Monday, May 25, 2009

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी : आई आई टी प्रवेश परीक्षा -सुपर थर्टी , पटना और कोटा का अंतर.

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी : आई आई टी प्रवेश परीक्षा ,सुपर थर्टी ,पटना और कोटा का अंतर .

राजस्थान का कोटा शहर ,डेढ़ दो दशकों से +2 के बाद कि मेडिकल और इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा कि तैयारी का अहम् मुकाम बना हुआ है .पचासों हजार लडके लडकियां , हर साल ,यहाँ के नामी गिरामी कोचिंग संस्थायों में मेडिकल ,इंजीनियरिंग में दाखिला लेने के सुन्दर सपने संजोये आते हैं.बंसल क्लास्सेस और अल्लेन सरीखी संस्थायों में माध्यम वर्ग कि हैसियत से फाजिल शुल्क लगता है . कई अभिभावक पेट काट कर ऊँचे फीस वाले इन व्यवसायिक संस्थानों में अपने बच्चों को साल दर साल भेजते रहें हैं. हर साल प्रवेश परीक्षायों में अपेक्षित सफलता इन संस्थानों को मिलती रही है . पता नहीं समानुपातिक नजरिये से देखें तो सफलता का क्या प्रतिशत बैठेगा . पर ये कोचिंग संस्थान साल दर साल जरूर इतना कुछ कर लेते हैं कि इनके बाजार और ग्राहकों में उतरोत्तर वृद्धि होती रहती है.जानकार बताते हैं कि कोचिंग के इर्द गिर्द अरबों रुपये का व्यवसाय कोटा में संचालित हो रहा हैऔर फलस्वरूप स्थानीय अर्थव्यवस्था फल फूल रही है.

कोटा के इन व्यवासायिक कोचिंग संस्थानों कि तुलना अगर पटना के सुपर 30 ( फिलहाल श्री आनंद कुमार द्वारा प्रायोजित और पूर्व में अभयानंद जी द्वारा संयुक्त रूप से संचालित ) सुपर 50 ( अभ्यानान्दजी ) रहमानी थर्टी , अंग , मगध और नालंदा थर्टी जैसी संस्थायों से करें कुछ खास बातें सामने आती हैं.पटना और बिहार के इन संस्थानों में ये सारे प्रयास समाज के उन मेधावी छात्रों के लिए हैं जो वंचित तबके से आते हैं. छात्रों का चुनाव लिखित प्रवेश परीक्षा से ये संस्थान करते हैं.आनंद कुमार , अभयानंद तथा समाज सेवियों ( रहमानी फौन्डेशन आदि ) के द्वारा जुटायी गयी धन राशिः से इन बच्चों के रहने और खाने पीने कि निःशुल्क व्यवस्था होती है. प्रवेश परीक्षा कि तैयारी इनके मार्गनिर्देशन में होती है.इसके एवज में अभिभावकों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता है. यहाँ पर आठ दस महीनों में हीं इनकी मेधा का परिमार्जन कुछ इस तरह होता है कि सुपर थर्टी हर साल सफलता की नयी बुलंदी हासिल करता रहा है. इसके हमजोली अन्य सुपर ५० आदि पिछले साल शुरू किये गए और उन्हें भी इस वर्ष काबिले तारीफ़ सफलता मिली है.

समाज के बंचित तबकों कि मेधा को इस तरह कि पालिश , और वो भी निशुल्क ,देश में अन्यत्र उपलब्ध नहीं है . कोटा में भी नहीं , जहां कोचिंग का अरबों रुपये का व्यवसाय है.
पटना में भले हीं नए मठ , मंदिर , धर्मशाले न बने हों , पर आनंद कुमार का सुपर थर्टी , अभयानंद का सुपर फिफ्टी और रहमानी थर्टी आदि बेमिसाल संस्थाएं तो हैं.

वंचित तबकों कि निःशुल्क मेधा सृजन का ऐसा अनोखा पुनीत कार्य क्या बिहार में हीं संभव था ?

कहने का मन कर रहा है कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी .

श्री आनंद कुमार और अभ्यानान्दजी के जज्बे और दृढ निश्चय को सलाम .

बिहार का चुनाव परिणाम - बदलता बिहार ?

बिहार में परिवर्तन ,विकास की शक्ल अख्तियार कर रहा है .जिस किसी से बात करें वो इस की पुष्टि करेगा.ऐसा लगता है की लम्बे ठहराब के बाद पहली बार कुछ सकारात्मक होते घटते लोग बाग़ देख रहें हैं. एक सपना बुनने लगे हैं लोग.उन्हें उम्मीद की किरण दिखने लगी है.

पिछले २५-३० सालों में करोडों बिहारी रोजी रोटी की तलाश और पढाई लिखाई के लिए बिहार से बाहर निकले. बिहारी श्रम और मस्तिष्क देश के हर कोने में हाजिर है.बाहर रहने वाले इन बिहारियों को अगर आर्थिक शरणार्थी कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.भारत के हालिया आर्थिक विकास में बिहारियों खास कर बिहारी श्रम का कितना योगदान है ? यह प्रश्न अलग शोध की मांग करता है .

