परीक्षा से ये संस्थान करते हैं.आनंद कुमार , अभयानंद तथा समाज सेवियों ( रहमानी फौन्डेशन आदि ) के द्वारा जुटायी गयी धन राशिः से इन बच्चों के रहने और खाने पीने कि निःशुल्क व्यवस्था होती है. प्रवेश परीक्षा कि तैयारी इनके मार्गनिर्देशन में होती है.इसके एवज में अभिभावकों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता है. यहाँ पर आठ दस महीनों में हीं इनकी मेधा का परिमार्जन कुछ इस तरह होता है कि सुपर थर्टी हर साल सफलता की नयी बुलंदी हासिल करता रहा है. इसके हमजोली अन्य सुपर ५० आदि पिछले साल शुरू किये गए और उन्हें भी इस वर्ष काबिले तारीफ़ सफलता मिली है.

समाज के बंचित तबकों कि मेधा को इस तरह कि पालिश , और वो भी निशुल्क ,देश में अन्यत्र उपलब्ध नहीं है . कोटा में भी नहीं , जहां कोचिंग का अरबों रुपये का व्यवसाय है.
पटना में भले हीं नए मठ , मंदिर , धर्मशाले न बने हों , पर आनंद कुमार का सुपर थर्टी , अभयानंद का सुपर फिफ्टी और रहमानी थर्टी आदि बेमिसाल संस्थाएं तो हैं.

वंचित तबकों कि निःशुल्क मेधा सृजन का ऐसा अनोखा पुनीत कार्य क्या बिहार में हीं संभव था ?

कहने का मन कर रहा है कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी .

श्री आनंद कुमार और अभ्यानान्दजी के जज्बे और दृढ निश्चय को सलाम .

बिहार का चुनाव परिणाम - बदलता बिहार ?

बिहार में परिवर्तन ,विकास की शक्ल अख्तियार कर रहा है .जिस किसी से बात करें वो इस की पुष्टि करेगा.ऐसा लगता है की लम्बे ठहराब के बाद पहली बार कुछ सकारात्मक होते घटते लोग बाग़ देख रहें हैं. एक सपना बुनने लगे हैं लोग.उन्हें उम्मीद की किरण दिखने लगी है.

पिछले २५-३० सालों में करोडों बिहारी रोजी रोटी की तलाश और पढाई लिखाई के लिए बिहार से बाहर निकले. बिहारी श्रम और मस्तिष्क देश के हर कोने में हाजिर है.बाहर रहने वाले इन बिहारियों को अगर आर्थिक शरणार्थी कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.भारत के हालिया आर्थिक विकास में बिहारियों खास कर बिहारी श्रम का कितना योगदान है ? यह प्रश्न अलग शोध की मांग करता है .

अब तक बिहार और बिहारी नकारात्मक ढंग से ही बिहार के बाहर लिया जाता रहा है . बाहर में रहने वाले बिहारियों के लिए अक्सरहां यह संबोधन अपमानजनक लगता रहा है. ऐसी क्या बात है की किसी बंगाली को बंगाली और पंजाबी को पंजाबी संबोधन अपमान जनक नहीं लगता है ? पर आप किसी भी आप्रवासी बिहारी से बात करें , बाहर में बिहारी संबोधन उसे गाली जैसा बेधता है .बिहारी होना और उसके इर्द गिर्द बनाने वाली पहचान उसे परदेसी जीवन की भागदौड़ और बने रहने के जद्दो जहद में वे बजह की बाधक लगती है. यह शब्द अपमान और तिरस्कार का बोध जगाता है. बाहर के लोग कहते
हैं की भाई ,अगर बिहारी हो तो बिहारी कहलाने और सुनने में कैसा अपमान और किसी लज्जा? बहुत कुछ उसी तरह ,जैसे की जातिगत अंहकार और श्रेष्ठता के दंभ
में अक्सरहां लोग बाग़ कहते मिल जाते हैं की अगर कोई चमार है तो उसे चमार न कहा जाय तो क्या कहा जाय ? चमार कहे जाने की चुभन को तो कोई चमार ही महसूस कर सकता है.बिहारी कहे जाने पर हिय के शूल को सिर्फ प्रवासी बिहारी हीं महसूस कर सकता है ! प्रवासी बिहारी कि परदेस में वही गति है जो हिन्दू समाज में दलितों की है . दोनों अपने भूत से भाग रहे हैं. वर्तमान दोनों के लिए दुखद है ,ये शब्द गौरव नहीं हीनता बोध कराते है . दलित और प्रवासी बिहारी दोनों , अपनी पहचान , छिपाने को अभिशप्त दिखाते हैं.

जानकार विश्लेषक कह रहें हैं की बिहार बदल रहा है .हालिया चुनाव परिणाम बदलते बिहार के नजरिये से देखा जा रहा है.

बिहार में जो सुखद बदलाब आ रहा है वह किसी से छिपा नहीं है . परिवर्तन की दिशा ठीक है . परिवर्तन समग्र विकास का रूप ले . हर इलाके और समाज के हर तबकों को शामिल करे , इस की गति तीव्र हो , भला इन बातों से किसे इनकार होगा .
बिहार में पिछले साठ सालों में किसी न किसी रूप में सरकारी तंत्र , शासन , विकास सब पर जातिवादी एकाधिकार , पक्षपात और लूट खसोट हावी रहा .
राजनैतिक हुकूमत ,शासन की आड़ में नंगा जातिवादी खेल , पचास के दशक से ही चालु है .यह अलग बात है की पासा पलटने पर कुछ तबके ज्यादा जोर से चिल्लाते रहें हैं.
लोकतांत्रिक चेतना के विकास के इस दौर का तकाजा है - सामजिक न्याय के साथ विकास . जो कोई भी इस कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा वह देर सबेर हासिये पर फ़ेंक दिया जाएगा.
तो क्या बिहार में बरसों से जारी विकास के नाम पर लूट खसोट और जातिवादी एकाधिकार की प्रवृत्ति की उलटी गिनती शुरू हो गयी है ?
क्या वाकई सामजिक न्याय के साथ विकास की शुरूयात हो गयी है ?
इस पर कुछ कहेंगें तो विमर्श आगे बढेगा.

Wednesday, May 20, 2009

उन दिनों कैसा था पटना कॉलेज ! बिहार विमर्श -9

आलेख वीरेन्द्र . कैसा था पटना का पटना कॉलेज.अपनी ऐतिहासिक उपलब्धियों के बदौलत ,बिहार के सिरमौर कॉलेज के रूप में ख्याति रही है इस कॉलेज की .यह अंक पटना कॉलेज कथा की नवीनतम कड़ीहै . तो आप बीती पर उनके इस लेख में जमाने की शक्ल -ओ -सूरत भी साफ़ नजर आती है.इसे पढें और बिहार विमर्श के इस आयाम को विस्तृत करें.

पिछले अंक में मैंने आपसे वादा किया था कि मैं आपको पटना कॉलेज के छात्रों के गैर-शैक्षणिक सरोकारों से रु-ब-रू करवाऊंगा. तो आइये मेरे साथ और देखिये यह नज़ारा और सुनिए यह गल्प.

तो एक चक्कर लगा लें पटना कॉलेज का. अशोक राजपथ के उत्तरी किनारे पर बना यह कॉलेज अपनी ऐतिहासिक ईमारतों के लिए आज भी मशहूर है. कहते हैं, अंग्रेजों के ज़माने में यह नील व्यवसाय का केंद्र था और यहाँ नीलहे गोरे साहब रहा करते थे. पुराने पटना कॉलेज में ईमारतों के तीन खंड थे और तीनों बेहद ख़ूबसूरत कॉरिडोर से जुड़े हुए थे. अब यहाँ चौथा खंड भी है जिसमें मनोविज्ञान की कक्षाएं चलती हैं. 


लेकिन बिना प्रवेश द्वार पर रुके आप इस कॉलेज के गैर-शैक्षणिक सरोकारों से परिचित नहीं हो सकेंगे. अशोक राजपथ पर बने इस प्रवेश द्वार के दाहिनी तरफ रिक्शावालों ने अपना अवैध डिपो बना रखा है जबकि बायीं तरफ राजेन्द्रजी की ख्यातिलब्ध चाय की दूकान बरसों से उसी टूटी-फूटी अवस्था में विराजमान रही है. जिन छात्रों का कॉलेज के अन्दर दबदबा होता था, वे इस दूकान पर अवश्य बैठते थे. राजेन्द्रजी की दूकान पर एक साथ ही चाय की अंगीठी और चिलम की गूल जलते रहती थी. ऐसे में यह संयोग भर नहीं था कि उनकी चाय से भी गांजे की खुशबू हवा में बिखरती रहती थी. कुछ तो उनकी उम्र की वज़ह से और बहुत कुछ उनकी दुहरी उपयोगिता की वज़ह से, उस दूकान पर आनेवाला कोई भी छात्र उनसे बेअदबी से बात नहीं करता था. उनका दावा था कि वे कई पीढियों के बीच सेतु का काम करते रहे हैं; कि आज भी उनकी जान-पहचान बड़े-बड़े अधिकारियों के साथ है. खैर, राजेन्द्रजी खुद भी गांजे का निरंतर सेवन करते थे और अपनी उदारता से नए छात्रों को भी उत्प्रेरित करते थे. उनका मानना था कि गांजा स्वस्थ्य के लिए कतई हानिकारक नहीं होता क्योंकि यह शिव का प्रसाद है. अच्छी नीयत से गांजा पीनेवाला न तो कभी किसी डॉक्टर का मोहताज होता है और न ही उसे किसी के बारे में गलत सोचने या करने की फुर्सत होती है. वह तो खुद ही शिवमय हो जाता है. 
 
इस प्रवेश द्वार से पटना कॉलेज में दाखिल होते ही आप महसूस करेंगे कि अन्दर की दुनिया सिर्फ गांजे के धुँए में सराबोर नहीं है. सच कहा जाये तो पटना कॉलेज अपनी तमाम अधोगति के बावजूद अपना अपना शैक्षणिक वजूद बचाए रखने में कामयाब रहा था. यहाँ बिहार के सभी हिस्सों के वे मेधावी छात्र जो विज्ञान की पढाई नहीं कर सकते थे, इकठ्ठा होते थे. इसके अलावा, एक दस्तूर के रूप में जो बात हमारे दौर में स्थापित होती जा रही थी, वह यह थी कि प्रशासनिक सेवा में जाने का सबसे सुगम मार्ग कला विषयों के बगीचे से होकर गुजरता है. नतीजतन, साइंस कॉलेज से पटना कॉलेज आनेवालों छात्रों की भी अच्छी खासी तादात रहती थी. पटना कॉलेज में आने का मेरा भी अघोषित उद्देश्य यही था. चूंकि मैं विज्ञान का छात्र था, इसलिए कला विषयों के बारे मैं कोई बारीक समझ नहीं रखता था. हाँ, वरिष्ठ छात्रों से पता चला था कि समाजशास्त्र सिविल सर्विसेस की परीक्षा के लिए बेहतर विषय हो सकता है. सो, मैंने समाजशास्त्र का वरण कर लिया. 
 
वरण तो कर लिया किन्तु हासिल क्या हुआ? शिक्षकों की गुणवत्ता के आधार पर देखा जाये तो पटना कॉलेज का समाजशास्त्र विभाग का कोई ख़ास महत्व नहीं था. शुरू के एक-दो हफ्ते तो मुझे सबकुछ दिलचस्प लगा क्योंकि मेरे लिए यह एक नया विषय था. गोपाल बाबु, गोपी कृष्ण प्रसाद (GKP), सरदार देवनंदन सिंह (SDN) जैसे शिक्षक विभाग की शोभा बढा रहे थे. इनमें से अगर किसी एक के पास शिक्षक बनने की योग्यता और गरिमा थी तो वे थे GKP. सच कहूं तो उन्हीं की कक्षा में आभास होता था कि समाजशास्त्र में भी कुछ समझने की जरूरत है. वरना, दूसरे तो शायद ही कभी किस्सागोई की सरहद पार कर पाते थे. मिसाल के तौर पर मैं यहाँ SDN सिंह की शिक्षण-पद्धति के बारे में एक रोचक बात बताना चाहूँगा. चाहे वे मार्क्स के बारे में बताएं या मेक्स वेबर के बारे में, अंत वे खुद द्वारा ईजाद की गई एक रोचक पहेली से करते थे - 'मार्क्स (वेबर) के विचारों को न तो प्रूव किया जा सकता है, न ही डिसप्रूव किया जा सकता है, यह अंततः अनप्रूव्ड रह जाता है.' उनकी यह उक्ति इतनी बचकानी लगती थी कि मैं मन ही मन मुस्कराते रहता था. बाद में पता चला कि लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में SDN सिंह पहले इंटरमेडीएट काउन्सिल के अध्यक्ष बने और बाद में मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा के वाइस चांसलर. कुछ दिनों तक उन्होनें सुलभ इंटरनॅशनल को भी अपनी सेवाएं दी थीं. खैर, पढाई के मामले में खुद का ही भरोसा रहा. दीगर है कि पटना कॉलेज के होस्टलों में तब सभी विषयों के उम्दा छात्र रहते थे. उनसे बातें करके, उनसे नोट्स लेकर और उनके सुझाव सुनकर हम सबको बहुत कुछ सीखने का मौका मिल जाता था. 
 
पटना कॉलेज की बात चेतकर बाबा के ज़िक्र के बगैर अधूरा ही माना जायेगा. जी, चेतकर बाबा यानी चेतकर झा पटना कॉलेज के प्रिंसिपल थे. वे एक बिंदास व्यक्तित्व के मालिक थे और छात्रों में काफी लोकप्रिय भी थे. धोती के ऊपर कोट पहने हुए, हाथ में छाता या छड़ी लिए, पान चबाते हुए जब वे पटना कॉलेज की मटरगश्ती करते तो एक अजीब दृश्य उपस्थित हो जाता. वे खुद किसी से न डरते थे और उनसे भी शायद ही कोई डरता था. आपको जानकर हैरत होगी कि वे राजनीतिशास्त्र के शिक्षक थे और लास्की के निर्देशन में लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनिमिक्स से डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की थी. उनकी छात्रप्रियता की एक मिसाल मैं बयां करना चाहूँगा. स्नातक की परीक्षाएं चल रहीं थीं. राजनीतिशास्त्र का एक पेपर लीक से हटकर था, सो छात्रों ने उस पेपर का बहिष्कार कर दिया था. वाइस-चांसलर अडिग थे कि उस पेपर की दोबारा परीक्षा नहीं होगी. छात्र असमंजस में थे कि क्या करें, क्या न करें. लेकी जाको रखी साइयां, मार सके न कोई. सो, छात्र हार-थककर बाबा के पास पहुंचे. बाबा ने आने का कारन पूछा तो छात्रों ने बताया कि वाइस-चांसलर किसी की नहीं सुन रहा है और कह रहा है कि जिसे जो करना हो कर ले. छात्रों ने यह भी बताया कि करने के लिए तो हम उनका कुछ भी कर सकते थे, किन्तु पटना कॉलेज और आपकी आन में हम कोई बट्टा नहीं लगाना चाहते थे. बाबा खुश हुए और कह दिया कि जाओ, तयारी करो, आगे का काम मेरा है. ख़ुशी में छात्रों ने नारा लगाया, "राइट और रौंग, बाबा इज स्ट्रौंग'. जी, ऐसे मनोहारी थे हमारे प्रिंसिपल साहब.  
 
