वीरेन्द्र पटना कॉलेज में दाखिले के बाद के शुरूआती अनुभव बता रहें हैं .पढें और इस विमर्श को आगे बढायें.
'अथ स्कूल कथा' से आगे की दास्तां पहले छपरा और बाद में पटना में शुरू हुई. स्कूल की पढाई पूरी करने के बाद मैं पहले छपरा गया जहाँ के नामी-गिरामी राजेंद्र कॉलेज में मेरे बड़े भाई की नियुक्ति व्याख्याता के पद पर हुई थी. आर्थिक तंगी और पारिवारिक खर्चे में क़तर-ब्योंत की मजबूरी ही मुझे छपरा ले आई थी, वरना ईच्छा तो मेरी शुरू से ही पटना के साइंस अथवा पटना कॉलेज में पढ़ने की थी. खैर, छपरा कई कारणों से मेरी रूचि का केंद्र नहीं बन सका और इसीलिए वहां के अनुभवों का न तो मेरे पास कोई मुकम्मल फेहरिस्त है और न ही कोई ऐसी मिसाल जिसका ज़िक्र करना मुझे लाजिमी लगे. जैसे-तैसे करके दो साल गुज़र गए और मैं विज्ञानं में इंटर की डिग्री हासिल करने में सफल हो गया. अलबत्ता, इन दो सालों में मेरा कायाकल्प हो गया था. स्कूल में मैं विज्ञान का एक मेधावी छात्र हुआ करता था, किन्तु छपरा प्रवास के दौरान यही मेधा सबसे ज्यादा कुन्द हुई. अब मैं चाहकर भी इंजिनियर बनने का ख्वाब नहीं पाल सकता था. ले-देकर मेरे सामने एक ही विकल्प रह गया था कि किसी तरह पटना कॉलेज में नामांकन लूं और प्रशासनिक सेवा में जाने की भरपूर कोशिश करुँ.
और इस तरह मैं सन् १९८१ में समाजशास्त्र के छात्र के रूप में पटना के पटना कॉलेज में दाखिल हो गया. बता दूं की पटना कॉलेज मेरे लिए कतई अजाना नहीं था. मेरे बड़े भाई इसी कॉलेज से राजनीतिशास्त्र में सन् १९७८ में ही स्नातक हो चुके थे. इसके अलावा, भैया के कई दोस्तों के छोटे भाई भी तबतक पटना कॉलेज में दाखिला ले चुके थे. गरज फ़क़त इतनी है कि पटना कॉलेज में आते ही मुझे विरासत के रूप में पूरा का पूरा कुनबा हासिल हो गया था. चूंकि मसाला कुनबे का था, इसलिए उसमें किसी गैर-जातीय की उपस्थिति लगभग गायब थी. अलबत्ता, एक-दो ऐसे परिचित भी थे जो मेरी जाति के नहीं थे. खैर, इस मंडली के निर्माण में मेरी कोई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भागीदारी नहीं थी और इसीलिए मुझे न तो उसका मलाल था, न ही फक्र. मेरे लिए उनके लिए, सबके लिए ऐसी मित्र-मंडलियाँ प्रकारांतर से सुरक्षा कवच मुहय्या कराने का भ्रम पैदा कराती थीं.