अब तक बिहार और बिहारी नकारात्मक ढंग से ही बिहार के बाहर लिया जाता रहा है . बाहर में रहने वाले बिहारियों के लिए अक्सरहां यह संबोधन अपमानजनक लगता रहा है. ऐसी क्या बात है की किसी बंगाली को बंगाली और पंजाबी को पंजाबी संबोधन अपमान जनक नहीं लगता है ? पर आप किसी भी आप्रवासी बिहारी से बात करें , बाहर में बिहारी संबोधन उसे गाली जैसा बेधता है .बिहारी होना और उसके इर्द गिर्द बनाने वाली पहचान उसे परदेसी जीवन की भागदौड़ और बने रहने के जद्दो जहद में वे बजह की बाधक लगती है. यह शब्द अपमान और तिरस्कार का बोध जगाता है. बाहर के लोग कहते
हैं की भाई ,अगर बिहारी हो तो बिहारी कहलाने और सुनने में कैसा अपमान और किसी लज्जा? बहुत कुछ उसी तरह ,जैसे की जातिगत अंहकार और श्रेष्ठता के दंभ
में अक्सरहां लोग बाग़ कहते मिल जाते हैं की अगर कोई चमार है तो उसे चमार न कहा जाय तो क्या कहा जाय ? चमार कहे जाने की चुभन को तो कोई चमार ही महसूस कर सकता है.बिहारी कहे जाने पर हिय के शूल को सिर्फ प्रवासी बिहारी हीं महसूस कर सकता है ! प्रवासी बिहारी कि परदेस में वही गति है जो हिन्दू समाज में दलितों की है . दोनों अपने भूत से भाग रहे हैं. वर्तमान दोनों के लिए दुखद है ,ये शब्द गौरव नहीं हीनता बोध कराते है . दलित और प्रवासी बिहारी दोनों , अपनी पहचान , छिपाने को अभिशप्त दिखाते हैं.

जानकार विश्लेषक कह रहें हैं की बिहार बदल रहा है .हालिया चुनाव परिणाम बदलते बिहार के नजरिये से देखा जा रहा है.

बिहार में जो सुखद बदलाब आ रहा है वह किसी से छिपा नहीं है . परिवर्तन की दिशा ठीक है . परिवर्तन समग्र विकास का रूप ले . हर इलाके और समाज के हर तबकों को शामिल करे , इस की गति तीव्र हो , भला इन बातों से किसे इनकार होगा .
बिहार में पिछले साठ सालों में किसी न किसी रूप में सरकारी तंत्र , शासन , विकास सब पर जातिवादी एकाधिकार , पक्षपात और लूट खसोट हावी रहा .
राजनैतिक हुकूमत ,शासन की आड़ में नंगा जातिवादी खेल , पचास के दशक से ही चालु है .यह अलग बात है की पासा पलटने पर कुछ तबके ज्यादा जोर से चिल्लाते रहें हैं.
लोकतांत्रिक चेतना के विकास के इस दौर का तकाजा है - सामजिक न्याय के साथ विकास . जो कोई भी इस कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा वह देर सबेर हासिये पर फ़ेंक दिया जाएगा.
तो क्या बिहार में बरसों से जारी विकास के नाम पर लूट खसोट और जातिवादी एकाधिकार की प्रवृत्ति की उलटी गिनती शुरू हो गयी है ?
क्या वाकई सामजिक न्याय के साथ विकास की शुरूयात हो गयी है ?
इस पर कुछ कहेंगें तो विमर्श आगे बढेगा.

Wednesday, May 20, 2009

उन दिनों कैसा था पटना कॉलेज ! बिहार विमर्श -9

आलेख वीरेन्द्र . कैसा था पटना का पटना कॉलेज.अपनी ऐतिहासिक उपलब्धियों के बदौलत ,बिहार के सिरमौर कॉलेज के रूप में ख्याति रही है इस कॉलेज की .यह अंक पटना कॉलेज कथा की नवीनतम कड़ीहै . तो आप बीती पर उनके इस लेख में जमाने की शक्ल -ओ -सूरत भी साफ़ नजर आती है.इसे पढें और बिहार विमर्श के इस आयाम को विस्तृत करें.

पिछले अंक में मैंने आपसे वादा किया था कि मैं आपको पटना कॉलेज के छात्रों के गैर-शैक्षणिक सरोकारों से रु-ब-रू करवाऊंगा. तो आइये मेरे साथ और देखिये यह नज़ारा और सुनिए यह गल्प.

तो एक चक्कर लगा लें पटना कॉलेज का. अशोक राजपथ के उत्तरी किनारे पर बना यह कॉलेज अपनी ऐतिहासिक ईमारतों के लिए आज भी मशहूर है. कहते हैं, अंग्रेजों के ज़माने में यह नील व्यवसाय का केंद्र था और यहाँ नीलहे गोरे साहब रहा करते थे. पुराने पटना कॉलेज में ईमारतों के तीन खंड थे और तीनों बेहद ख़ूबसूरत कॉरिडोर से जुड़े हुए थे. अब यहाँ चौथा खंड भी है जिसमें मनोविज्ञान की कक्षाएं चलती हैं. 


लेकिन बिना प्रवेश द्वार पर रुके आप इस कॉलेज के गैर-शैक्षणिक सरोकारों से परिचित नहीं हो सकेंगे. अशोक राजपथ पर बने इस प्रवेश द्वार के दाहिनी तरफ रिक्शावालों ने अपना अवैध डिपो बना रखा है जबकि बायीं तरफ राजेन्द्रजी की ख्यातिलब्ध चाय की दूकान बरसों से उसी टूटी-फूटी अवस्था में विराजमान रही है. जिन छात्रों का कॉलेज के अन्दर दबदबा होता था, वे इस दूकान पर अवश्य बैठते थे. राजेन्द्रजी की दूकान पर एक साथ ही चाय की अंगीठी और चिलम की गूल जलते रहती थी. ऐसे में यह संयोग भर नहीं था कि उनकी चाय से भी गांजे की खुशबू हवा में बिखरती रहती थी. कुछ तो उनकी उम्र की वज़ह से और बहुत कुछ उनकी दुहरी उपयोगिता की वज़ह से, उस दूकान पर आनेवाला कोई भी छात्र उनसे बेअदबी से बात नहीं करता था. उनका दावा था कि वे कई पीढियों के बीच सेतु का काम करते रहे हैं; कि आज भी उनकी जान-पहचान बड़े-बड़े अधिकारियों के साथ है. खैर, राजेन्द्रजी खुद भी गांजे का निरंतर सेवन करते थे और अपनी उदारता से नए छात्रों को भी उत्प्रेरित करते थे. उनका मानना था कि गांजा स्वस्थ्य के लिए कतई हानिकारक नहीं होता क्योंकि यह शिव का प्रसाद है. अच्छी नीयत से गांजा पीनेवाला न तो कभी किसी डॉक्टर का मोहताज होता है और न ही उसे किसी के बारे में गलत सोचने या करने की फुर्सत होती है. वह तो खुद ही शिवमय हो जाता है. 
 