राजनीतिक रूप से आठवें दशक की शुरुआत को संक्रमण का दौर कहा जा सकता है. पूर्ववर्ती दौर की प्रगतिशीलता अब शिथिल हो रही थी और उसकी जगह एक नई पतनशील राजनीतिक संस्कृति तेजी से अपने पाँव पसारती जा रही थी. पढ़नेवाले छात्र इस राजनीति से पूरी तरह विमुख थे और जो छात्र राजनीतिक मंचों पर चहलकदमी कर रहे थे उनका पढाई से दूर का भी कोई रिश्ता नहीं था. ऐसे में छात्र संघ का चुनाव नए राजनीतिक मुहावरों की अजीबोगरीब नुमाईश का अवसर प्रदान करता था. जातीय सभाओं का आयोजन करना सभी प्रत्याशियों के लाजिमी माना जाता था. इन्हीं जातीय सभाओं में उम्मीदवारों के चयन पर अंतिम मुहर लगाई जाती और यहीं पर तय होता कि प्रचार के दौरान क्या कुछ किया जाना है. तो आईये मैं आपको बारी-बारी से भूमिहार और राजपूत की सभाओं में ले चलता हूँ. 
 
पटना विश्वविद्यालय का सीनेट हॉल ऐसी जातीय सभाओं के आयोजन के लिए सबसे उपयुक्त स्थान हुआ करता था. कभी-कभी ये सभाएं किसी हॉस्टल में भी आयोजित की जाती थीं. वैसे तो जातीय सभाओं में किसी गैर-जाति के सदस्य की उपस्थिति न सिर्फ वर्जित थी, अपितु खतरनाक भी मानी जाती थी, किन्तु अगर आपका कोई भरोसेमंद दोस्त उस जाति का है तो आसानी से घपला किया जा सकता था. मैंने भी किया था- अपने खांटी भोजपुरिया दोस्त गणेश ठाकुर के साथ. गणेश ठाकुर पहले भोजपुरिया था, बाद में भूमिहार या कुछ और. इस तरह मुझे पहली दफा एक जातीय सभा में शरीक होने का मौका मिला था. सीनेट हॉल के मंच पर भगवान परशुराम की तस्वीर राखी गयी थी. मंच पर विराजमान होनेवाले सभी नेतागण बारी-बारी से उस तस्वीर पर माल्यार्पण कर रहे थे. अब तो मुझे उन नेताओं में से ज्यादा के नाम याद नहीं हैं, लेकिन इतना ज़रूर याद है कि शम्भू सिंह (1982 के छात्र संघ चुनाव में भूमिहारों की तरफ से अध्यक्षीय उम्मीदवार थे) व अनिल शर्मा की मौजूदगी मंच की शोभा बढा रही थी. यही अनिल शर्मा आज प्रदेश में कांग्रेस के अध्यक्ष हैं. इस सभा में सभी प्रत्याशियों को अपनी उम्मीदवारी के समर्थन में तर्क प्रस्तुत करने होते थे. हर उम्मीदवार भगवान परशुराम के ऐतिहासिक कारनामों स्मरण करने के पश्चात भूमिहारों की खंडित एकता पर आंसू बहाता और संकल्प लेता कि वह अपने प्राणों की आहूति देकर भी इस धरा से एकबार फिर क्षत्रियों का समूल नाश करेगा. यह भी बताया जाता कि कैसे वह अपनी जाति के ठेकेदारों को पटना विश्वविद्यालय के निर्माण कार्यों में शरीक कराने में सफल रहा. सभा की समाप्ति से पहले उपस्थित लोगों से अपील की गयी कि जातीय एकजूटता के संकल्प को और पुख्ता बनाने के लिए सब्जी बाग स्थित भगवान परशुराम के मंदिर में माथा टेका जाये. मुझे पहली दफा पता चला कि सब्जी बाग में भगवान परशुराम का कोई मंदिर भी है. 
 
अब चलिए राजपूतों की सभा में. यह सभा विधि कॉलेज के हॉस्टल में आयोजित की गयी थी. दद्दा के नाम से मशहूर अशोक सिंह इस सभा की अध्यक्षता कर रहे थे. समीर सिंह जो एक पुराने कांग्रेसी परिवार से ताल्लुक रखते थे, राजपूतों की ओर से छात्र संघ चुनाव में अध्यक्षीय उम्मीदवार थे और वे भी मंच पर विराजमान थे. लेकिन सबकी दिलचस्पी सचिव पद के उम्मीदवार सत्येन्द्र सिंह में ज्यादा दीख रही थी. कारण यह था कि पिछले दिनों बी.एन. कॉलेज में एक भूमिहार छात्र की हत्या की गयी थी और सत्येन्द्र सिंह उसके घोषित कातिल थे. वैसे तो सचिव पद के लिए दूसरे उम्मीदवार भी थे, किन्तु सत्येन्द्र सरीखा दमदार उनमें दूसरा कोई न था. समीर सिंह ने अपने भाषण की शुरुआत करते हुए राणा प्रताप को याद किया और बाद में सिलसिलेवार तरीके से बताया कि उन्हें अपनी जाति के छात्रो को कॉलेज से छात्रवृति दिलवाने में कितने पापड बेलने पड़े; रानीघाट से साइंस कॉलेज तक जो सड़क बनाई गयी उसका ठेका किसी राजपूत को दिलाने में उन्हें कितना ऊंचा-नीचा करना पडा. अध्यक्ष पद के उम्मीदवारों के बोल लेने के पश्चात सचिव पद के उमीदवारों को अपनी-अपनी बात कहने का मौका मिला. अभी कोई नाम याद तो नहीं है, किन्तु इतना ज़रूर याद है कि सत्येन्द्र सिंह के अलावा सचिव पद का एक और उम्मीदवार भी था. पहले बोलने की बारी उसी की थी. उसने बोलना शुरू किया ही था कि सत्येन्द्र सिंह अचानक व्यग्र हो उठा. लोगों को अकस्मात खतरे की घंटी सुनाई पड़ने लगी. सचिव पद का दूसरा उमीदवार अचानक विनम्र हो उठा, अपनी गलती स्वीकार की और भाई सत्येन्द्र के समर्थन में तन, मन व धन से अपना योगदान देने के लिए उत्कंठित हो उठा. सभा निःशब्द हो उठी. सत्येन्द्र ने बोलना शुरू किया. बिना किसी लाग-लपेट के उसने सभा की ओर एक सवाल उछाला. वह जानना चाहता था कि अगर सभा में उपस्थित सभी लोग असल में राजपूती बूँद हैं तो फिर मुझे बताया जाये कि मैं उस बिरादरी में कहाँ हूँ. सभा में सत्येन्द्र भैया की जिंदाबाद के नारे लगाने लगे. कहा गया कि आप से बढ़कर यहाँ कोई राजपूतों का हितैषी नहीं है. इत्ते पर भी जब सत्येन्द्र भैया को संतुष्टि नहीं हुई तो वे खड़े हो गए और लगे बोलने अपनी मातृभाषा भोजपुरी में, "हमरा पिछला साल दुगो केस में जेल जाये के पडल, हम पूछ्तानी कि हम काहे गइलीं जेल में? हमरा बाबु के कवनो गेहूं न कटाईल रहे, ना केहू हमर माई-बहिन के बेईज्ज़त कइले रहे. हम गईल रहीं आपन भाई लोगन के ईज्ज़त बचावे खातिर. लेकिन आज एह मंच पर सब लोग एह तरह से आपन राजपूती कारनामा बतावत बा जईसे ऊ लोग ना रहित त पटना विश्वविद्यालय में ठकुररईती खत्म हो जाईत. हम पूछ्तानी कि जे लोग चुनाव लादे खातिर मुहं बईले फिरता, ऊ कबहूँ गोलियों-बन्दूक चलवले बाडन, कतहूँ बम फोडले बाडन? त भैया गोली-बन्दूक हम चलाईं, बाकि नेता कोई दोसर बने. ई कहवां के न्याय ह. हम एलान करतानी कि अबकी हमहूँ चुनाव लड़ब, जेकरा में जोर होई, ऊ सामने आई.' और इसी तरह की कई फब्तियां और भी सुनते रहे लोग. 
 
सत्येन्द्र की बातों से असहमति तो किसी को नहीं थी, किन्तु कुछ असंतुष्ट किस्म के लोगों को आधिकारिक उम्मीदवारों के खिलाफ अपनी भंडास निकालने क मौका अवश्य मिल गया. इन्हीं में से एक थे सुनील सिंह. वे समीर सिंह के साथी थे, उन्हीं की तरह हमेशा सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहनते थे और नेता बनने का सपना पालते थे, इसलिए दाढी भी रखते थे. वे गुपचुप तरीके से आस लगाये बैठे थे कि इसबार उन्हें राजपूत समाज चुनाव लड़ने का मौका देगा. लेकिन किस्मत के ओछे थे, और उनकी मानें तो समीर सिंह ने ही उनका पत्ता काट दिया था. सभा के समापन के पश्चात उनसे मिलना हुआ तो वे अनायास ही फूट पड़े. लगे, कहने लगे, "वीरेन्द्रजी, आप ही बताइए कि जिस माली ने एक छोटे से पौधे को दिन-रात रखवाली करके धूल-धूप और आंधी से बचाया हो, वही पौधा बड़ा होकर अपनी छाया से माली को ही वंचित कर दे, तो उसे कैसा लगेगा?" मैंने फ़ौरन कहा कि यह तो बेअदबी होगी और हमारे समाज में इस बेअदबी को पसंद नहीं किया जाता. वे आश्वस्त हुए और बताने लगे कि समीर सिंह ने उनकी पीठ में छुरा कैसे भोंका है. मैंने किसी तरह उन्हें शांत किया और विशवास दिलाया कि अगली दफा उनको ज़रूर टिकट मिलेगा. पता नहीं, क्या सोचकर वे सचमुच शांत हो गए और फिर करने लगे इधर-उधर की अनेक बातें. 
 
ऊपर की बातें सुनकर कोई सहज ही अनुमान लगा सकता है कि आठवें दशक का पटना कॉलेज सिर्फ लम्पटों-लुहेडों का जमघट भर था. लेकिन यह इतना छोटा सत्य होगा कि उसकी अनदेखी कर देने में कोई बड़ा गुनाह नहीं हो जायेगा. बिहार के छात्रों के लिए पटना विश्विद्यालय प्रतिभाओं का ऐसा महाकुंड था जिसमें स्नान कर लेने भर से ही काया में कांति पैदा हो जाए. शिक्षक हों न हों, बुरे हों या अच्छे हों, कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि पढाई तो छात्र आपस में एक दूसरे की मदद कर पूरी कर लेते थे. यह अजब भले लगे, किन्तु है सच कि पटना कॉलेज में आकर कई निपट देहाती छात्र भी अंग्रेजी बोलने लगते थे या कम से कम में अंग्रेजी में पढ़ने और लिखने लगते थे. हॉस्टल के छात्र आपस में जिन मुद्दों पर बातचीत करते, उनमें तर्क और अनुभव की ऊष्मा मौजूद रहती. जो छात्र देखने में निहायत ही लम्पट जान पड़ते, वे भी गज़ब के सृजनशील होते. मेरा तो मानना है कि लम्पटई (गूंदागर्दी नहीं) के लिए जितनी बुद्धिमत्ता और परिहास बुद्धि की ज़रुरत होती है, उतनी किसी कक्षा में अव्वल आने के लिए भी नहीं होती. पटना कॉलेज के ज़्यादातर लम्पट सृजनशील प्रकृति के थे. यह अलग बात है कि उनकी प्रतिभा के प्रस्फूटन के लिए वहां कोई मुक्कमल रास्ता नहीं था. मैंने महसूस किया है कि अगर उनमें अपने लिए थोडा और प्यार होता, थोडा और अनुशासन होता तो उनमें से कई आज साहित्य और फिल्म की दुनिया में अपना नाम रौशन कर रहे होते.  
 

आज जब पलटकर देखता हूँ तो भी पटना कॉलेज के बारे में मुझे कुछ भी बुरा नहीं लगता है. एक अजीब मोहकार्षण आज भी दिल पर तारी हो जाता है. हॉस्टल में पंडीजी के मेस में जो खाना पकता था, उसे देखकर भले ही किसी अज़नबी को वितृष्णा हो जाये, किन्तु हमें वह ज्यादा कुछ बुरा नहीं लगता था. मज़े की बात देखिये कि आरा में पढ़नेवाले मेरे मित्र जब कभी पटना आते तो इसी खाने को देखकर लार टपकाने लगते और हमें एहसास करा जाते कि हम नाहक ही अपनी नियति का रोना रोते रहते हैं. बात बात में वे अपने पंडीजी को गालियाँ देते कि इतना पैसा लेकर भी वह हमें गर्मी भर 'ललका साग' और रोटी खिलाता है. सच ही, पटना कॉलेज अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद हम सबके लिए एक मोहक और रमणीक स्थल था जहाँ जीवन का हर रंग अपनी बेबाकी में मौलिक और मोहक प्रतीत होता था. मुझे पटना कॉलेज से मोह है और इसीलिए हमेशा दुआ करता रहता हूँ कि कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन. 

वीरेन्द्र  


 

Friday, May 1, 2009

बिहार विमर्श - 8 : पटना कॉलेज की यादें II

आलेख - वीरेन्द्र 

मैं पहले ही बता चूका हूँ कि पटना कॉलेज में मेरा कैसा भव्य (या कह लीजिये धमाकेदार) प्रवेश हुआ था. आज भी मैं तय नहीं कर पाता कि इस प्रवेश प्रकरण को 'प्रथम ग्रासे, मच्चिको पातः' के रूप में याद करुँ या 'बिल्ली के भाग्य से छीकें के टूटने' के रूप में.

शुरू के दिनों में पटना शहर को ज्यादा से ज्यादा देखने (माफ कीजियेगा, समझने की नहीं) की तमन्ना दिलोंजान पर इस तरह तारी रही कि अपने साथ कौन, क्यों, कैसे और क्या कर रहा है सोच ही नहीं पाया. जो भी हो, इसका एक फायदा यह हुआ कि मैं फोकट में, किन्तु बिना सवारी के नहीं, पूरे शहर को रौंदने में सफल हो गया. यहाँ फोकट का अर्थ बताना ज़रूरी है. तब हम सवारी के रूप में यूनिवर्सिटी बस का इस्तेमाल करते थे. इसके दो तात्कालिक फायदे थे. एक, यह विशवास पुख्ता होता था कि फोकटिया अर्थ-व्यवस्था के वारिस अकेले सिपाही नहीं होते, छात्र भी होते हैं अथवा हो सकते हैं. जब कभी कंडक्टर किसी छात्र से टिकट मांगता तो हम उसे बेवकूफ कह देते या फिर पूछ बैठते कि कहीं तुम्हारा दिमाग तो नहीं ख़राब हो गया? ऐसी बात सुनकर वह सिर्फ मुस्करा देता, कहता कुछ नहीं. सिपाही की तरह पटना के छात्र भी सौदा-बाज़ार करते समय अपने हिसाब से दाम में कटौती कर लेते. दूसरा सबसे बड़ा फयदा यह था कि पटना के नामी-गिरामी मोहल्लों की नफीस लड़कियों को देखने और मर्यादा-अमर्यादा के बीच की भाषा में उनसे कुछ चुहल करने की गुंजाईश बन जाती. लड़कियाँ भी क्या छुई-मुई, इत्ता कुछ सुनने के बाद भी चूं नहीं करतीं. गोया, ईश्वर ने उन्हें ज़बान ही नहीं दी. इस यायावरी में तकरीबन दो महीने बीत गए.  

 
समय आ गया था कि मैं गोपाल बाबु को उनके वायदे का स्मरण कराऊं. मेरी तबियत न्यू हॉस्टल से उचटने लगी थी. रह रह कर मुझे आभास होता कि मैं जो कर पा रहा हूँ, वह नाकाफी है; कि अगर और देर हुई तो उस कीचड से निकलना मेरे लिए असंभव हो जायेगा. मैंने एक आवेदन-पत्र लिखा और उसे लेकर सीधे गोपाल बाबु के सरकारी मकान में दाखिल हो गया. गोपाल बाबु मुझे निजी तौर पर जानते थे क्योंकि छपरा से पटना आते वक़्त मैं राजेंद्र कॉलेज में कार्यरत उनके मित्र वेदा बाबु की सिफारिशी चिट्ठी लेकर आया था. उन्होनें तुरत मेरी बात मान ली और मैं मिन्टो हॉस्टल में आ गया. लेकिन आने से पहले घटी एक बात का ज़िक्र मैं यहाँ करना चाहूँगा. गोपाल बाबु ने बताया कि वैसे तो मेरे अंक मेरे बैच के दूसरे सभी छात्रों से अधिक हैं, किन्तु कतिपय समाजशास्त्रीय कारणों से वे मुझे हॉस्टल का प्रीफेक्ट नहीं बनायेंगे. प्रीफेक्ट बनने में मेरी कोई रूचि नहीं थी, इसलिए मैंने कोई प्रतिवाद नहीं किया. बाद में मंडली के साथियों ने बताया कि गोपाल बाबु माहिर राजनीतिज्ञ हैं और भूमिहार हैं. वे कभी भी किसी गैर-भूमिहार को प्रीफेक्ट नहीं बनने देंगे.  

साथियों का मानना था कि यह घटना राजपूती सम्मान को चोट पहुंचानेवाली है अतः इसका पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए. लेकिन मेरी प्रत्यक्ष अरुचि की वज़ह से मामले को ज्यादा तूल नहीं दिया जा सका. बात आयी गयी हो गयी. यहाँ साफ कर दूं कि गोपाल बाबु के बारे में गैर-भूमिहार छात्रों की राय न केवल तथ्य से परे थी, अपितु उनके अपने जातीय पूर्वाग्रह को भी व्यंजित करती थी. सच तो यह है कि मैं गोपाल बाबु की समाजशास्त्रीय समझ का सबसे बड़ा मुरीद था. बानगी के तौर पर मैं यहाँ एक घटना का ज़िक्र करना चाहूँगा. मिन्टो हॉस्टल में दाखिला लेने के दो-चार दिनों बाद मैं न्यू हॉस्टल से स्थान्तरित होनेवाला था. मुझे अबतक पता न था कि मुझे मिन्टो हॉस्टल में कौन-सा कमरा आवंटित हुआ है. मैं गोपाल बाबु के घर फिर हाज़िर हुआ. वे समझ गए, बैठने का इशारा किया और खुद मेरे सामने आकर बैठ गए. उन्होनें बताया, " जो कमरा मैंने आपके लिए अनुकूल माना है, उसमें पहले से तीन छात्र रहते हैं - एक भूमिहार, एक यादव और एक दलित. आप चौथे होंगे और ठाकुर हैं. इस तरह कमरे में जातीय संतुलन बना रहेगा और कोई भी जाति के आधार पर उन्मादी बयान देने अथवा बहसबाजी करने से स्वभावतः गुरेज़ करेगा'. उनकी यह बात बाद के दिनों में सोलहों आने सच साबित हुई.

 लेकिन, दुर्भाग्य ने यहाँ भी मेरा पीछा नहीं छोडा. जिसका डर था, बेदर्दी वही बात हो गई. पलक झपकते ही मैं मिन्टो हॉस्टल में राजपूतों का नेता मान लिया गया. पटना कॉलेज परिसर में तीन हॉस्टल थे - जैक्सन हॉस्टल, मिन्टो हॉस्टल और न्यू हॉस्टल. मैं तीनों होस्टलों के मामले में नेता मान लिया गया था. उस समय पटना की शैक्षणिक संस्थाओं में जैसा माहौल था, उसमें इस बातकी सदैवसंभावना बनी रहती थी कि कहीं किसी यादव-कुर्मी अथवा भूमिहार-राजपूत में भिडंत हो जाये. राजपूत से सम्बंधित झगडों में मुझे अक्सर पंच मान लिया जाता और मैं राजपूत और भूमिहार दोनों के लिए विशेष पदवी का हक़दार हो जाता. मुझे आज यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि अपनी प्रत्यक्ष अरुचि के बावजूद ऐसी पंचायती करने में मुझे एक अजीब-सा शिशुवत शुकून मिलता था.  

दरअसल, मेरे लिए यह एक ऐसा सौदा था जिसमें लाभ ही लाभ था यानी 'हर्रे लगे न फिटकिरी, रंग चोखा होए'. वह तो बाद में पता चला कि इस सौदे में सिर्फ लाभ ही लाभ नहीं, नुकसान भी थे. अपने नुकसान की बात तो फिर कभी बाद में बताऊंगा, लाभ कि अभी बताये देता हूँ. पहला और सबसे बड़ा लाभ तो यह था कि मुझे दुनिया के तमाम मुदों पर अपनी दृष्टि साफ करने के लिए लगभग मुर्ख, किन्तु परोपकारी और कर्तव्यपरायण श्रोता समूह मिल जाता था. सच कहूं तो इस फायदे के बारे में भी मेरा अनुमान बिल्कूल नया है. सोचने पर लगता है कि इस फायदे का भान मुझे भले अब हुआ हो, लेकिन यह फायदा मुझे फायदा पहले ही पहुंचा चूका था. आज अगर मैं किसी मुद्दे पर पढ़े-ज्यादा पढ़े लोगों के बीच कुछ कहने में घबराता नहीं हूँ तो इसीलिए कि इस कला का अभ्यास करने का मौका मुझे युद्ध-भूमि में मिला था. सचमुच, पटना कॉलेज के उस कुनाबाई मित्र-मंडली के साथ जीना युद्ध भूमि में जीने जैसा था. 
 

दिन के चौबीस घंटे और उनके जीवन में एक भी घंटा ऐसा नहीं जिसमें वे जीवन, जगत, करम-धरम या किसी और चीज के बारे में सोचते हों. उनपर हमेशा एक ही नशा तारी रहता " कैसे आनंद मनाएं, कैसे मज़ा लें और क्या करें कि बस बल्ले...बल्ले....नित्य-क्रिया निवृति के पश्चात वे जलेबा खाने रमना रोड के मुहाने पर स्थित हलवाई की दूकान पर जाते, वहीं खड़े-खड़े दो-तीन कप चाय पीते और सबसे अंत में आठ - साढे आठ बजे पान चबाते हुए हॉस्टल में लौट आते. फिर नहाते, खाते और 9:20 की आनर्स क्लास अटेंड करने कॉलेज पहुँच जाते. उनकी दिनचर्या खत्म होती 11 और साढे ग्यारह बजे रात में जब वे मेस में खाना खाकर सोने के लिए अपने कमरे में वापस आते. लेकिन बता दूं कि मंडली के सभी मित्र इस साधना में बराबर निपुण नहीं थे और न ही सबमें इस रूटीन के प्रति बराबर की दिलचस्पी थी. तो क्या यह मंडली एकजूट नहीं थी? बिल्कुल थी, तथापि मंडली के प्रत्येक सदस्य को यह अधिकार था कि वह मंडली के इत्तर भी अपनी रूचि और सामर्थ्य के हिसाब से रिश्ते बना ले. इस लोकतान्त्रिक संस्कृति का असर यह हुआ कि सब साथ-साथ रहते हुए भी अलग-अलग समय पर अलग-अलग समूह में शामिल हो लेते थे. कुछ धूर सदस्यों की बात छोड़ दी जाये तो प्रत्येक सदस्य की एक अलग मंडली भी हुआ करती थी. सच तो यह है कि मंडली की एकजूटता खास कामों में ही दीखती थी. ये खास काम थे - बिना नागा हुए रोज़ शाम में करीब 5-6 बजे पटना मार्केट जाना, साप्ताहिक आधार पर सामूहिक रूप से फिल्म देखने जाना, सुबह-शाम गणेशदत्त हॉस्टल के चक्कर लगाना और लगभग धार्मिक अनुष्ठान की तरह रोज़ कम से कम एक घंटे के लिए न्यू हॉस्टल के पिछवाडे की दीवार पर बेअदबी का सामूहिक अभ्यास करना. इनके अलावा सबकी अलग पहचान थी, सबके अलग मक़सद थे. मंडली में एक-दूसरे को नसीहत देने की सख्त मनाही थी. सिर्फ संकट ही सामूहिक मानी गयी थी, बाकी सबकुछ निजी. कोई पढ़े, न पढ़े अपनी बला से.  

मिन्टो हॉस्टल में आना मेरे लिए वास्तव में वरदान साबित हुआ. मेरी मंडली के ज़्यादातर सदस्य मिन्टो हॉस्टल में आने से कतराते थे, क्योंकि वे मानते थे कि इस हॉस्टल में रहनेवाले छात्र मर्दानगी के मामले में थोड़े कमज़ोर होते हैं. लेकिन सच यह है कि वे कतराते नहीं, घबराते थे कि कहीं कोई पढाई-लिखाई की बात न छेड़ दे. खुदा न खास्ता अगर गोपाल बाबु मिल गए तो बेडा गर्क ही मानिए. नसीहत देना उनका शौक भी था और पेशा भी. उनके बारे में कोई कुछ भी कहे, वे वही कहते थे जो उनको किसी छात्र के लिए बेहतर लगता. खैर, मिन्टो हॉस्टल में आकर नए-नए लोगों से मेरे नए-नए रिश्ते बने. यहीं आकर मुझे क्रांतिकारी रुझान के  मार्क्सवादियों से मिलने का मौका मिला और यहीं आकर मेरी छवि लोफर के बजाय एक मेधावी छात्र की बनी. हॉस्टल के वरिष्ठ अन्तेवासी भी मुझे तवज्जो देते क्योंकि मैं अपने बिंदास अंदाज़ और हंसोड़ प्रकृति की वज़ह से हमेशा सामूहिक चर्चा का केंद्र बना रहता था. मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि अन्तेवासियों के बीच जाति के आधार पर कोई ख़ास खेमाबन्दी थी. दरअसल, जाति के सवाल को वही छात्र ज्यादा प्रचारित-प्रसारित करते थे जिनका छात्र के रूप में कोई खास वजूद नहीं होता था. मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जो छात्र अपनी-अपनी जाति के नेता थे या बिना होते हुए मेरी तरह मान लिए गए थे, वे वास्तव में उम्दा इंसान थे. उनमें मेरे कई ऐसे दोस्त थे जो अपनी इस नियति पर कल भी हंसते थे और आज भी हंसते हैं.  

(अगले अंकों में मैं आपको हॉस्टल से निकालकर पटना कॉलेज और उसके आस-पास के मुख्य सरकारों से परिचित करवाने की कोशिश करूंगा. तबतक के लिए धीरज रखिये,)

वीरेन्द्र

 
   

Monday, April 27, 2009

बिहार विमर्श - 7 : अथ स्कूल कथा : उडी जहाज को पंछी फिर जहाज पै आवै

उडी जहाज को पंछी, फिर जहाज पै आवै 

आलेख - वीरेन्द्र 


'अथ स्कूल कथा' के नाम से जो संस्मरण लेकर मैं आपके सामने उपस्थित हुआ था, वह खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है. प्राईमरी स्कूल के बारे में तो जैसे-तैसे बात पूरी हो गयी है, किन्तु हाई स्कूल की चर्चा में अभी भी बहुत कुछ बाकी है. दरअसल, आरा का हरप्रसाद दास जैन स्कूल मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ था जिसकी चर्चा किये बगैर मेरे लिए यह बताना संभव नहीं हो पायेगा कि स्कूल हमारे जीवन में इतने महत्वपूर्ण क्यों माने गए हैं. 

सन् 1974 में राष्ट्रीय ग्रामीण छात्रवृति प्रतियोगिता में जैसे ही मेरा चयन हुआ, वैसे ही यह तय हो गया कि अब हाई स्कूल की पढाई के लिए मुझे अपना गाँव छोड़ना होगा. वैसे तो इस प्रतियोगिता का सफल छात्र जिले की तीन चयनित स्कूलों में से किसी भी स्कूल में दाखिला ले सकता था, किन्तु जैन स्कूल की बात ही कुछ और थी. इस स्कूल में पिछले 5 वर्षों में किसी भी छात्र को द्वितीय श्रेणी नहीं मिली थी और न ही कोई बोर्ड की परीक्षा में असफल हुआ था. यानी, सफलता का महाकुंड.

स्कूल के बारे इतना जानना ही काफी था, इसलिए बिना विलंब किये मैं अपने बड़े भाई के साथ आरा के जैन स्कूल में दाखिला लेने आरा आ गया. बड़ा भाई तब पटना कॉलेज में  पढ़ते थे  और सामान्य छात्रों की तुलना में ज्यादा स्मार्ट दिखते थे .  गाँव से चला तो मन में एक अजीब उत्साह था, किन्तु दाखिला लेते ही उत्साह की जगह निराशा ने मन में डेरा ड़ाल दिया. दाखिले के बाद बड़ा भाई पटना लौट गया और मैं स्कूल के हॉस्टल में. चूंकि यह मेरा पहला दिन था, इसलिए मुझे स्कूल के क्लासेज़ अटेंड नहीं करने पड़े. उल्टे, प्राचार्य ने एक चपरासी के साथ मुझे हॉस्टल में भेज दिया. वार्डेन थे रमाकांत जी - हिंदी के मर्मज्ञ विद्वान् और अनुशासन के पक्के. एक बही पर मेरा नाम लिखने के बाद उनने कहा कि कल से मुझे भी सही समय पर स्कूल जाना होगा; कि आज मुझे एक बीमार अन्तेवासी के साथ दिन भर हॉस्टल में ही रहना होगा.