इस प्रवेश द्वार से पटना कॉलेज में दाखिल होते ही आप महसूस करेंगे कि अन्दर की दुनिया सिर्फ गांजे के धुँए में सराबोर नहीं है. सच कहा जाये तो पटना कॉलेज अपनी तमाम अधोगति के बावजूद अपना अपना शैक्षणिक वजूद बचाए रखने में कामयाब रहा था. यहाँ बिहार के सभी हिस्सों के वे मेधावी छात्र जो विज्ञान की पढाई नहीं कर सकते थे, इकठ्ठा होते थे. इसके अलावा, एक दस्तूर के रूप में जो बात हमारे दौर में स्थापित होती जा रही थी, वह यह थी कि प्रशासनिक सेवा में जाने का सबसे सुगम मार्ग कला विषयों के बगीचे से होकर गुजरता है. नतीजतन, साइंस कॉलेज से पटना कॉलेज आनेवालों छात्रों की भी अच्छी खासी तादात रहती थी. पटना कॉलेज में आने का मेरा भी अघोषित उद्देश्य यही था. चूंकि मैं विज्ञान का छात्र था, इसलिए कला विषयों के बारे मैं कोई बारीक समझ नहीं रखता था. हाँ, वरिष्ठ छात्रों से पता चला था कि समाजशास्त्र सिविल सर्विसेस की परीक्षा के लिए बेहतर विषय हो सकता है. सो, मैंने समाजशास्त्र का वरण कर लिया. 
 
वरण तो कर लिया किन्तु हासिल क्या हुआ? शिक्षकों की गुणवत्ता के आधार पर देखा जाये तो पटना कॉलेज का समाजशास्त्र विभाग का कोई ख़ास महत्व नहीं था. शुरू के एक-दो हफ्ते तो मुझे सबकुछ दिलचस्प लगा क्योंकि मेरे लिए यह एक नया विषय था. गोपाल बाबु, गोपी कृष्ण प्रसाद (GKP), सरदार देवनंदन सिंह (SDN) जैसे शिक्षक विभाग की शोभा बढा रहे थे. इनमें से अगर किसी एक के पास शिक्षक बनने की योग्यता और गरिमा थी तो वे थे GKP. सच कहूं तो उन्हीं की कक्षा में आभास होता था कि समाजशास्त्र में भी कुछ समझने की जरूरत है. वरना, दूसरे तो शायद ही कभी किस्सागोई की सरहद पार कर पाते थे. मिसाल के तौर पर मैं यहाँ SDN सिंह की शिक्षण-पद्धति के बारे में एक रोचक बात बताना चाहूँगा. चाहे वे मार्क्स के बारे में बताएं या मेक्स वेबर के बारे में, अंत वे खुद द्वारा ईजाद की गई एक रोचक पहेली से करते थे - 'मार्क्स (वेबर) के विचारों को न तो प्रूव किया जा सकता है, न ही डिसप्रूव किया जा सकता है, यह अंततः अनप्रूव्ड रह जाता है.' उनकी यह उक्ति इतनी बचकानी लगती थी कि मैं मन ही मन मुस्कराते रहता था. बाद में पता चला कि लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में SDN सिंह पहले इंटरमेडीएट काउन्सिल के अध्यक्ष बने और बाद में मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा के वाइस चांसलर. कुछ दिनों तक उन्होनें सुलभ इंटरनॅशनल को भी अपनी सेवाएं दी थीं. खैर, पढाई के मामले में खुद का ही भरोसा रहा. दीगर है कि पटना कॉलेज के होस्टलों में तब सभी विषयों के उम्दा छात्र रहते थे. उनसे बातें करके, उनसे नोट्स लेकर और उनके सुझाव सुनकर हम सबको बहुत कुछ सीखने का मौका मिल जाता था. 
 