न तो मैंने अबतक इतना बड़ा स्कूल देखा था और न ही हॉस्टल जैसा सुन्दर भवन. हमारा हॉस्टल आरा के ऐतिहासिक रमना मैदान के दक्षिण-पूर्वी कोने पर, शहीद भवन के ठीक सामने बना था. यह आरा के किसी पुराने रईस की हवेली थी जिसे स्कूल ने किराये पर उठा लिया था. यूं तो किसी शहर में यह मेरा पहला दिन था, किन्तु मुझे वहां कुछ भी आकर्षक नहीं लग रहा था. मन में कई-कई तरह के ख़याल उमड़-घूमड़ रहे थे. गाँव-घर, साथी-संगी, घर-परिवार को याद करके मन दुखी हो रहा था. आँखों से बरबस आंसू निकले पड़ते थे. कि तभी दोपहर के दो बजे, और मैं हॉस्टल की खिड़की से बाहर देखने लगा. अचानक मुखे शहीद भवन के परिसर में योगीन्द्र बस खड़ी दीखी. यानी, डूबते को तिनके का सहारा. यह बस शाम में आरा से सन्देश जाती थी और सुबह में सन्देश से आरा आती थी. मैंने फ़ौरन फैसला कर लिया कि चार बजने से पहले मैं हॉस्टल से भागकर बस में सवार हो जाऊंगा. भाई पटना वापस लौट गए थे और गाँव में मां के अलावा कोई पूछताछ करनेवाला भी नहीं था. यानी, खुद ही भयो कोतवाल, अब डर काहे का. इधर तीन सवा तीन बजे का समय हुआ और उधर मैं अपनी गठरी लेकर फुर्र. जा पहुंचा योगीन्द्र बस में. विजय जो उस बस का कंडक्टर हुआ करता था, वह मेरे गाँव के सभी लोगों को जानता था. मैंने खतरा महसूस किया कि हो न हो यह आदमी मेरे किये-कराये पर पानी फेर देगा. मैं उससे तबतक आंखमिचौली करता रहा जबतक बस ने खुलने से पहले की अंतिम सिटी नहीं बजा दी. फिर बड़े इत्मीनान से पीछे की एक सीट पर जा बैठा और शाम होते-होते अपने गाँव अह्पुरा पहुँच गया. 

मां ने इतनी जल्दी लौट आने का कारण पूछा तो मैंने कह दिया कि स्कूल एक हफ्ते के लिए बंद हो गया है. यह एक हफ्ता बढ़ते-बढ़ते कब और कैसे पांच महीने के बराबर हो गया, पता ही नहीं चला. स्कूल से गायब हुए मुझे अब पांच महीने हो गए थे. छमाही परीक्षा की तिथियाँ घोषित हुईं और एक दिन स्कूल का वही चपरासी जो मुझे स्कूल से हॉस्टल लेकर आया था, प्राचार्य का सम्मन-पत्र लिए मेरे गाँव आ धमका. उसका नाम रामपुकार था और वह शरीर से काफी कट्ठा -कट्ठा भी था. उसने मां को सबकुछ बता दिया. जीवन में शायद पहली दफा मां से मुझे तभी डांट खानी पड़ी थी. इस तरह मैं एकबार फिर उसी जहाज पर आ गया जिसे छोड़कर फुर्र हुआ था. 

छमाही की परीक्षाएं एक हफ्ते बाद होनी थीं और मेरे पास अभीतक सभी किताबें भी नहीं थी. मन एक अजीब अपराध-बोध से पीड़ित था. डर लगने लगा कि कहीं परीक्षा में फेल न हो जाऊं. समय इतना कम था कि चाहकर भी सभी विषयों की तैयारी संभव नहीं थी. गणित, रसायनशास्त्र और भौतिकी की किताबें कहीं से भी पल्ले नहीं पड़ रही थीं. यानी करिया अच्छर भैंस बराबर. लेकिन अब उपाय ही क्या था? परीक्षाएं शुरू हुईं और जैसे-तैसे मैंने भी उसमें अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली. जो परिणाम निकला, वह चौंकानेवाला नहीं था, अपितु डरानेवाला था. विज्ञान और गणित में इतने कम अंक आये थे कि मैं उसे किसी भी सूरत में अपनेभाईअथवा पिताजी को नहीं दिखा सकता था. अब बता दूं कि इन विषयों में मेरे अंक वितरण कैसे थे. गणित के प्रथम पत्र जिसमें सिर्फ अंकगणित के प्रश्न होते थे, मैं खींच-खांचकर 100 में से 30 अंक प्राप्त करने में सफल हो गया. लेकिन, ऊच्च गणित, रसायनशास्त्र और भौतिकी में शून्य से ही संतोष करना पड़ा. वर्ग शिक्षक ने मेरी प्रगति रिपोर्ट पर टिपण्णी जड़ दी थी कि मैं विज्ञान की पढाई नहीं कर सकता; कि अगले वर्ष मुझे कला संकाय में ही पढ़ना होगा. सिर्फ ईश्वर जानता है कि मैं उस दिन कितना रोया था. रात भर नींद नहीं आयी, रात भर यही सोचता रहा कि अब मां, पिताजी, भाई तथा संगी-साथियों को अपना मुहं कैसे दिखाऊंगा. इलाके में शोर था कि पहलवान साहब का यह बेटा एक दिन जरूर उनका नाम रौशन करेगा. लेकिन, होनी को कौन टाल सकता है! खैर, मैंने उनकी नाक नहीं कटने दी और बाएँ हाथ से प्रगति रिपोर्ट पर पिताजी का नाम लिखकर स्कूल में जमा कर दिया. रिजल्ट देखकर मन इतना दुखी था कि किसी से बात करने की भी ईच्छा नहीं हो रही थी.

स्कूल की छुट्टी हुई और मैं अपने बेड पर आकर निढाल हो गया. मेरे बेड से सटा हुआ बेड जिस लडके का था, उसका नाम अनुग्रह था. उसके व्यक्तित्व में एक अजब तरह की रवानी थी. उसके कपडे-लत्ते देखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता था कि वह गुदरी का लाल है. पूरे हॉस्टल में वह एकमात्र ऐसा छात्र था जिसे किसी ने कभी उदास नहीं देखा. उसमें हंसने-हँसाने की अद्भूत काबिलियत थी. लेकिन जो चीज उसके व्यक्तित्व को ईश्वरीय आभा प्रदान करती थी, वह थी उसकी संवेदनशीलता. उसने ताड़ लिया कि मैं बहुत दुखी हूँ; कि मुझे एक अदद साथी की ज़रुरत है. उसने चुहल भरे अंदाज़ में पूछा, "क्या हुआ? किसी ने तुम्हारी पिटाई तो नहीं कर दी? चलो, साले की अभी और यहीं ऐसी-तैसी कर दूं." उसकी बातें मुझे इतनी बचकानी लगीं कि मैं अनायास हंस पड़ा. वह भी खिलखिलाने लगा. बिना देर किये मैं पूछ बैठा कि क्या मैं सचमुच विज्ञान नहीं पढ़ सकता? उसके होंठों पर एक स्मित मुस्कान खिल उठी. उसकी इस निर्मल हंसी ने मेरे मन की पीडा हर ली. ढांढस बंधाते हुए उसने सहज लहजे में कहा, "तुम्हें ऐसा क्यों लगता है? विज्ञान पढ़ने से ज्यादा आसान कोई चीज नहीं होती. अबतक जितनी पढाई हो चुकी है, उसे मैं तुम्हें एक हफ्ते में पढा दूंगा." अचानक मेरा मन भी निर्मल हो गया. मैंने मन ही मन ठान लिया की अब पढूंगा तो विज्ञान ही, वरना कुछ नहीं. शुरुआत हुई उच्च गणित से. अनुग्रह ने मुझे दो अध्याय पढाया. मुझे लगने लगा कि गणित कोई मुश्किल काम नहीं है. वास्तव में मैं इतना उत्प्रेरित हो गया कि रात में सोने के बजे मैं उच्च गणित के सवाल हल करने लगा. सुबह चार बजे तक मैं पूरी किताब ख़त्म हो गयी. इसी तरह मैंने रसायनशास्त्र, भौतिकी और अंकगणित किताबें भी हल कर डाली. नतीजा चौंकानेवाला साबित हुआ. सालाना इम्तहान में मुझे गणित सहित विज्ञान के सभी विषयों में अव्वल अंक मिले और मैं अपनी कक्षा में द्वितीय स्थान प्राप्त कर सका. इतना आत्मविश्वास मेरे जीवन में दुबारा कभी नहीं आया. धन्य है वह मित्र और धन्य वह स्कूल! सोचता हूँ कि अगर रामपुकार मुझे गाँव से पकड़कर दुबारा स्कूल में नहीं लाया होता और स्कूल में अनुग्रह जैसा दोस्त न मिला होता तो मैं क्या होता? 

आज जब पलटकर पीछे के जीवन को याद करता हूँ तो लगता है कि अनुग्रह सिर्फ मेरी सहायता के लिए जैन स्कूल आरा में आया था. वह मेधावी था, किन्तु अत्यंत गरीब भी था. नवीं कक्षा में उसकी शादी हुई. हॉस्टल के दोस्तों में मैं अकेला था जो उसकी शादी में शरीक हुआ था. बनाही स्टेशन से करीब तीन मील पश्चिम उसका गाँव था. वह जाति का कुम्हार था और उसके पिता गाँव के दूसरे खेतिहर किसान की बनिहारी करते थे. मुझे आज भी वह दृश्य याद है जब मैं अनुग्रह के साथ उसके गाँव पहुंचा था. उसके पिता ने खड़े होकर मेरी आवभगत की थी और अपनी बेटी को सख्त हिदायत दी थी कि मेरे लिए अलग से स्वादिष्ट खाना पकाए. मैं इस स्वागत से विभोर था. मैंने पूरी विनम्रता से उनके इस आदेश को नामंजूर कर दिया और जिद्द कर बैठा कि मैं भी वही खाऊँगा जो सभी खायेंगे. शादी का घर और भोजन के रूप में सत्तू का आहार! सच ही, गरीबी क्या जाने कि उत्सव! अब मैं पक्के यकीन के साथ कह सकता हूँ कि कृष्ण को विदूर की साग-रोटी क्यों अच्छी लगती होगी. स्कूल की पढाई तो अनुग्रह ने जैसे-तैसे पूरी कर ली, किन्तु गरीबी ने उसे कॉलेज की पढाई नहीं करने दी. प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा उतीर्ण की थी उसने और उसे अंक भी अच्चे भले मिले थे.

बाद में पता चला कि वह एयर फोर्स में सिपाही हो गया है. स्कूल छोड़ने के बाद सिर्फ एकबार ही मैं उससे मिल सका. वह भी आरा स्टेशन पर. मैंने जिद्द कर डाली और उसके साथ तीन दिनों के लिए उसके गाँव पहुँच गया. तबतक उसके घर की गरीबी ढह चुकी थी और घर में नए जीवन का संचार हो चूका था. उसकी पत्नी रमावती एक कुशल गृहणी के रूप में उसके दो बच्चों (एक बेटा, एक बेटी) की बड़े अच्छे ढंग से परवरिश कर रही थी और पिता ने बनिहारी छोड़कर गाँव में ही नून-तेल की दूकान खोल ली थी.

काश, कभी फिर मिलना हो उससे!

यह कृष्ण-सुदामा की दोस्ती नहीं थी, बल्कि दो सुदामाओं की दोस्ती थी.

खुदा उसे और उसकी निर्मल हंसी को सलामत रखे. 


('अथ स्कूल कथा' की अगली तीन कडियाँ क्रमशः मित्र कौशल के सिपुर्द की जाएँगी  वे उन्हें अपने ब्लॉग पर बिठाते रहेंगे. तबतक के लिए खुदा हाफिज़.)

वीरेन्द्र 


Saturday, April 25, 2009

बिहार विमर्श : 6 : पटना कॉलेज के शुरूआती अनुभव

वीरेन्द्र पटना कॉलेज में दाखिले के बाद के शुरूआती अनुभव बता रहें हैं .पढें और इस विमर्श को आगे बढायें. 

'अथ स्कूल कथा' से आगे की दास्तां पहले छपरा और बाद में पटना में शुरू हुई. स्कूल की पढाई पूरी करने के बाद मैं पहले छपरा गया जहाँ के नामी-गिरामी राजेंद्र कॉलेज में मेरे बड़े भाई की नियुक्ति व्याख्याता के पद पर हुई थी. आर्थिक तंगी और पारिवारिक खर्चे में क़तर-ब्योंत की मजबूरी ही मुझे छपरा ले आई थी, वरना ईच्छा तो मेरी शुरू से ही पटना के साइंस अथवा पटना कॉलेज में पढ़ने की थी. खैर, छपरा कई कारणों से मेरी रूचि का केंद्र नहीं बन सका और इसीलिए वहां के अनुभवों का न तो मेरे पास कोई मुकम्मल फेहरिस्त है और न ही कोई ऐसी मिसाल जिसका ज़िक्र करना मुझे लाजिमी लगे. जैसे-तैसे करके दो साल गुज़र गए और मैं विज्ञानं में इंटर की डिग्री हासिल करने में सफल हो गया. अलबत्ता, इन दो सालों में मेरा कायाकल्प हो गया था. स्कूल में मैं विज्ञान का एक मेधावी छात्र हुआ करता था, किन्तु छपरा प्रवास के दौरान यही मेधा सबसे ज्यादा कुन्द हुई. अब मैं चाहकर भी इंजिनियर बनने का ख्वाब नहीं पाल सकता था. ले-देकर मेरे सामने एक ही विकल्प रह गया था कि किसी तरह पटना कॉलेज में नामांकन लूं और प्रशासनिक सेवा में जाने की भरपूर कोशिश करुँ.

और इस तरह मैं सन् १९८१ में समाजशास्त्र के छात्र के रूप में पटना के पटना कॉलेज में दाखिल हो गया. बता दूं की पटना कॉलेज मेरे लिए कतई अजाना नहीं था. मेरे बड़े भाई इसी कॉलेज से राजनीतिशास्त्र में सन् १९७८ में ही स्नातक हो चुके थे. इसके अलावा, भैया के कई दोस्तों के छोटे भाई भी तबतक पटना कॉलेज में दाखिला ले चुके थे. गरज फ़क़त इतनी है कि पटना कॉलेज में आते ही मुझे विरासत के रूप में पूरा का पूरा कुनबा हासिल हो गया था. चूंकि मसाला कुनबे का था, इसलिए उसमें किसी गैर-जातीय की उपस्थिति लगभग गायब थी. अलबत्ता, एक-दो ऐसे परिचित भी थे जो मेरी जाति के नहीं थे. खैर, इस मंडली के निर्माण में मेरी कोई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भागीदारी नहीं थी और इसीलिए मुझे न तो उसका मलाल था, न ही फक्र. मेरे लिए उनके लिए, सबके लिए ऐसी मित्र-मंडलियाँ प्रकारांतर से सुरक्षा कवच मुहय्या कराने का भ्रम पैदा कराती थीं.

अजब न होगा अगर कहूं कि पटना कॉलेज मेरे लिए अपने टूटे-अधटूटे सपनों को फिर से जोड़ने का एक अदद मुकाम बनकर आया था. सुनते आया था कि पटना कॉलेज से स्नात्तक की डिग्री कोई मामूली चीज़ नहीं होती, क्योंकि यह कॉलेज बिहार का ऑक्सफोर्ड माना जाता था. कॉलेज में दाखिला लेने के साथ ही छात्रावास में कमरा पाने की ललक और ज़रुरत सामने आन पड़ी. इंटर में मुझे जितने अंक मिले थे, उसके आधार पर मुझे आसानी से जैक्सन अथवा मिन्टो हॉस्टल मिल जाता, किन्तु ऐसा हो न सका. मिन्टो हॉस्टल के वार्डेन गोपाल बाबु ने सुझाया कि पहले मैं न्यू हॉस्टल में दाखिला ले लूं; फिर एक-दो महीने बाद वे मिन्टो हॉस्टल में मेरी भर्ती कर लेंगे. न्यू हॉस्टल तबतक बैकवर्ड -फारवर्ड संघर्ष का केंद्र बन चूका था. वहां रहनेवाले छात्र पढाई के लिए कम और लडाई के लिए ज्यादा जाने जाते थे. मुझसे भी कहा गया कि मैं आग में न कुदूं. लेकिन न कूदता तो रहता कहाँ? वैसे मेरे रहने के लिए मंडली के पास फोकटिया व्यवस्था मौजूद थी. जैक्सन हॉस्टल का तीन कमरों का आउट हाउस मित्र-मंडली के कब्जे में विगत कई सालों से था. कब्ज़ा जमाने में चूंकि मेरे बड़े भाई का भी यथेष्ठ योगदान था, इसलिए मेरी उपस्थिति किसी को नागवार नहीं गुज़रती. इसके अलावा, न्यू हॉस्टल का पांच कमरों का आउट हाउस भी मेरे कुनबे के पास था. फिर भी, मैं चाहता था कि मैं अलग रहूँ. यही सोचकर मैं अस्थायी रहवासी के तौर पर न्यू हॉस्टल में जाने के लिए तैयार हो गया.

तैयार तो हो गया लेकिन हॉस्टल में प्रवेश पाने के लिए इतना काफी नहीं था. कहा गया कि बेहतर यही होगा कि जो कमरा मुझे आवंटित किया गया है, उसके पुराने रहवासियों की पूर्व-सहमति ले लूं ताकि बाद में पछताना नहीं पड़े. शाम के वक़्त मैं अपने एक साथी के साथ अपने आवंटित कमरे के एक पुराने रहवासी से मिला और फरियाद की कि मुझे तत्काल रहने की ईजाज़त दी जाये. जी हाँ, उनका नाम योगीन्द्र सर था और वे भी राजपूत थे. फॉरवर्ड ब्लाक में उनकी तूती बोलती थी, उनके कृपापात्र हुए बगैर किसी की औकात नहीं थी कि वह हॉस्टल में रहवासी बन सके. उनने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और पूछा कि क्या मुझे किसी ने बताया नहीं कि उनके कमरे में अब कोई ज़गह नहीं है. प्रत्युत्तर में मैंने कहा कि आपका कमरा तो चार छात्रों के लिए है और अभी उसमें सिर्फ दो ही हैं. मेरी बेवकूफी पर वे ठठाकर हंस पड़े और पूरे मसले को अपने मित्र के हवाले कर दिया. पहला करेला, दूजा नीम और दोनों के बीच दांत काटे की रोटी का रिश्ता. उनके मित्र ने साफ शब्दों में कह दिया कि इस कमरे में तो वे सिर्फ दो ही रहेंगे और मैं किसी और कमरे में अपना इन्तेजाम कर लूं. मेरी सूरत देखने लायक थी. लेकिन मेरी मंडली के मित्र के चहरे पर कोई शिकन नहीं आयी. उसने चलते हुए सिर्फ इतना कहा कि ठीक है, हम शाम में फिर आयेंगे.

दरअसल, मुझसे एक गलती हो गयी थी. छूटते ही मुझे बता देना चाहिए था कि मैं भी एक ठाकुर हूँ और मेरी भी यहाँ एक मंडली है. शाम को मैं राजेंद्र भैया के साथ फिर न्यू हॉस्टल पहुंचा और सीधे अपने आवंटित कमरे के दरवाज़े पर दस्तक दे दी. योगीन्द्र सर कमरे से बाहर निकले और अनिद्रा में ही राजेंद्र भैया को देखकर ठिठक गए. राजेंद्र भैया ने मुझसे कहा कि मैं इस कमरे के पुराने रहवासियों के सामान निकाल कर बाहर फ़ेंक दूं और अपना बोरिया बिस्तर किसी एक बेड पर लगा लूं. योगीन्द्र सर को शुरू में इस जवाबी हमले की उम्मीद नहीं थी. वे गिरगिराने लगे और कहने लगे कि मैं कितना भोला हूँ; यह भी न बताया कि मैं राजेंद्र भैया का करीबी हूँ. इत्तेफाक देखिये कि हॉस्टल में आते ही मैं मशहूर हो गया. कानों कान खबर फैल गयी कि मैं कोई मामूली शख्स नहीं हूँ, कि मुझसे पंगा लेना खतरे से खाली नहीं होगा. बिन चाहे, लम्पटों की ज़मात का सिरमौर मान लिया गया. ऊपर से तुर्रा यह कि न्यू हॉस्टल में दाखिला लेनेवालों में मेरे अंक सबसे ज्यादा थे, सो मैं हॉस्टल का आधिकारिक बॉस भी बना दिया गया. यानी, दो नावों पर सवारी करने का जोखम.

बाद के दिनों में योगीन्द्र सर मेरे सबसे बड़े शुभचिंतक साबित हुए. उन्हीं की सोहबत में मैं न्यू हॉस्टल के पिछवाडे की टूटी दीवारों पर बैठकर शाम का वक़्त गुजारता, गणेश दत्त हॉस्टल से आनेवाली और जानेवाली लड़कियों को लालची निगाहों से निहारता. वक़्त-बे-वक़्त उन लड़कियों को हम बड़ी बेअदबी से भाभी का संबोधन देते और अगर वे इस संबोधन पर गुस्सा करतीं तो हम उनकी ऐसी-तैसी करने में भी कोई गुरेज़ नहीं करते. नतीजा यह हुआ कि लड़कियों से दोस्ती की संभावना सदा-सदा के लिए निर्मूल हो गयी. योगीन्द्र सर मेरे हनुमान थे और बिन बुलाए मेरी ओर से किसी के साथ लम्पटई करने पर उतारू हो जाते थे. वे जानते थे कि मेरी दिलचस्पी पढाई में है, सो वे पूरी कोशिश करते कि कोई मुझे किसी तरह पढ़ने में बाधा न पहुंचाए. यहाँ राज़ की एक बात और बता दूं. योगीन्द्र सर अपने जुराब में हमेशा चिलम छुपाये रखते थे और कमीज़ के पॉकेट में गांजे की पुडिया. सबसे पहले मैंने गांजा उन्हीं के साथ पी थी. कभी-कभी वे मुझे शराब भी पिलाते थे लेकिन इस हिदायत के साथ कि शराब पीना अच्छे विद्यार्थी के लिए अच्छी बात नहीं होती. मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि योगीन्द्र सर से ज्यादा मुहंफट और बेअदबी आदमी मैंने आजतक नहीं देखा है. जिस विश्वास के साथ वे लड़कियों को गाली दे लेते थे, हाथापाई करने पर उतारू हो जाते थे वह सबके बूते की बात नहीं थी. वे मानते थे कि अगर लड़कियाँ कॉलेज में पढ़ेंगी तो लडके छेड़खानी करेंगे ही. 

आज इतना ही. पटना कॉलेज के अनुभव, क्या कहिये, हरि अनंत हरि कथा अनंता. आगे की कड़ी का इंतज़ार आपकी तरह मुझे भी रहेगा. तबतक के लिए इसी से संतोष करें.

वीरेन्द्र 

Friday, April 24, 2009

चल रे मन कहीं और चल .

चल रे मन कहीं और चल
ले चल मुझे सावन के फुन्हारों के बीच
पूर्वा हवा और सफ़ेद दीवाल बना ,
आता हुआ बारिस का झोंका .
कुएं के पास की दीवाल पर चढ़ ,
पेड़ के पके अमरुद के पास
कि झट पट खायूँ ,
उतरूं और भागूं घर की ओर .
बारिस से बचते - बचाते हुए .

चल रे मन , कहीं और चल
भादो - आसीन के धान के खेतों से गुजरते रास्तों पर चल .
गदराते धान के खेत ,
और उससे गुजरती आरियों पर ,
साफ़ पानी से भरे हुए धान के खेत ,
पयीन ,अहरी और उसमें स्वछन्द तैरती अनगिनत छोटी मछलियों के बीच
पकड़ने दे उन्हें अपनी नन्हीं अँगुलियों से .

चल रे मन कहीं और चल
फगुनाहट की मस्त हवा ,
रस्ते के बगीचे में
आम के मंजर की भीनी खुसबू
पेडों पर कूकती कोयल
माँ के संग कहानी सुनते सुनते स्कूल जाते हुए

चल रे मन कहीं और चल .
दादी के साथ
चाँदनी रात में गाते - खाते हुए
गंगा मईया के गीतों को सुनते - सोते हुए .
चल रे मन कहीं और चल
.

Saturday, April 18, 2009

मेरे हमउम्र मुस्लिम लड़के कहाँ थे ?

 

1970 से लेकर 1990-91 तक के मेरे विद्यार्थी काल में मेरे हम उम्र मुस्लिम लड़के कहाँ थे ?

मेरा यह मानना है के अगर समाज अपनी बुनावट में सतरंगी है तो सातो रंग , हर सामाजिक इकाई में दिखें ,यही स्वाभाविक कहा जायेगा . और अगर मेरी इस मान्यता को सुधी और गुणी जन सही मानते हैं तो यह प्रश्न वाजिब है की अपने दौर के उस जमात के लड़कों की खोज की जाय .

मेरी पैदाईस जिस गाँव में हुई वह सन 1947 के पहले मुस्लिम बहुल गाँव था . 
1946 के सितम्बर महीने में यूं तो पूरे देश में सांप्रदायिक राजनीति , घृणा और दंगे पूरे उफान पर था पर बिहार का मगध क्षेत्र ख़ास कर पटना और बिहार शरीफ का इलाका धू - धू कर जल रहा था .बिहार के इस इलाके में साम्प्रदायिकता की आग को फौरी तौर पर मुस्लिम लीग के द्वारा प्रायोजित डायरेक्ट एक्शन डे और कलकत्ता और नोआखाली के दंगों की प्रतिक्रिया लोग बाग कहते रहे हैं .खैर कारण जो भी रहें हों उन दंगों ने इस इलाके के सांस्कृतिक भूगोल और सामजिक ताने बाने को पूरी तौर से बदल दिया .मुस्लिम गाँव लुटे और जलाए गए . सामूहिक नरसंहार की स्मृतियाँ आज भी पटना और नालंदा जिले के सामुदायिक स्मृति में कायम है.

ग्रामीण जन आज भी काल गणना के लिए तीन सन्दर्भों का उपयोग करते हैं- १९३४ का भूकम्प - भुईआं डोल , सितम्बर 1946 का दंगा - राईट या मियाँ मारी और 1966 का अकाल - सुखाड़ . मेरा गाँव उस पुरे इलाके के चंद गाँव में से एक था जहां बाहरी लोग लूट मार करने में सफल नहीं हो पाए. बाद में शांति बहाल होने पर इलाके की मुस्लिम जनता गाँव को छोड़ कर शहरों - बिहारशरीफ, हिलसा , इस्लाम पुर ,पटना / पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान का रुख कर गयी.मुसलमानों के घर और खेत को लोग खरीदने और हथियाने लगे . 

मेरा गाँव भी मुस्लिम परिवारों से खाली होने लगा .मेरे होश में गाँव में दो तीन घर ही मुसलमान बचे थे.एक मेरे पडोसी मूसा मियाँ का परिवार .मुसा मियां घर के सामने की मस्जिद में अजान देते थे और इलाके भर के लिए झाड़ फूँक का काम भी करते थे . साईं के तौर पर फसल कटाई के समय खेत खेत घूमते थे ,किसान श्रधा पूर्वक फसल का कुछ हिस्सा दे देते थे. रोजी रोटी का बाकी मसला परचून की एक दूकान और बीडी बना कर चलाते थे.
मूसा मियाँ मेरे उर्दू शिक्षक भी थे. मैं और मेरे हम उम्र उनका लडक इसा एक साथ उर्दू पढ़ते थे. इसा मेरे साथ पांचवी छठी तक हीं पढा ,बाद में वह कम उम्र में सिलाई का काम सिखाने के लिए अपने बड़े भाई के पास मसौढी चला गया .

मां के स्कूल से सातवीं पास कर मैं पटना कौलेजीअट स्कूल आ गया . १९७५ में कौलेजीअट स्कूल में सौ डेढ़ सौ छात्रों में , जहां तक स्मरण है तीन चार मुस्लिम लडके भी नहीं थे .

बाद में नैनीताल के आवासीय विद्यालय में एक गोरखपुर का मुस्लिम सहपाठी से मुलाकात हुई .खुर्शीद अहमद रिजवी . उसने दसवीं क्लास में एक नाटक लिखा था . मेरे हाउस मास्टर की प्रेरणा से उस नाटक का स्कूल ऑडिटोरियम में सफल मंचन हुआ था . रिजवी दसवीं के बाद स्कूल से वापस गोरखपुर चला गया . पूरे स्कूल में 550 छात्रों में बीस पच्चीस मुस्लिम छात्र थे . उसमें भी ज्यादा तर बिहार के .बाबर सुलतान , जो गया का रहने वाला था , 1982 में अपनी प्रतिभा के बदौलत स्कूल का हेड बॉय बना .

थोडा और आगे चलते हैं दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज और खास कर होटल में - हॉस्टल के 175 छात्रों में एक भी मुसलमान नहीं .जहाँ तक स्मरण है इकोनोमिक्स ओनर्स के क्लास में एक भी मुसलमान नहीं छात्र या छात्र नहीं . चलिए थोडा और आगे बढा जाय .
 दिल्ली विश्वविद्यालय का दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स -
एम् ए अर्थशाश्त्र में हम सब कुल १५० छात्र छात्राएं .पर एक भी मुसलमान नहीं . उसके बाद फिर जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में जाना हुआ और वहाँ मुस्लिम छात्रों की अछि तायदाद थी . पर वहाँ भी ज्यादा संख्या में उर्दू फारसी और अरबी पढ़ने वाले. और अधिकतर बरास्ता अलीगढ विश्वविद्यालय , जे एन यू पहुंचे थे.

पंद्रह - सत्रह सालों के इस सफ़र में इस तरह चंद मुस्लिम सहपाठी मिले.

जानने का मन करता है के इस मजहबी जमात के मेरे हमउमर कहाँ थे और क्या कर रहे थे ?

Friday, April 17, 2009

बहुत कठिन थी डगर पनघट की

सुजीत चौधरी : अपने नए संपादित पोस्ट में मित्र सुजीत पटना शहर और कॉलेज के शुरुयाती अनुभव को विस्तार से बता रहें हैं.बातें आप बीती हैं पर जमाने के दर्द और हसरतों को समेटे हुए.