पटना कॉलेज की बात चेतकर बाबा के ज़िक्र के बगैर अधूरा ही माना जायेगा. जी, चेतकर बाबा यानी चेतकर झा पटना कॉलेज के प्रिंसिपल थे. वे एक बिंदास व्यक्तित्व के मालिक थे और छात्रों में काफी लोकप्रिय भी थे. धोती के ऊपर कोट पहने हुए, हाथ में छाता या छड़ी लिए, पान चबाते हुए जब वे पटना कॉलेज की मटरगश्ती करते तो एक अजीब दृश्य उपस्थित हो जाता. वे खुद किसी से न डरते थे और उनसे भी शायद ही कोई डरता था. आपको जानकर हैरत होगी कि वे राजनीतिशास्त्र के शिक्षक थे और लास्की के निर्देशन में लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनिमिक्स से डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की थी. उनकी छात्रप्रियता की एक मिसाल मैं बयां करना चाहूँगा. स्नातक की परीक्षाएं चल रहीं थीं. राजनीतिशास्त्र का एक पेपर लीक से हटकर था, सो छात्रों ने उस पेपर का बहिष्कार कर दिया था. वाइस-चांसलर अडिग थे कि उस पेपर की दोबारा परीक्षा नहीं होगी. छात्र असमंजस में थे कि क्या करें, क्या न करें. लेकी जाको रखी साइयां, मार सके न कोई. सो, छात्र हार-थककर बाबा के पास पहुंचे. बाबा ने आने का कारन पूछा तो छात्रों ने बताया कि वाइस-चांसलर किसी की नहीं सुन रहा है और कह रहा है कि जिसे जो करना हो कर ले. छात्रों ने यह भी बताया कि करने के लिए तो हम उनका कुछ भी कर सकते थे, किन्तु पटना कॉलेज और आपकी आन में हम कोई बट्टा नहीं लगाना चाहते थे. बाबा खुश हुए और कह दिया कि जाओ, तयारी करो, आगे का काम मेरा है. ख़ुशी में छात्रों ने नारा लगाया, "राइट और रौंग, बाबा इज स्ट्रौंग'. जी, ऐसे मनोहारी थे हमारे प्रिंसिपल साहब.  
 
राजनीतिक रूप से आठवें दशक की शुरुआत को संक्रमण का दौर कहा जा सकता है. पूर्ववर्ती दौर की प्रगतिशीलता अब शिथिल हो रही थी और उसकी जगह एक नई पतनशील राजनीतिक संस्कृति तेजी से अपने पाँव पसारती जा रही थी. पढ़नेवाले छात्र इस राजनीति से पूरी तरह विमुख थे और जो छात्र राजनीतिक मंचों पर चहलकदमी कर रहे थे उनका पढाई से दूर का भी कोई रिश्ता नहीं था. ऐसे में छात्र संघ का चुनाव नए राजनीतिक मुहावरों की अजीबोगरीब नुमाईश का अवसर प्रदान करता था. जातीय सभाओं का आयोजन करना सभी प्रत्याशियों के लाजिमी माना जाता था. इन्हीं जातीय सभाओं में उम्मीदवारों के चयन पर अंतिम मुहर लगाई जाती और यहीं पर तय होता कि प्रचार के दौरान क्या कुछ किया जाना है. तो आईये मैं आपको बारी-बारी से भूमिहार और राजपूत की सभाओं में ले चलता हूँ. 
 
पटना विश्वविद्यालय का सीनेट हॉल ऐसी जातीय सभाओं के आयोजन के लिए सबसे उपयुक्त स्थान हुआ करता था. कभी-कभी ये सभाएं किसी हॉस्टल में भी आयोजित की जाती थीं. वैसे तो जातीय सभाओं में किसी गैर-जाति के सदस्य की उपस्थिति न सिर्फ वर्जित थी, अपितु खतरनाक भी मानी जाती थी, किन्तु अगर आपका कोई भरोसेमंद दोस्त उस जाति का है तो आसानी से घपला किया जा सकता था. मैंने भी किया था- अपने खांटी भोजपुरिया दोस्त गणेश ठाकुर के साथ. गणेश ठाकुर पहले भोजपुरिया था, बाद में भूमिहार या कुछ और. इस तरह मुझे पहली दफा एक जातीय सभा में शरीक होने का मौका मिला था. सीनेट हॉल के मंच पर भगवान परशुराम की तस्वीर राखी गयी थी. मंच पर विराजमान होनेवाले सभी नेतागण बारी-बारी से उस तस्वीर पर माल्यार्पण कर रहे थे. अब तो मुझे उन नेताओं में से ज्यादा के नाम याद नहीं हैं, लेकिन इतना ज़रूर याद है कि शम्भू सिंह (1982 के छात्र संघ चुनाव में भूमिहारों की तरफ से अध्यक्षीय उम्मीदवार थे) व अनिल शर्मा की मौजूदगी मंच की शोभा बढा रही थी. यही अनिल शर्मा आज प्रदेश में कांग्रेस के अध्यक्ष हैं. इस सभा में सभी प्रत्याशियों को अपनी उम्मीदवारी के समर्थन में तर्क प्रस्तुत करने होते थे. हर उम्मीदवार भगवान परशुराम के ऐतिहासिक कारनामों स्मरण करने के पश्चात भूमिहारों की खंडित एकता पर आंसू बहाता और संकल्प लेता कि वह अपने प्राणों की आहूति देकर भी इस धरा से एकबार फिर क्षत्रियों का समूल नाश करेगा. यह भी बताया जाता कि कैसे वह अपनी जाति के ठेकेदारों को पटना विश्वविद्यालय के निर्माण कार्यों में शरीक कराने में सफल रहा. सभा की समाप्ति से पहले उपस्थित लोगों से अपील की गयी कि जातीय एकजूटता के संकल्प को और पुख्ता बनाने के लिए सब्जी बाग स्थित भगवान परशुराम के मंदिर में माथा टेका जाये. मुझे पहली दफा पता चला कि सब्जी बाग में भगवान परशुराम का कोई मंदिर भी है. 
 