( मित्र कौशल ने बिहारी विद्यार्थियों के दिल्ली जाने के शुरुआती दौर , उस समय के बिहार के (खासकर पटना के) कॉलेज और पटना विश्वविद्यालय की स्थिति और विशिस्ट सामाजिक - आर्थिक और राजनीतिक कारणों की चर्चा कर एक विचार-विमर्श का प्रारंभ किया है. मैंने भी पटना में स्नातक की पढ़ाई की है इसीलिये कौशल जी ने मेरे अनुभवों को पोस्ट करने को कहा. मैं अपने B. N. College के अनुभवों को लिख रहा हूँ. )


मैंने १९८१ में रांची से intermediate (विज्ञान) किया . उसी दौरान मेरी रूचि सामाजिक विज्ञान की और बढ़ी और समाजशास्त्र (sociology) पदने के लिए पटना गया. सच कहूं तो मुझे रांची छोड़ना था और मैंने ऐसा विषय चुना जिसकी पढाई रांची विश्वविद्यालय में नहीं थी. पटना में सिर्फ एक ही करीबी दोस्त था जो बिहार इंजीनियरिंग कॉलेज में mechanical इंजीनियरिंग पढ़ रहा था. उसने उसी समय admission लिया था और मुस्सलह पुर हाट के एक लौज में रहता था. मेरा दोस्त पटना में दो साल गुजार चुका था क्योंकि वह मुझसे सीनियर था और I.Sc. की पढ़ाई उसने साइंस कॉलेज से की थी हालाँकि वह लौज में ही रहता था. उसने मुझे पटना दिखाया -घुमाया. अशोक राजपथ, बोरिंग कैनाल रोड, , गाँधी मैदान, गोल घर, गंगा घाट, सिनेमा घर, आदि आदि.
गाँधी मैदान का एक खास आकर्षण था : रोज़ शाम को एक आदमी अपना मजमा लगता था. उसके चारो तरफ हरेक उम्र के लोग कौतुहल और विमुग्ध होकर उसकी बातें सुनते थे. वह काफी हँसता -हँसाता था . वह एक खास नुस्खे की दवा बेचता था : योन शक्ति बढ़ने की दवा. उसका दावा था की उस दवा के ताकत से बूढा अधमरा व्यक्ति भी खटिया तोड़ सकता है. हमें तो उस दवा की जरूरत तो थी नहीं, जरूरत थी उस योंन मायालोक के तिलस्मी मनोरंजन की .
कभी-कभी हम नाश्ते के लिए अशोक राजपथ जाते थे. हम collegiate गली के समोसे और जलेबा (जलेबी स्त्रीलिंग तो जलेबा अपनी विराटता के लिए जलेबा) के मुरीद थे. वहां विद्यार्थियों का हुजूम लगा रहता था खासकर पटना में कोचिंग लेने वाले विद्यार्थ्यीयों से. उस वक्त कोचिंग स्कूल्स का व्यवसाय जोरों से शुरू हुआ था क्योंकि हमारे हमउम्र के विद्यार्थियों का और खासकर उनके अभिभावकों का सपना होता था : मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला. यह शिक्षा के व्यापक व्यवसायीकरण का शुरुआती दौर था.
पटना में उस समय B. A. का admission शुरू नहीं हुआ था. खैर एक दो महीने के बाद मेरे दोस्त को हॉस्टल मिल गया जो law college के पास था और मजबूरन मुझे भी उसके साथ वहां रहना पड़ा. हॉस्टल में आकर पता चला की वह हॉस्टल तथाकतित scheduled castes और Backward castes के लिए अनौपचारिक रूप से आरक्षित था. law college पर उसी तरह ऊँचे वर्णों का वर्चस्व था. धीरे धीरे जाति, जातिय समीकरण और छात्रालयों में उनकी प्रभुता या प्रभुत्व जमाने की होड़. मुझे पता चला की फॉरवर्ड जाति-वर्ग में राजपूत और भूमिहार के बीच नहीं पटती. संक्षिप्त में कहा जाये तो एक और राजपूत-भूमिहार के बीच का दरार और उससे उपजी हिंसा तो दूसरी तरफ फोर्वार्ड और बैक्वार्ड जातियों का उभरता हुआ ध्रुवीकरण.
मजे की बात यह की मेरा दोस्त Backward जाति का था और हम दोनों में जातिगत कोई भावना ही नहीं थी लेकिन उसने मुझे अपने हॉस्टल में 'Backward' घोषित कर दिया. मेरे survival के लिए यह एक मामूली सा समझौता था जो मुझे कभी अखरा भी नहीं और मेरा surname भी इतना सर्वव्यापी था की किसीको कोई शक नहीं हुआ. उस हॉस्टल के मुखिया थे वीर सिंह (नाम बदला है ) उसे मेरी ग़ज़लें पसंद थी . वह एक बुद्धिमान और प्रतिभाशाली विद्यार्थी था जो धीरे-धीरे जातिगत हिंसा के दलदल में फंसता जा रहा था. वर्तमान में मिलने वाला दबदबा उसकी हौसला-आफज़ाई कर रहा था. उसने एक दिन मुझे देसी तमंचा दिखाया और एक दिन जब सिर्फ हम दोनों अकेले थे तो उसने कहा मैं जानता हूँ तुम Backward नहीं हो लेकिन यह राज राज ही रहे. उसदिन के बाद मैं और मेरा दोस्त काफी सहमे रहते थे की किसी तरह मेरा राज न खुल जाए .
खैर थोड़े दिनों में मुझे B. N. college के हॉस्टल में दाखिला मिल गया. मैंने B. N. college में इस लिए दाखिला लिया था क्योंकि कुछ सीनियर विद्यार्थिओं के सुझाव के मुताबिक, वहां का sociology विभाग पटना college से बेहतर था. हॉस्टल काफी भब्य था बिलकुल college के पास. हॉस्टल के वार्डेन जो मेरे विभागाद्ययक्ष भी थे मेरे पिताजी को जानते थे और उन्होंने एक अच्छा (?) सा कमरा allot कर दिया. पहले ही दिन जब मैंने अपना सामान रखकर बड़े से गोदरेज ताले से कमरा बंद कर गाँधी मैदान जाकर और वहां की घास पर लेटकर वापस लौटा तो पाया की कमरे की चाभी गाँधी मैदान में खो गयी है. वापस मैदान में ढूँढने की कोशिश नाकाम रही. लाचार होकर सब्जी बाग़ गया और लोहा काटने का ब्लेड खरीदा और दो घंटे लगे , गोदरेज का ताला काटने में. हॉस्टल में मैं किसीको नहीं जानता था. दो-तीन बाद एक नया रूममेट आया , जाति का राजपूत, उद्दंड स्वाभाव और राजधानी के मौजूदा फैशन से कदम से कदम मिलाने वाला. हालाँकि, अपने क्लास में कुछ day scholars से मित्रता बढ़ी और अकेलापन कम होने लगा. मेस में कुछ और मित्र बने.
मेस में मैथिल बावर्ची और कर्मचारी थे. मेरे कमरे की खिड़की मेस की ओर खुलता था. अपना कम खतम कर वे गांजा -बीडी पीते और जोर जोर से बतियाते थे जो मेरे पोस्ट-लंच siesta में खलल डालता था. मेरी काफी झड़पे होती थीं. मेस का एक आकर्षण था : आलू का कुरकुरा ( छना हुआ ) भुंजिया , जो सभी काफी चटक से खाते थे. कुछ मित्र अपने साथ अचार और घी लाते थे . हाँ, एक चीज़ मेरी नज़र में पड़ी की कुछ खास लोगों के लिए खास खाना banta था और उन्हें रूम-सर्विस की सुविधा थी. कौन थे वे लोग ?

थोड़े दिनों में पता चला की हॉस्टल के तीन blocks तीन जाति वर्गों पर आधारित थे. एक ब्लाक पर राजपूतों का वर्चस्व था तो दुसरे पर भूमिहारों का कब्ज़ा. मेरा ब्लाक थोडा मिश्रित था तब पता चला वार्डेन ने मुझे उस ब्लाक में क्यों कमरा क्यों दिया.

हॉस्टल के पास अशोक राजपथ के कोने पर एक पान की दूकान था जहाँ राजपूतों का नेता खादी का कुरता पजामा पहन अपना अड्डा लगाता था. देखने में वह शालीन था और दाढी के कारण उसमे एक गाम्भीर्य था. मैंने सुना था कि वह रात में रिक्शा लेकर (बगल में ही रिक्शे वालों का पडाव था) और रिक्शा चालक के भेष में प्रिया सिनेमा जाता था और सिर्फ लड़कियों या कमउम्र महिलाओं को उनके घर छोड़ता था. सवारी करते करते वह शुद्ध हिंदी या अंग्रेजी में बातें करता. आश्चर्यचकित सवार हुई महिलाओं या लड़कियों से पूछे जाने पर बताता की वह एक गरीब विद्यार्थी है जो दिन में पदाई करता है और रात को रिक्सा चलाता है. यह दिल जीतने और दिलफरेबी का नायब नमूना था. मैंने यह भी सुना था की वह बुरका पहन सब्जी बाग के उस हिस्से में घूमता था जहाँ महिलाएं होती थीं.

हमारा कॉलेज co-ed नहीं होने के कारन 'हीन भावना' से ग्रस्त था जो विभिन्न रूपों में परिलक्षित होता था. कुछ लोग स्टुडेंट स्पेशल बसों में छेड़खानी करते या सड़क के पास फब्तियां कसते. होली जब करीब आती तो रिक्सा =बसों से सफ़र करती लड़कियों पर गुलाला भी फेंका जाता.

झुंड-मानशिकता से अलग एक और घटना याद आती है. मेरा एक दोस्त जो अंग्रेजी साहित्य का विद्यार्थी था , सेक्स से काफी obsessed था . वह गोविन्द मित्र रोड के पास एक lodge में रहता था. एकदिन सबेरे-सबेरे उसने मेरा दरवाज़ा खटखटाया , चेहरा फुला और खूनी खरोंचों से भरा. पता चला उस lodge में ज्यादातर मेडिकल स्टूडेंट्स रहते थे . हमारे मित्र के कमरे के बगल में एक मेडिकल विद्यार्थी थे जिनकी नयी नयी शादी हुई थी और उन्होंने अपनी नयी नवेली पत्नी को lodge में कुछ दिनों के लिए लाया था. मेरे मित्र सारी रात प्रेम और काम क्रीडा की कल्पना करता रहा और जब उसे और सब्र नहीं रहा तो वह गर्मियों के मौसम के उस रात में उसने अधखुली खिड़की से अन्दर झाँकने की कोशिश में लग गया . उस विद्यार्थी ने उसे देख लिया और उसकी जम कर पिटाई की. मुझे अपने मित्र पर दया आयी मगर मैं यह नहीं समझ नहीं पाया की जो लड़का एक ओर नुक्कड़ नाटक करता है और मुझसे वोर्द्स्वोथ और मिल्टन की बातें करता है वह उत्सुकतावश ऐसी हरकत भी कर सकता है. शायद दोष उसका नहीं उस सामाजिक वातावरण का था.

हमारे कॉलेज के पास गंगा घाट भी था. छट पर्व के दिन हम रास्ते पर बाकायदा चादर बिछा देते औरप्रसाद का ठेकुयाँ मांगते. यह तकरीबन एक सप्ताह तक हमारे नाश्ते में काम आता.
उसी दौरान क्रिकेट और टीवी का प्रवेश हुआ . भारत ने कपिलदेव के नेतृत्व में विश्व कप जीता और आधी रात को मेरे एक मित्र ने (जो अब railways में उच्चाधिकारी हैं ) भारत के गर्व से गौरवान्वित होकर अपना वस्त्र उतार , बिलकुल नग्न होकर गाँधी मैदान तक की दौड़ लगाकर एक नयी मिसाल कायम की.
कुछ विद्यार्थी प्रगतिशील विचारधारा से प्रभावित होकर नुक्कड़ नाटक करते थे. मैंने भी एक लघु पत्रिका में गोविन्द निहलानी निर्देशित फिल्म " आक्रोश " पर एक लेख लिखा था .

इन सब नवयुवक सुलभ बातों-व्यवहारों के बीच हिंसा की पौध भी पनप रही थी. रंगदार विद्यार्थियों का एक झुंड अशोक राजपथ के दूकानों से बिना पैसा दिए सामान ले लेता था. उसी दौरान हमारे हॉस्टल में राजपूत और भूमिहार गुटों के बीच घमासान संघर्ष शुरू हुआ. यह एक लम्बा सिलसिला था. शाम को जब वापस हॉस्टल आता तो पता चलता की बमबारी हुई है और विद्यार्थीयों की जगह पुलिस दिखाई देते. हॉस्टल खाली करा दिया जाता और पहली बार एक नया शब्द सुना: sine die . हॉस्टल में पुलिस की बंदोबस्त होने लगी. ऐसा कई बार होने लगा. फिर मैंने सुना की बैकॅवाङ - फॉरवर्ड के संघर्ष में वीर सिंह बुरी तरह जख्मी हो गया . मुश्किल से जान बची.मैं उससे मिलने PMCH भी गया.


इन्ही परिस्थितियों के बीच हमारी पढाई हो रही थी. हमारी B. A. (Hons) की परीक्षा करीब आ गयी . इतर गिता हमारे और पटना कॉलेज के बीच थी. हमलोग अपने सूत्रों से यह पता लगाने की कोशिश करते की पटना कॉलेज में Topper होने का कौन दावेदार है. सच कहूं तो मित्र बीरू का नाम पता चला. उनसे मेरे कभी मुलाकात नहीं हुई हाँ वर्षों बाद वे जेएनयू में मेरे मित्र बने और अभी भी मित्र हैं.
पुलिस बंदोबस्त के बीच परीक्षा हुई और नतीजा भी आया . मैं प्रथम श्रेणी में द्वितीय स्थान पर था और प्रथम स्थान पर एक ऐसा विद्यार्थी था जिसे कोइ जानता भी नहीं था. सुना की वह कुलपति या उपकुलपति का दामाद था . उसकी बहुत ऊँची पहुँच थी और वह बना topper!

आज इतने वर्षों के बाद उन बातों को याद कर एक मिश्रित भावना उमगती है .अगर मैं राजपूत, भूमिहार या अन्य जातीय गुट में शामिल होने को मजबूर होता तो क्या होता ?कितना संकीर्ण फासला था सही या गलत रास्तों में .उस उम्र में कितनी वैचारिक परिपक्वता थी , सही और गलत के फर्क समझने में.

" बहुत कठिन थी डगर पनघट की."

Thursday, April 16, 2009

अथ स्कूल कथा : कैसा था पटना का यह स्कूल १९७५ में ?

ग्रामीण छात्रवृति योजना के तहत मेरा चुनाव हुआ और जनवरी सन १९७५ में मेरा दाखिला पटना कौलेजिअट स्कूल में हुआ. रहने की व्यवस्था स्कूल होस्टल में. दाखिले के समय मैं ग्यारह साल का था .

छात्रवृति की यह योजना ग्रामीण छात्रों के लिए थी. हर प्रखंड से दो छात्रों का चयन द्वि स्तरीय लिखित परीक्षा के माध्यम से किया जाता था . चयनित छात्रों को जिला स्कूल में प्रवेश दिया जाता था .और रहने की व्यवस्था स्कूल हॉस्टल में की जाती थी . शुक्र है सरकार की इस योजना का की गाँव का लड़का राजधानी के स्कूल में आ गया .१९७५ में सौ रुपये की मासिक छात्रिवृति मिलती थी. हम सब का कदम कुँआ में स्टेट  बैंक की एक शाखा में बैंक अकाउंट खोला गया था. हर महीने हम सब बच्चे अपना अपना चेक खुद भर कर प्राचार्य महोदय से दस्तखत करा कर बैंक जाते और पैसे लेकर आते .छोटी उम्र में हीं बैंक से यह बढ़िया एक्सपोजर था . दृष्टि पात करने पर लगता है की बैंक में जगह की कमी के वावजूद कर्मचारी कार्य कुशल थे , बैंक में कुशल व्यवस्था थी और हम सब के चेक का भुगतान शीघ्र हो जाता था .

होस्टल की भव्य बिल्डिंग थी . बड़े बड़े कमरे और चौडे ओसारे .बीच में लॉन और किनारे में अशोक के बड़े पेड़. लॉन में दो चार नल लगे थे जहां हम सब के खुले में नहाने की व्यवस्था थी. होस्टल के चारों तरफ चहारदीवारी थी और दक्षिण तरफ बड़ा सा खेल का मैदान.हॉस्टल से सटे हॉस्टल अधीक्षक श्री जंग बहादुर लाल का आवास था . तीन चार बजते बजते स्कूल का विशाल मैदान हॉस्टल और आस पास के मुहल्लों के बच्चों से भर जाता था .बच्चे गुल्ली डंडा से लेकर क्रिकेट , फुटबाल तक में लग जाते थे . होस्टल के प्रवेश द्वार के साथ हीं स्कूल प्रिंसिपल श्री त्रिवेणी सिंह का आवास था. स्कूल परिसर में नीम और आम के विशाल पुराने दरखत थे और ढेर सारी चिडियों  की आश्रय स्थली .शाम होते ही पूरा परिसर तरह तरह की पक्षियों की चहचाहट से गुन्जायीत होता था.

हॉस्टल में १००-१५० , आठवीं से लेकर ग्यारहवीं तक के लड़के रहते थे .अस्सी प्रतिशत बच्चे ग्रामीण छात्रवृति योजना के तहत चयनित .और कुछ को छोड़ कर सब ग्रामीण और छोटे कस्बाई पृष्ठभूमि के . हम सब के लिए शहर में रहने का यह पहला अनुभव था .होस्टल में सटे दो मेस था . दोनों में से किसी में आप शामिल हो सकते थे . दिन में दो वार चावल , दाल सब्जी और भुजिया का भोजन .दाल पतला . सब्जी में मुख्य  रूप से आलू और वो सब्जियाँ जिनका सीज़न पार हो रहा होता था .भुजिया मुख्य रूप से आलू की जिसमें नाम मात्र का तेल और फोरन होता था . शुरुआत में तो कुछ स्वाद लगा पर बाद में मेस का खाना तो हम सब बच्चे भूख के जोर पर हीं भीतर ठेल पाते थे. फरबरी के महीने में माँ पटना आयी . बेटे की हालत देख कर आधा लीटर दूध रोजहा का इन्तेजाम कर गयी.दरिया पुर मोहल्ले का एक सख्श होस्टल में कुछ लड़कों को दूध दे जाता था.लेकिन लगता है की दूध में मिलावट शुरू हो चुकी थी और मुझे उस दूध के स्वाद का स्मरण कर आज भी उबकाई आती है.  खाने का चार्ज महीने का साठ रूपया . सौ रुपये की मासिक छात्रवृत्ति में मेस चार्ज के बाद चालीस रुपये हाथ में बच जाते थे. और खर्च करने के लिए पटना का पूरा बाजार था .

पटना कौलेजिअट स्कूल , पटना शहर का पुंरानास्कूल है . ब्रिटिश शैली में बनी हुई स्कूल की 
भव्य इमारत . गोल ऊँचे पाए . मुख्य भवन के सामने सुन्दर पार्क . उस पार्क में ऊँचे छोटे घेरे में पानी भर कर कमल के फूल की व्यवस्था थी. पहली बार जब देखा था तो कुछ कुछ जादूई लगता था . स्कूल इमारत के इतिहास की ठीक ठाक जानकारी नहीं है पर निसंदेह भवन उन्नीसवीं सदी का है. और यह पटना के चंद भव्य और खूबसूरत इमारतों में से एक रहा होगा . जिस किसी ने स्कूल परिसर की परियोजना बनायी थी उसने ने सारी व्यवस्था ग्रैंड स्केल पर किया था. 

 तो हम सब गाँव के बच्चे पटना शहर के इस पुराने स्कूल में रहने और पढ़ने लगे.पटना शहर के नापने और तौलने लगे.हथुआ मार्केट जाना और आते समय गोल गप्पे ( जिस हम सब फोचका कहते थे )और आलू टिक्की चाट खाना मुख्या आकर्षण रहता था . सब्जी बाग़ भी जाते थे.सब्जी बाग़ में बेकरी की दुकानें और तरह तरह की पाव रोटी और बिस्कूट . कोको कोला , चाट और सिनेमा से हम सब का परिचय हो रहा था .मेरे लिए पहली फिल्म थी रूपक में जे संतोषी माँ और फिर बाद में एलिफिंस्टन में शोले और वीणा में सन्यासी .साल भर में मैं पंद्रह बीस फिल्में देख लिया .एक मित्र देखी हुयी सारी फिल्मों का लिस्ट बना ता था . मैंने भी लिस्ट बनाना शुरू किया .साल के अंत में यह लिस्ट माँ के हाथ लग गयी . माँ ने पिटाई तो नहीं की पर पुरे घर में बड़ी बदनामी हुयी.याद करें यह वो दौर था जब सिनेमा को अभिभावक गण हेय दृष्टि से और बहुत हद तक अशलील और बच्चों के बच्चों को बिगाड़ने के शर्तिया नुख्से के तौर पर लेते थे . 

  यहीं क्रिकेट से परिचय हुआ .पर फिल्ड में खेलते समय अक्सरहां सब्जी बाग़ के बदमास और बड़े बच्चों से जूझना पड़ता था . एक से एक भद्दी भद्दी गालियाँ देते थे और उनका मन किया तो हम सब का बात बल भी छीन लेते थे .कुछ बड़े लड़के , दाढ़ी बनाने वाले उस्तरे साथ रखते थे और उसी से हम सबों को डराते थे.मार पीट तो कम लेकिन उन लड़कों के डराने का स्वांग हीं हम सबको बेहद भयभीत किये रहता था.पटना शहर में ७० के दशक में दुर्गा पूजा से लेकर छठ पर्व तक तरह तरह के शास्त्रीय संगीत के बड़े बड़े कार्यक्रमों का आयोजन होता था .और पटना कौलेजिअट स्कूल का मैदान इन आयोजनों की मुख्य स्थली होती थी. 

स्कूल में हमारे गाँव के स्कूल के लिहाजन अनुशासन ढीला ढाला था .कुछ दादा किस्म के लड़के हॉकी  सटीक 
 लेकर घूमते  थे. छात्रों पर शिक्षकों का अनुशासन था .आम तौर पर शिक्षक भी योग्य थे .एक दिल दहला देने वाला वाकया  याद है. हिंदी के एक शिक्षक शर्माजी थे . स्कूल परिसर में हीं उनका आवास था . पता नहीं  पढाने में उनकी योग्यता क्या थी ? ठीक से याद नहीं है .एक दिन क्लास में पता नहीं , एक बच्चे ने क्या गुस्ताखी कि शर्मा ने उस बच्चे को क्लास में आगे लाकर बेतरह पीटा. छोटा बच्चा रोता हुआ अपनी बेगुनाही और क्षमा याचना करता रहा .पर शर्मा ने कोई रहम नहीं किया .हम सब बच्चे पूरी तरह से आतंकित हो गए थे . इतने सालों के बावजूद जब भी इस वाकये का स्मरण होता है शर्मा के लिए मुंह में भद्दी गाली आती है.

राष्ट्रीय स्तर की मेधा छात्रवृति के बदौलत मैं १९७६ के मध्य में मेरा दाखिला नैनीताल के एक प्रतिष्ठीत आवासीय स्कूल में हो गया .पटना कौलेजिअट स्कूल में बिठाये डेढ़ साल कई मायनों में याद गार रहे .कई तरह के नायब अनुभव हुए. शहर में रहने का यह पहला अनुभव था .शहर की विशालता , सुविधायों ,जददो - जहद और खास तरह की गुमनामी का अहसास उस कच्ची उम्र में भी हो रहा था .पर समग्रता में कहूं तो ये सारे अहसास बेहद सुखद थे . शायद हर बचपन और कैशोर्य जीवन के तमाम उतार चढाव और संघर्षों के वावजूद सुखद हीं होता है .

शहर के पहले स्कूली अनुभव की बाकी यादें  बाद में .

 
 

Saturday, April 11, 2009

हाल -ये -बयान ,पटना के कॉलेज ओं का -१९८०, की शुरुआत में


सुजीत चौधरी ,सुना रहें हैं अपनी आप बीती , बरास्ता पटना शहर और बी एन कॉलेज .पढिये और अपने अनुभवों से इस सिलसिले को आगे बधाईये.

( मित्र कौशल ने बिहारी विद्यार्थियों के दिल्ली जाने के शुरुआती दौर , उस समय के बिहार के (खासकर पटना के) कॉलेज और पटना विश्वविद्यालय की स्थिति और विशिस्ट सामाजिक - आर्थिक और राजनीतिक कारणों की चर्चा कर एक विचार-विमर्श का प्रारंभ किया है. मैंने भी पटना में स्नातक और पूर्व-स्नातक की पढ़ाई की है इसीलिये कौशल जी ने मेरे अनुभवों को पोस्ट करने को कहा. )

मैं अपने B. N. College के अनुभवों कोलिख रहा हूँ.
मैंने १९८१ में रांची से intermediate (विज्ञान) किया . उसी दौरान मेरी रूचि सामाजिक विज्ञान की और बढ़ी और समाजशास्त्र (sociology) पदने के लिए पटना गया. सच कहूं तो मुझे रांची छोड़ना था और मैंने ऐसा विषय चुना जिसकी पढाई रांची विश्वविद्यालय में नहीं थी. पटना में सिर्फ एक ही करीबी दोस्त था जिसने बिहार इंजीनियरिंग कॉलेज में mechanical इंजीनियरिंग पढ़ रहा था. उसने उसी समय admission लिया था और एक लौज में रहताथा. पटना में B. A. का admission शुरू नहीं हुआ था. मेरा दोस्त पटना में दो साल गुजार चुका था क्योंकि वह मुझसे एक साल सीनियर था और I.Sc. की पढ़ाई उसने साइंस कॉलेज से की थी हालाँकि वह लौज में ही रहता था. उसने मुझे पटना घुमाया. अशोक राजपथ, गाँधी मैदान, सिनेमा घर, आदि आदि. पटना कॉलेज के सामने वाली गली के समोसे और जलेबा (जलेबी स्त्रीलिंग तो जलेबा अपनी विराटता के लिए जलेबा) . विद्यार्थियों का हुजूमलगा रहता था वहां. उस समय पटना में कोचिंग schools काफी थे क्योंकि हमारे हमउम्र के विद्यार्थियों का सपना होता था मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला. खैर एक दो महीने के बाद मेरे दोस्त को हॉस्टल मिल गया जो law college के पास था और मजबूरन मुझे भी उसके साथ वहां रहना पड़ा. हॉस्टल में आकार पता चला की यह हॉस्टल तथाकतित scheduled castes और Backward castes के लिए अनौपचारिक रूप से आरक्षित था. law college पर उसी तरह ऊँचेवर्णों का वर्चस्व था. धीरे धीरे जाति, जातिय समीकरण और छात्रालयों में उनकी प्रभुता या प्रभुत्व जमाने की होड़. मुझे पता चला की फॉरवर्ड जाति-वर्ग में राजपूत और भूमिहार के बीच नहीं पटती. संक्षिप्त में कहा जाये तो एक और राजपूत-भूमिहार के बीच का दरार और उससे उपजी हिंसा तो दूसरी तरफ फोर्वार्ड और बैक्वार्ड जातियों का उभरता हुआ धूरिकरण. मजे की बात यह की मेरा दोस्त Backward जाति का थाऔर हम दोनों में जातिगत कोई भावना ही नहीं थी लेकिन उसने मुझे अपने हॉस्टल में 'Backward' घोषित कर दिया. मेरे survival के लिए यह एक मामूली सा समझौता था जो मुझे अखर भी नहीं और मेरा surname भी इतना सर्वव्यापी था की किसीको कोई शक नहीं हुआ. उस हॉस्टल के मुखिया थे भीम सिंह जिन्हें मेरी ग़ज़लें पसंद थी . वह एक बुद्धिमान और प्रतिभाशाली विद्यार्थी था जो धीरे-धीरे जातिगत हिंसा के दलदल में फंसता जा रहाथा. वर्तमान में मिलने वाला दबदबा उसकी हौसला-आफज़ाई कर रहा था. उसने एक दिन मुझे देसी तमंचा दिखाया और एक दिन जब सिर्फ हम दोनों अकेले थे तो उसने कहा मैं जानता हूँ तुम Backward नहीं हो लेकिन यह राज राज ही रहे. उसदिन के बाद मैं और मेरा दोस्त काफी सहमे रहते थे की किसी तरह मेरा राज न खुल जाए . खैर, तबतक मुझे B. N. college के हॉस्टल में दाखिला मिल गया. मैंने B. N. college में इस लिए दाखिला लिया था क्योंकि कुछसीनियर विद्यार्थिओं के सुझाव के मुताबिक, वहां का sociology विभाग पटना college से बेहतर था. हॉस्टल काफी भब्य था बिलकुल college के पास. हॉस्टल के वार्डेन जो मेरे विभागाद्ययक्ष भी थे मेरे पिताजी को जानते थे और उन्होंने एक अच्छा (?) सा कमरा allot कर दिया. पहले ही दिन जब मैंने अपना सामान रखकर बड़े से गोदरेज ताले से कमरा बंद कर गाँधी मैदान जाकर और वहां की घास पर लेटकर वापस लौटा तो पाया की कमरे कीचाभी गाँधी मैदान में खो गयी है. वापस मैदान में ढूँढने की कोशिश नाकाम रही. लाचार होकर सब्जी बाग़ गया और लोहा काटने का ब्लेड खरीदा और दो घंटे लगे , गोदरेज का ताला काटने में. हॉस्टल में मैं किसीको नहीं जानता था. दो-तीन बाद एक नया रूममेट आया , जाति का राजपूत, उद्दंड स्वाभाव और राजधानी के मौजूदा फैशन से कदम से कदम मिलाने वाला. हालाँकि, अपने क्लास में कुछ day scholars से मित्रता बढ़ी औरअकेलापन कम होने लगा. मेस में कुछ और मित्र बने. थोड़े दिनों में पता चला की हॉस्टल के तीन blocks तीन जाति वर्गों पर आधारित थे. एक ब्लाक पर राजपूतों का वर्चस्व था तो दुसरे पर भूमिहारों का कब्ज़ा. मेरा ब्लाक थोडा मिश्रित था तब पता चला वार्डेन ने मुझे उस ब्लाक में क्यों कमरा क्यों दिया. हॉस्टल के पास अशोक राजपथ के कोने पर एक पान की दूकान थी जहाँ राजपूतों का नेता खादी का कुरता पजामापहन अपना अड्डा लगाता था. देखने में वह शालीन था और दाढी के कारण उसमे एक गाम्भीर्य था. मैंने सुना था कि वह रात में रिक्शा लेकर (बगल में ही रिक्शे वालों का पडाव था) और रिक्शा चालक के भेष में प्रिया सिनेमा जाता था और सिर्फ लड़कियों या कमउम्र महिलाओं को उनके घर छोड़ता था. कभी कभी वह बुरका पहन सब्जी बाग के उस हिस्से में घूमता था जहाँ महिलाएं होती थीं. दूसरी तरफ रंगदारविद्यार्थियों का एक झुंड अशोक राजपथ के दूकानों से बिना पैसा दिए सामान ले लेता था. उसी दौरान हमारे हॉस्टल में राजपूत और भूमिहार गुटों के बीच घमासान संघर्ष शुरू हुआ. बमबारी की शुरुआत हुई और हॉस्टल खाली करा दिया गया . हॉस्टल में पुलिस की बंदोबस्त होने लगी. ऐसा कई बार होने लगा. फिर मैंने सुना की बैकॅवाङ - फॉरवर्ड के संघर्ष में भीम सिंह बुरी तरह जख्मी हो गया . मुश्किल से जान बची.इन्ही परिस्थितियों के बीच हमारी पढाई हो रही थी. हमारी B. A. (Hons) की परीक्षा करीब आ गयी और असली प्रतियोगिता हमारे और पटना कॉलेज के बीच थी. पुलिस बंदोबस्त के बीच परीक्षा हुई और नतीजा भी आया . मैं प्रथम श्रेणी में द्वितीय स्थान पर था और प्रथम स्थान पर एक ऐसा विद्यार्थी था जिसे कोइ जानता भी नहीं था. बाद में पता चला की उसकी बहुत ऊँची पहुँच थी.