अब चलिए राजपूतों की सभा में. यह सभा विधि कॉलेज के हॉस्टल में आयोजित की गयी थी. दद्दा के नाम से मशहूर अशोक सिंह इस सभा की अध्यक्षता कर रहे थे. समीर सिंह जो एक पुराने कांग्रेसी परिवार से ताल्लुक रखते थे, राजपूतों की ओर से छात्र संघ चुनाव में अध्यक्षीय उम्मीदवार थे और वे भी मंच पर विराजमान थे. लेकिन सबकी दिलचस्पी सचिव पद के उम्मीदवार सत्येन्द्र सिंह में ज्यादा दीख रही थी. कारण यह था कि पिछले दिनों बी.एन. कॉलेज में एक भूमिहार छात्र की हत्या की गयी थी और सत्येन्द्र सिंह उसके घोषित कातिल थे. वैसे तो सचिव पद के लिए दूसरे उम्मीदवार भी थे, किन्तु सत्येन्द्र सरीखा दमदार उनमें दूसरा कोई न था. समीर सिंह ने अपने भाषण की शुरुआत करते हुए राणा प्रताप को याद किया और बाद में सिलसिलेवार तरीके से बताया कि उन्हें अपनी जाति के छात्रो को कॉलेज से छात्रवृति दिलवाने में कितने पापड बेलने पड़े; रानीघाट से साइंस कॉलेज तक जो सड़क बनाई गयी उसका ठेका किसी राजपूत को दिलाने में उन्हें कितना ऊंचा-नीचा करना पडा. अध्यक्ष पद के उम्मीदवारों के बोल लेने के पश्चात सचिव पद के उमीदवारों को अपनी-अपनी बात कहने का मौका मिला. अभी कोई नाम याद तो नहीं है, किन्तु इतना ज़रूर याद है कि सत्येन्द्र सिंह के अलावा सचिव पद का एक और उम्मीदवार भी था. पहले बोलने की बारी उसी की थी. उसने बोलना शुरू किया ही था कि सत्येन्द्र सिंह अचानक व्यग्र हो उठा. लोगों को अकस्मात खतरे की घंटी सुनाई पड़ने लगी. सचिव पद का दूसरा उमीदवार अचानक विनम्र हो उठा, अपनी गलती स्वीकार की और भाई सत्येन्द्र के समर्थन में तन, मन व धन से अपना योगदान देने के लिए उत्कंठित हो उठा. सभा निःशब्द हो उठी. सत्येन्द्र ने बोलना शुरू किया. बिना किसी लाग-लपेट के उसने सभा की ओर एक सवाल उछाला. वह जानना चाहता था कि अगर सभा में उपस्थित सभी लोग असल में राजपूती बूँद हैं तो फिर मुझे बताया जाये कि मैं उस बिरादरी में कहाँ हूँ. सभा में सत्येन्द्र भैया की जिंदाबाद के नारे लगाने लगे. कहा गया कि आप से बढ़कर यहाँ कोई राजपूतों का हितैषी नहीं है. इत्ते पर भी जब सत्येन्द्र भैया को संतुष्टि नहीं हुई तो वे खड़े हो गए और लगे बोलने अपनी मातृभाषा भोजपुरी में, "हमरा पिछला साल दुगो केस में जेल जाये के पडल, हम पूछ्तानी कि हम काहे गइलीं जेल में? हमरा बाबु के कवनो गेहूं न कटाईल रहे, ना केहू हमर माई-बहिन के बेईज्ज़त कइले रहे. हम गईल रहीं आपन भाई लोगन के ईज्ज़त बचावे खातिर. लेकिन आज एह मंच पर सब लोग एह तरह से आपन राजपूती कारनामा बतावत बा जईसे ऊ लोग ना रहित त पटना विश्वविद्यालय में ठकुररईती खत्म हो जाईत. हम पूछ्तानी कि जे लोग चुनाव लादे खातिर मुहं बईले फिरता, ऊ कबहूँ गोलियों-बन्दूक चलवले बाडन, कतहूँ बम फोडले बाडन? त भैया गोली-बन्दूक हम चलाईं, बाकि नेता कोई दोसर बने. ई कहवां के न्याय ह. हम एलान करतानी कि अबकी हमहूँ चुनाव लड़ब, जेकरा में जोर होई, ऊ सामने आई.' और इसी तरह की कई फब्तियां और भी सुनते रहे लोग. 
 
सत्येन्द्र की बातों से असहमति तो किसी को नहीं थी, किन्तु कुछ असंतुष्ट किस्म के लोगों को आधिकारिक उम्मीदवारों के खिलाफ अपनी भंडास निकालने क मौका अवश्य मिल गया. इन्हीं में से एक थे सुनील सिंह. वे समीर सिंह के साथी थे, उन्हीं की तरह हमेशा सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहनते थे और नेता बनने का सपना पालते थे, इसलिए दाढी भी रखते थे. वे गुपचुप तरीके से आस लगाये बैठे थे कि इसबार उन्हें राजपूत समाज चुनाव लड़ने का मौका देगा. लेकिन किस्मत के ओछे थे, और उनकी मानें तो समीर सिंह ने ही उनका पत्ता काट दिया था. सभा के समापन के पश्चात उनसे मिलना हुआ तो वे अनायास ही फूट पड़े. लगे, कहने लगे, "वीरेन्द्रजी, आप ही बताइए कि जिस माली ने एक छोटे से पौधे को दिन-रात रखवाली करके धूल-धूप और आंधी से बचाया हो, वही पौधा बड़ा होकर अपनी छाया से माली को ही वंचित कर दे, तो उसे कैसा लगेगा?" मैंने फ़ौरन कहा कि यह तो बेअदबी होगी और हमारे समाज में इस बेअदबी को पसंद नहीं किया जाता. वे आश्वस्त हुए और बताने लगे कि समीर सिंह ने उनकी पीठ में छुरा कैसे भोंका है. मैंने किसी तरह उन्हें शांत किया और विशवास दिलाया कि अगली दफा उनको ज़रूर टिकट मिलेगा. पता नहीं, क्या सोचकर वे सचमुच शांत हो गए और फिर करने लगे इधर-उधर की अनेक बातें. 
 
ऊपर की बातें सुनकर कोई सहज ही अनुमान लगा सकता है कि आठवें दशक का पटना कॉलेज सिर्फ लम्पटों-लुहेडों का जमघट भर था. लेकिन यह इतना छोटा सत्य होगा कि उसकी अनदेखी कर देने में कोई बड़ा गुनाह नहीं हो जायेगा. बिहार के छात्रों के लिए पटना विश्विद्यालय प्रतिभाओं का ऐसा महाकुंड था जिसमें स्नान कर लेने भर से ही काया में कांति पैदा हो जाए. शिक्षक हों न हों, बुरे हों या अच्छे हों, कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि पढाई तो छात्र आपस में एक दूसरे की मदद कर पूरी कर लेते थे. यह अजब भले लगे, किन्तु है सच कि पटना कॉलेज में आकर कई निपट देहाती छात्र भी अंग्रेजी बोलने लगते थे या कम से कम में अंग्रेजी में पढ़ने और लिखने लगते थे. हॉस्टल के छात्र आपस में जिन मुद्दों पर बातचीत करते, उनमें तर्क और अनुभव की ऊष्मा मौजूद रहती. जो छात्र देखने में निहायत ही लम्पट जान पड़ते, वे भी गज़ब के सृजनशील होते. मेरा तो मानना है कि लम्पटई (गूंदागर्दी नहीं) के लिए जितनी बुद्धिमत्ता और परिहास बुद्धि की ज़रुरत होती है, उतनी किसी कक्षा में अव्वल आने के लिए भी नहीं होती. पटना कॉलेज के ज़्यादातर लम्पट सृजनशील प्रकृति के थे. यह अलग बात है कि उनकी प्रतिभा के प्रस्फूटन के लिए वहां कोई मुक्कमल रास्ता नहीं था. मैंने महसूस किया है कि अगर उनमें अपने लिए थोडा और प्यार होता, थोडा और अनुशासन होता तो उनमें से कई आज साहित्य और फिल्म की दुनिया में अपना नाम रौशन कर रहे होते.  
 

आज जब पलटकर देखता हूँ तो भी पटना कॉलेज के बारे में मुझे कुछ भी बुरा नहीं लगता है. एक अजीब मोहकार्षण आज भी दिल पर तारी हो जाता है. हॉस्टल में पंडीजी के मेस में जो खाना पकता था, उसे देखकर भले ही किसी अज़नबी को वितृष्णा हो जाये, किन्तु हमें वह ज्यादा कुछ बुरा नहीं लगता था. मज़े की बात देखिये कि आरा में पढ़नेवाले मेरे मित्र जब कभी पटना आते तो इसी खाने को देखकर लार टपकाने लगते और हमें एहसास करा जाते कि हम नाहक ही अपनी नियति का रोना रोते रहते हैं. बात बात में वे अपने पंडीजी को गालियाँ देते कि इतना पैसा लेकर भी वह हमें गर्मी भर 'ललका साग' और रोटी खिलाता है. सच ही, पटना कॉलेज अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद हम सबके लिए एक मोहक और रमणीक स्थल था जहाँ जीवन का हर रंग अपनी बेबाकी में मौलिक और मोहक प्रतीत होता था. मुझे पटना कॉलेज से मोह है और इसीलिए हमेशा दुआ करता रहता हूँ कि कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन. 

वीरेन्द्र  


 

Friday, May 1, 2009

बिहार विमर्श - 8 : पटना कॉलेज की यादें II

आलेख - वीरेन्द्र 

मैं पहले ही बता चूका हूँ कि पटना कॉलेज में मेरा कैसा भव्य (या कह लीजिये धमाकेदार) प्रवेश हुआ था. आज भी मैं तय नहीं कर पाता कि इस प्रवेश प्रकरण को 'प्रथम ग्रासे, मच्चिको पातः' के रूप में याद करुँ या 'बिल्ली के भाग्य से छीकें के टूटने' के रूप में.

शुरू के दिनों में पटना शहर को ज्यादा से ज्यादा देखने (माफ कीजियेगा, समझने की नहीं) की तमन्ना दिलोंजान पर इस तरह तारी रही कि अपने साथ कौन, क्यों, कैसे और क्या कर रहा है सोच ही नहीं पाया. जो भी हो, इसका एक फायदा यह हुआ कि मैं फोकट में, किन्तु बिना सवारी के नहीं, पूरे शहर को रौंदने में सफल हो गया. यहाँ फोकट का अर्थ बताना ज़रूरी है. तब हम सवारी के रूप में यूनिवर्सिटी बस का इस्तेमाल करते थे. इसके दो तात्कालिक फायदे थे. एक, यह विशवास पुख्ता होता था कि फोकटिया अर्थ-व्यवस्था के वारिस अकेले सिपाही नहीं होते, छात्र भी होते हैं अथवा हो सकते हैं. जब कभी कंडक्टर किसी छात्र से टिकट मांगता तो हम उसे बेवकूफ कह देते या फिर पूछ बैठते कि कहीं तुम्हारा दिमाग तो नहीं ख़राब हो गया? ऐसी बात सुनकर वह सिर्फ मुस्करा देता, कहता कुछ नहीं. सिपाही की तरह पटना के छात्र भी सौदा-बाज़ार करते समय अपने हिसाब से दाम में कटौती कर लेते. दूसरा सबसे बड़ा फयदा यह था कि पटना के नामी-गिरामी मोहल्लों की नफीस लड़कियों को देखने और मर्यादा-अमर्यादा के बीच की भाषा में उनसे कुछ चुहल करने की गुंजाईश बन जाती. लड़कियाँ भी क्या छुई-मुई, इत्ता कुछ सुनने के बाद भी चूं नहीं करतीं. गोया, ईश्वर ने उन्हें ज़बान ही नहीं दी. इस यायावरी में तकरीबन दो महीने बीत गए.  