Thursday, April 9, 2009

कैसा था गाँव का स्कूल ? बिहार विमर्श : अथ स्कूल कथा - भाग दो

वीरेन्द्र , बिहार विमर्श की अगली कड़ी : अथ स्कूल कथा  - भाग दो . 

 कैसा था गाँव का स्कूल ?

'अथ स्कूल कथा' के नाम से जो संस्मरण मैंने सुनाया था, वह कई कारणों से मुझे अधूरा लगा. अव्वल तो यही कि मैं उन तमाम लम्हों से आपको रु-ब-रू नहीं करा सका जो मेरे बनने-बिगड़ने में खास रूप से सहायक रहे थे. तो आईये, एकबार फिर मेरे साथ स्कूल की यादें ताजा करें. 

तो सबसे पहले मैं आपको फिर से अपने गाँव के प्राईमरी स्कूल ले चलता हूँ. था तो हमारा स्कूल छोटा, किन्तु उसका एक अलग परिसर था जिसमें बेर, कैक्टस और अमरूद के पेड़ लगे हुए थे. खाली ज़मीन पर माट्साब धन और गेहूं की खेती करवाते थे. जाडे के दिनों में हम बच्चे कभी-कभी साग-सब्जी की खेती भी कर लिया करते थे. गाँव का कोई भी व्यक्ति स्कूल की खेती को कभी कोई नुक्सान नहीं पहुंचाता, उल्टे बिन मांगे ही कभी हल चलवा देता तो कभी खाद छिड़कवा देता. मुझे अचरज होता कि जब रखवाली के बाद भी कई किसानों की फसल फसल-चोर काट लेते थे, तब स्कूल की खेती कैसे बची रह जाती थी. संभव है, चोर यह मानते हों कि स्कूल की चोरी से उन्हें ज्यादा पाप लगेगा. खैर, बाद के दिनों में स्कूल के बेर के पेड़ कटवा दिए गए और उनकी लकडियों से बच्चों के बैठने के लिए पटरियाँ बनवा दी गयीं. चौथी और पांचवीं कक्षा के छात्रों के लिए ईंटों के पाए बनाकर उनके ऊपर पटरियों को बिछा दिया गया ताकि वे उनका इस्तेमाल तख्ती के रूप में कर सकें. हेडमाट्साब के लिए कुर्सी के अलावा एक टूटा हुआ टेबल भी था जिसके ऊपर एक ग्लोब स्थापित कर दिया गया था. ग्लोब को छूने की जिज्ञाषा हमारे मन में लगातार बनी रहती, किन्तु माट्साब के डर से ऐसा करने की हिम्मत कभी नहीं हुई.  
 
पहले बता चूका हूँ कि इस विद्यालय में एक ही शिक्षक नियमित रूप से आते थे और वही पहली कक्षा से लेकर पांचवीं कक्षा के छात्रों को हरेक विषय पढाते थे. लेकिन जो दो शिक्षक अनियमित थे, उनमें से एक हेडमास्टर साहब के छोटे भाई थे और दूसरे चेला गाँव के पंडीजी. दोनों बच्चों से खूब प्यार करते थे. सच तो यह है कि पंडीजी से कोई बच्चा डरता ही नहीं था. डरे भी तो किसलिए? पंडीजी तो खुद ही बच्चों के साथ रोज़ शाम में 'मुअनी-जीअनी' का खेल खेलते थे. मुझे आज तक पता नहीं चल पाया कि यह खेल खुद पंडीजी ने ईजाद किया था या फिर यह किसी और देश से हमारे देश में आया था. खैर, इस खेल के नियम बड़े सरल थे. बच्चों की टोली गोला बनाकर पंडीजी के चारों ओर घूमने लगती; पंडीजी आँखें बंद किये मुहं में कुछ बुदबुदाते रहते और अचानक अपनी तर्जनी ऊंगली को सीधे किसी बच्चे की नाक से सटा देते. बच्चा ज़मीन पर गिर जाता, गोया उसके प्राण-पखेरू उड़ गए हों. इस क्रिया को पंडीजी मुअनी कहते थे. एक-एक कर पंडीजी सभी बच्चों को मार देते और फिर खुद रोने लगते. उनका विलाप सुनकर शारीरिक रूप से मज़बूत कोई दूसरा बच्चा पंडीजी के पास आता; उनके रुदन का कारण पूछता. जवाब में पंडीजी रोते हुए उसकी पीठ पर बैठ जाते और कहते कि अब चलो मुझे वैद्य जी के घर ले चलो. पंडीजी बच्चे की पीठ पर बैठे-बैठे सभी मृत बच्चों के पास जाते और कान में कुछ कहते. परिक्रमा पूरी कर जब वे वापस अपने स्थान पर खड़े होते तो उनके हाथ में सरकंडा की एक खोखली छड़ी होती. वे उसमें कुछ देर तक फूंकते रहते और अचानक किसी बच्चे का नाम पुकारकर उसके फिर से जिंदा हो जाने की घोषणा करते. इस क्रिया को हम 'जीअनी' कहते थे. पंडीजी जब भी स्कूल आते, हम बच्चे उनसे जिद्द करते कि वे हमारे साथ मुअनी-जिअनी का खेल ज़रूर खेलें. पंडीजी ने हमारे आग्रह की कभी अनदेखी नहीं की. जिस दिन पंडीजी स्कूल आते, उस दिन हम बच्चों की मस्ती हो जाती. पंडीजी के अलावे हमारे स्कूल में एक और शिक्षक भी थे जिन्हें हम थर्ड माट्साब कहते थे. ये छतरबली माट्साब के अपने छोटे भाई थे और स्कूल में सिर्फ उन्हीं दिनों आते थे जब किसी कारणवश छतरबली माट्साब स्कूल आने में असमर्थ हो जाते थे. बच्चों से इनका व्यवहार बहुत अच्छा था और शायद ही कभी किसी बच्चे को उनसे डांट खानी पड़ी होगी. उनके पढाने का तरीका भी बहुत सुन्दर था. मेरे स्कूल में तब कई बच्चे ऐसे थे जो बिना अक्षर-ज्ञान के ही पहली कक्षा की किताबें पढ़ लिया करते थे. इन तमाम बच्चों को थर्ड माट्साब पहचानते थे. कुछ नया पढाने से पहले वे अक्सर इन बच्चों से चुहल करते थे. ऐसा करते समय वे चान्ददेव का नाम कभी न भूलते. वे ऊंची आवाज़ में चान्ददेव का नाम पुकारते और चान्ददेव की ऊंगुलियाँ 'रानी, मदन, अमर' के पन्ने पलटने लगतीं. सर झुकाए वे पढ़ते रहते, "मां, पिताजी...आगे देखो... भालुवाला आया' ..वगैरह-वगैरह. हम सब बच्चे थर्ड माट्साब के स्कूल आने की रोज प्रतीक्षा करते, किन्तु वे कब आते और कब चले जाते हमें याद नहीं रहता. लगभग पूरे भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि पांचवीं तक की पढाई में जितनी बार वे स्कूल आये होंगे उससे कहीं ज्यादा स्कूल इंसपेक्टर ने हमारे स्कूल का दौरा किया होगा. 
 
चूंकि तब यह गाँव-जवार का एकलौता स्कूल था, अतः यहाँ पढ़नेवालों में सलेमपुर, कांधरपुर, जनई, खुटियारी, तिरकौल और कुर्मी टोला के छात्र भी होते थे. तिरकौल के मदरसा में पढ़नेवाले छात्र भी इस स्कूल में हिंदी सीखने आते थे. शुरू में तो इनकी उपस्थिति बच्चों के मन में एक कुतूहल पैदा करती थी, क्योंकि उम्र में वे पूरी तरह व्यस्क नहीं तो किशोर अवश्य हुआ करते थे. यह तो बाद में पता चला कि वास्तव में वे हाई स्कूल कर चुके थे और यहाँ सिर्फ हिंदी पढ़ने के लिए आते थे. लेकिन, उम्र के अलावा उनमें और हममें कोई और अंतर नहीं होता था. वे भी हमारे साथ लकडी की तख्ती पर बैठते थे और उनके झोले में भी स्लेट-पेंसिल के अलावा सिर्फ एक-दो नन्हीं किताबें हुआ करती थीं. उनसे भी अगर गलती होती तो हम मास्टर साहेब के निर्देश पर उनके कान उमेठ देते थे. इस काम में एक अलग तरह का रोमांच हुआ करता था.  
 
हमारा प्राईमरी स्कूल पूरी तरह लोकतांत्रिक था. सभी जाति और धर्मं के बच्चे यहाँ मौजूद थे; सबके बैठने की ज़गह भी एक ही हुआ करती थी. हाँ, लड़कियों के बैठने के लिए आगे की एक-दो पंक्तियाँ आरक्षित कर दी गयी थीं. तो भी, दूसरे गाँव की लड़कियां यहाँ पढ़ने के लिए नहीं आती थी. कुछ-कुछ लड़कियां उम्र में हम बच्चों से बहुत बड़ी होती थीं. बाद में पता चला कि वे लड़कियां शादी से पहले चिट्ठी पढ़ने-लिखने भर की विद्या अर्जित करने आती थीं. छतरबली माट्साब न तो खुद कभी स्कूल से नागा होते थे और न किसी छात्र को नागा होने की ईजाज़त देते थे. उन्होनें तो एक तरह से अपना फ्लाईंग स्क्वैड ही बना रखा था. इधर हाजिरी खत्म हुई, उधर फ्लाईंग स्क्वैड बच्चों की धर-पकड़ के लिए अलग-अलग गांवों की ऑर निकल पड़ता. घंटे-अधघंटे में फ्लाईंग स्क्वैड गैरहाज़िर बच्चों को भेंड-बकरियों की तरह हांकते हुए स्कूल धमक पड़ते. फिर उनमें से कोई मुर्गा बनता, कोई पिटाई खता और कोई डांट-डपट सुनकर ही छुटकारा पा लेता. सजा छात्र की अनुपस्थिति की आवृति के अनुपात के मुक़र्रर की जाती. लेकिन इस वाकये की सबसे दिलकश बात कुछ और हुआ करती थी. जब माट्साब किसी छात्र से उसकी अनुपस्थिति का कारण पूछते तो वह न जाने क्या सोचकर ऐसे-ऐसे जवाब देता कि उनपर यकीन करना किसी के लिए संभव नहीं जान पड़ता. मिसाल के लिए कोई कहता, "माट्साब, हम त स्कूल आवते रहीं, बाबुएजी नु बैल पहुँचावे खातिर पछिमभर के बधार में भेज देलन?'  
 

आज अगर कोई मुझसे पूछे की अह्पुरा प्राईमरी स्कूल के बारे में दो अच्छी बातें क्या थीं तो मैं निःसंकोच कह सकता हूँ कि एक तो शिक्षक की मर्यादा पूरे गाँव के लिए सर्वोपरि थी और दूसरे स्कूल के माहौल में सीधे रूप से जातियों का प्रभाव परिलक्षित नहीं होता था. चूंकि तब सरकारी स्कूल के अलावा कहीं कोई तथाकथित इंग्लिश मीडियम स्कूल नहीं थे, इसलिए लोगों के सामने शिक्षा के क्षेत्र में अपनी हैसियत दिखाने का कोई दूसरा जरिया भी नहीं था. क्या गरीब, क्या अमीर सबके बच्चे इसी स्कूल में पढ़ते थे. लेकिन आज स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है. बिहार और उत्तरप्रदेश के अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि इन स्कूलों का अछूतीकरण कर दिया गया है. आज सरकारी स्कूलों में सिर्फ गाँव के दलित बच्चे पढ़ते हैं या वे बच्चे जिनके मां-बाप के पास निजी स्कूलों की फीस देने की कुव्वत नहीं है. सन्देश का मिडिल स्कूल तो मेरी नज़रों के सामने अपनी अधोगति केपी प्राप्त कर रहा था. पुराने हेडमास्टर जिनके बारे में कई-कई किंवदंतियाँ ईलाके में मशहूर थीं, अवकाशप्राप्त हो चुके थे. उनकी ज़गह जो नए हेडमास्टर आये वे स्कूल का रुतबा कायम नहीं रख सके. प्राईमरी स्कूल के विपरीत, मिडिल स्कूल में मुझे साम्प्रयादायिक रुझान के दर्शन हुए थे.

एक वाकया यहाँ गौरतलब है. जब मैं सातवीं क्लास में था तो मेरे स्कूल में एक उर्दू शिक्षक की नियुक्ति हुई थी. हम उन्हें मौलवी साहब कहते थे. कई बच्चे उनसे फूहड़ शरारत करने से बाज़ नहीं आते थे. एक दफा उनने हेडमास्टर साहेब से शिकायत भी की. किन्तु कुछ न हुआ. उल्टे उन्हें सुझाया गया कि बेहतर यही होगा कि वे अपना स्थातान्तरण किसी मुस्लिम स्कूल में करा लें. दूसरी तरफ, लालाजी माट्साब के लिए स्कूल के ही दो कमरों को अलग कर उनके परिवार के घर बना दिया गया था. लालाजी स्कूल की ज़मीन पर साग-सब्जी की खेती भी करते थे और स्कूल के फलदार वृक्षों पर भी उन्हीं का अधिकार था. बता दू कि लालाजी यह सब लाठी के जोर पर नहीं कर रहे थे, अपितु स्कूल की प्रबंधन समिति ने हे उन्हें सुविधा मुहय्या कराइ थी. लालाजी का परिवार बड़ा था और आमदनी छोटी, इसीलिए उनके लिए एक खास सहानुभूति सबके मन में थी.

आरा जैन स्कूल के बारे में विस्तार से फिर कभी बताऊंगा. 

 
 
वीरेंद्र