 
समय आ गया था कि मैं गोपाल बाबु को उनके वायदे का स्मरण कराऊं. मेरी तबियत न्यू हॉस्टल से उचटने लगी थी. रह रह कर मुझे आभास होता कि मैं जो कर पा रहा हूँ, वह नाकाफी है; कि अगर और देर हुई तो उस कीचड से निकलना मेरे लिए असंभव हो जायेगा. मैंने एक आवेदन-पत्र लिखा और उसे लेकर सीधे गोपाल बाबु के सरकारी मकान में दाखिल हो गया. गोपाल बाबु मुझे निजी तौर पर जानते थे क्योंकि छपरा से पटना आते वक़्त मैं राजेंद्र कॉलेज में कार्यरत उनके मित्र वेदा बाबु की सिफारिशी चिट्ठी लेकर आया था. उन्होनें तुरत मेरी बात मान ली और मैं मिन्टो हॉस्टल में आ गया. लेकिन आने से पहले घटी एक बात का ज़िक्र मैं यहाँ करना चाहूँगा. गोपाल बाबु ने बताया कि वैसे तो मेरे अंक मेरे बैच के दूसरे सभी छात्रों से अधिक हैं, किन्तु कतिपय समाजशास्त्रीय कारणों से वे मुझे हॉस्टल का प्रीफेक्ट नहीं बनायेंगे. प्रीफेक्ट बनने में मेरी कोई रूचि नहीं थी, इसलिए मैंने कोई प्रतिवाद नहीं किया. बाद में मंडली के साथियों ने बताया कि गोपाल बाबु माहिर राजनीतिज्ञ हैं और भूमिहार हैं. वे कभी भी किसी गैर-भूमिहार को प्रीफेक्ट नहीं बनने देंगे.  

साथियों का मानना था कि यह घटना राजपूती सम्मान को चोट पहुंचानेवाली है अतः इसका पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए. लेकिन मेरी प्रत्यक्ष अरुचि की वज़ह से मामले को ज्यादा तूल नहीं दिया जा सका. बात आयी गयी हो गयी. यहाँ साफ कर दूं कि गोपाल बाबु के बारे में गैर-भूमिहार छात्रों की राय न केवल तथ्य से परे थी, अपितु उनके अपने जातीय पूर्वाग्रह को भी व्यंजित करती थी. सच तो यह है कि मैं गोपाल बाबु की समाजशास्त्रीय समझ का सबसे बड़ा मुरीद था. बानगी के तौर पर मैं यहाँ एक घटना का ज़िक्र करना चाहूँगा. मिन्टो हॉस्टल में दाखिला लेने के दो-चार दिनों बाद मैं न्यू हॉस्टल से स्थान्तरित होनेवाला था. मुझे अबतक पता न था कि मुझे मिन्टो हॉस्टल में कौन-सा कमरा आवंटित हुआ है. मैं गोपाल बाबु के घर फिर हाज़िर हुआ. वे समझ गए, बैठने का इशारा किया और खुद मेरे सामने आकर बैठ गए. उन्होनें बताया, " जो कमरा मैंने आपके लिए अनुकूल माना है, उसमें पहले से तीन छात्र रहते हैं - एक भूमिहार, एक यादव और एक दलित. आप चौथे होंगे और ठाकुर हैं. इस तरह कमरे में जातीय संतुलन बना रहेगा और कोई भी जाति के आधार पर उन्मादी बयान देने अथवा बहसबाजी करने से स्वभावतः गुरेज़ करेगा'. उनकी यह बात बाद के दिनों में सोलहों आने सच साबित हुई.

 लेकिन, दुर्भाग्य ने यहाँ भी मेरा पीछा नहीं छोडा. जिसका डर था, बेदर्दी वही बात हो गई. पलक झपकते ही मैं मिन्टो हॉस्टल में राजपूतों का नेता मान लिया गया. पटना कॉलेज परिसर में तीन हॉस्टल थे - जैक्सन हॉस्टल, मिन्टो हॉस्टल और न्यू हॉस्टल. मैं तीनों होस्टलों के मामले में नेता मान लिया गया था. उस समय पटना की शैक्षणिक संस्थाओं में जैसा माहौल था, उसमें इस बातकी सदैवसंभावना बनी रहती थी कि कहीं किसी यादव-कुर्मी अथवा भूमिहार-राजपूत में भिडंत हो जाये. राजपूत से सम्बंधित झगडों में मुझे अक्सर पंच मान लिया जाता और मैं राजपूत और भूमिहार दोनों के लिए विशेष पदवी का हक़दार हो जाता. मुझे आज यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि अपनी प्रत्यक्ष अरुचि के बावजूद ऐसी पंचायती करने में मुझे एक अजीब-सा शिशुवत शुकून मिलता था.  

दरअसल, मेरे लिए यह एक ऐसा सौदा था जिसमें लाभ ही लाभ था यानी 'हर्रे लगे न फिटकिरी, रंग चोखा होए'. वह तो बाद में पता चला कि इस सौदे में सिर्फ लाभ ही लाभ नहीं, नुकसान भी थे. अपने नुकसान की बात तो फिर कभी बाद में बताऊंगा, लाभ कि अभी बताये देता हूँ. पहला और सबसे बड़ा लाभ तो यह था कि मुझे दुनिया के तमाम मुदों पर अपनी दृष्टि साफ करने के लिए लगभग मुर्ख, किन्तु परोपकारी और कर्तव्यपरायण श्रोता समूह मिल जाता था. सच कहूं तो इस फायदे के बारे में भी मेरा अनुमान बिल्कूल नया है. सोचने पर लगता है कि इस फायदे का भान मुझे भले अब हुआ हो, लेकिन यह फायदा मुझे फायदा पहले ही पहुंचा चूका था. आज अगर मैं किसी मुद्दे पर पढ़े-ज्यादा पढ़े लोगों के बीच कुछ कहने में घबराता नहीं हूँ तो इसीलिए कि इस कला का अभ्यास करने का मौका मुझे युद्ध-भूमि में मिला था. सचमुच, पटना कॉलेज के उस कुनाबाई मित्र-मंडली के साथ जीना युद्ध भूमि में जीने जैसा था. 
 

दिन के चौबीस घंटे और उनके जीवन में एक भी घंटा ऐसा नहीं जिसमें वे जीवन, जगत, करम-धरम या किसी और चीज के बारे में सोचते हों. उनपर हमेशा एक ही नशा तारी रहता " कैसे आनंद मनाएं, कैसे मज़ा लें और क्या करें कि बस बल्ले...बल्ले....नित्य-क्रिया निवृति के पश्चात वे जलेबा खाने रमना रोड के मुहाने पर स्थित हलवाई की दूकान पर जाते, वहीं खड़े-खड़े दो-तीन कप चाय पीते और सबसे अंत में आठ - साढे आठ बजे पान चबाते हुए हॉस्टल में लौट आते. फिर नहाते, खाते और 9:20 की आनर्स क्लास अटेंड करने कॉलेज पहुँच जाते. उनकी दिनचर्या खत्म होती 11 और साढे ग्यारह बजे रात में जब वे मेस में खाना खाकर सोने के लिए अपने कमरे में वापस आते. लेकिन बता दूं कि मंडली के सभी मित्र इस साधना में बराबर निपुण नहीं थे और न ही सबमें इस रूटीन के प्रति बराबर की दिलचस्पी थी. तो क्या यह मंडली एकजूट नहीं थी? बिल्कुल थी, तथापि मंडली के प्रत्येक सदस्य को यह अधिकार था कि वह मंडली के इत्तर भी अपनी रूचि और सामर्थ्य के हिसाब से रिश्ते बना ले. इस लोकतान्त्रिक संस्कृति का असर यह हुआ कि सब साथ-साथ रहते हुए भी अलग-अलग समय पर अलग-अलग समूह में शामिल हो लेते थे. कुछ धूर सदस्यों की बात छोड़ दी जाये तो प्रत्येक सदस्य की एक अलग मंडली भी हुआ करती थी. सच तो यह है कि मंडली की एकजूटता खास कामों में ही दीखती थी. ये खास काम थे - बिना नागा हुए रोज़ शाम में करीब 5-6 बजे पटना मार्केट जाना, साप्ताहिक आधार पर सामूहिक रूप से फिल्म देखने जाना, सुबह-शाम गणेशदत्त हॉस्टल के चक्कर लगाना और लगभग धार्मिक अनुष्ठान की तरह रोज़ कम से कम एक घंटे के लिए न्यू हॉस्टल के पिछवाडे की दीवार पर बेअदबी का सामूहिक अभ्यास करना. इनके अलावा सबकी अलग पहचान थी, सबके अलग मक़सद थे. मंडली में एक-दूसरे को नसीहत देने की सख्त मनाही थी. सिर्फ संकट ही सामूहिक मानी गयी थी, बाकी सबकुछ निजी. कोई पढ़े, न पढ़े अपनी बला से.  

मिन्टो हॉस्टल में आना मेरे लिए वास्तव में वरदान साबित हुआ. मेरी मंडली के ज़्यादातर सदस्य मिन्टो हॉस्टल में आने से कतराते थे, क्योंकि वे मानते थे कि इस हॉस्टल में रहनेवाले छात्र मर्दानगी के मामले में थोड़े कमज़ोर होते हैं. लेकिन सच यह है कि वे कतराते नहीं, घबराते थे कि कहीं कोई पढाई-लिखाई की बात न छेड़ दे. खुदा न खास्ता अगर गोपाल बाबु मिल गए तो बेडा गर्क ही मानिए. नसीहत देना उनका शौक भी था और पेशा भी. उनके बारे में कोई कुछ भी कहे, वे वही कहते थे जो उनको किसी छात्र के लिए बेहतर लगता. खैर, मिन्टो हॉस्टल में आकर नए-नए लोगों से मेरे नए-नए रिश्ते बने. यहीं आकर मुझे क्रांतिकारी रुझान के  मार्क्सवादियों से मिलने का मौका मिला और यहीं आकर मेरी छवि लोफर के बजाय एक मेधावी छात्र की बनी. हॉस्टल के वरिष्ठ अन्तेवासी भी मुझे तवज्जो देते क्योंकि मैं अपने बिंदास अंदाज़ और हंसोड़ प्रकृति की वज़ह से हमेशा सामूहिक चर्चा का केंद्र बना रहता था. मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि अन्तेवासियों के बीच जाति के आधार पर कोई ख़ास खेमाबन्दी थी. दरअसल, जाति के सवाल को वही छात्र ज्यादा प्रचारित-प्रसारित करते थे जिनका छात्र के रूप में कोई खास वजूद नहीं होता था. मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जो छात्र अपनी-अपनी जाति के नेता थे या बिना होते हुए मेरी तरह मान लिए गए थे, वे वास्तव में उम्दा इंसान थे. उनमें मेरे कई ऐसे दोस्त थे जो अपनी इस नियति पर कल भी हंसते थे और आज भी हंसते हैं.  

(अगले अंकों में मैं आपको हॉस्टल से निकालकर पटना कॉलेज और उसके आस-पास के मुख्य सरकारों से परिचित करवाने की कोशिश करूंगा. तबतक के लिए धीरज रखिये,)

वीरेन्द्र