अजब न होगा अगर कहूं कि पटना कॉलेज मेरे लिए अपने टूटे-अधटूटे सपनों को फिर से जोड़ने का एक अदद मुकाम बनकर आया था. सुनते आया था कि पटना कॉलेज से स्नात्तक की डिग्री कोई मामूली चीज़ नहीं होती, क्योंकि यह कॉलेज बिहार का ऑक्सफोर्ड माना जाता था. कॉलेज में दाखिला लेने के साथ ही छात्रावास में कमरा पाने की ललक और ज़रुरत सामने आन पड़ी. इंटर में मुझे जितने अंक मिले थे, उसके आधार पर मुझे आसानी से जैक्सन अथवा मिन्टो हॉस्टल मिल जाता, किन्तु ऐसा हो न सका. मिन्टो हॉस्टल के वार्डेन गोपाल बाबु ने सुझाया कि पहले मैं न्यू हॉस्टल में दाखिला ले लूं; फिर एक-दो महीने बाद वे मिन्टो हॉस्टल में मेरी भर्ती कर लेंगे. न्यू हॉस्टल तबतक बैकवर्ड -फारवर्ड संघर्ष का केंद्र बन चूका था. वहां रहनेवाले छात्र पढाई के लिए कम और लडाई के लिए ज्यादा जाने जाते थे. मुझसे भी कहा गया कि मैं आग में न कुदूं. लेकिन न कूदता तो रहता कहाँ? वैसे मेरे रहने के लिए मंडली के पास फोकटिया व्यवस्था मौजूद थी. जैक्सन हॉस्टल का तीन कमरों का आउट हाउस मित्र-मंडली के कब्जे में विगत कई सालों से था. कब्ज़ा जमाने में चूंकि मेरे बड़े भाई का भी यथेष्ठ योगदान था, इसलिए मेरी उपस्थिति किसी को नागवार नहीं गुज़रती. इसके अलावा, न्यू हॉस्टल का पांच कमरों का आउट हाउस भी मेरे कुनबे के पास था. फिर भी, मैं चाहता था कि मैं अलग रहूँ. यही सोचकर मैं अस्थायी रहवासी के तौर पर न्यू हॉस्टल में जाने के लिए तैयार हो गया.
तैयार तो हो गया लेकिन हॉस्टल में प्रवेश पाने के लिए इतना काफी नहीं था. कहा गया कि बेहतर यही होगा कि जो कमरा मुझे आवंटित किया गया है, उसके पुराने रहवासियों की पूर्व-सहमति ले लूं ताकि बाद में पछताना नहीं पड़े. शाम के वक़्त मैं अपने एक साथी के साथ अपने आवंटित कमरे के एक पुराने रहवासी से मिला और फरियाद की कि मुझे तत्काल रहने की ईजाज़त दी जाये. जी हाँ, उनका नाम योगीन्द्र सर था और वे भी राजपूत थे. फॉरवर्ड ब्लाक में उनकी तूती बोलती थी, उनके कृपापात्र हुए बगैर किसी की औकात नहीं थी कि वह हॉस्टल में रहवासी बन सके. उनने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और पूछा कि क्या मुझे किसी ने बताया नहीं कि उनके कमरे में अब कोई ज़गह नहीं है. प्रत्युत्तर में मैंने कहा कि आपका कमरा तो चार छात्रों के लिए है और अभी उसमें सिर्फ दो ही हैं. मेरी बेवकूफी पर वे ठठाकर हंस पड़े और पूरे मसले को अपने मित्र के हवाले कर दिया. पहला करेला, दूजा नीम और दोनों के बीच दांत काटे की रोटी का रिश्ता. उनके मित्र ने साफ शब्दों में कह दिया कि इस कमरे में तो वे सिर्फ दो ही रहेंगे और मैं किसी और कमरे में अपना इन्तेजाम कर लूं. मेरी सूरत देखने लायक थी. लेकिन मेरी मंडली के मित्र के चहरे पर कोई शिकन नहीं आयी. उसने चलते हुए सिर्फ इतना कहा कि ठीक है, हम शाम में फिर आयेंगे.
दरअसल, मुझसे एक गलती हो गयी थी. छूटते ही मुझे बता देना चाहिए था कि मैं भी एक ठाकुर हूँ और मेरी भी यहाँ एक मंडली है. शाम को मैं राजेंद्र भैया के साथ फिर न्यू हॉस्टल पहुंचा और सीधे अपने आवंटित कमरे के दरवाज़े पर दस्तक दे दी. योगीन्द्र सर कमरे से बाहर निकले और अनिद्रा में ही राजेंद्र भैया को देखकर ठिठक गए. राजेंद्र भैया ने मुझसे कहा कि मैं इस कमरे के पुराने रहवासियों के सामान निकाल कर बाहर फ़ेंक दूं और अपना बोरिया बिस्तर किसी एक बेड पर लगा लूं. योगीन्द्र सर को शुरू में इस जवाबी हमले की उम्मीद नहीं थी. वे गिरगिराने लगे और कहने लगे कि मैं कितना भोला हूँ; यह भी न बताया कि मैं राजेंद्र भैया का करीबी हूँ. इत्तेफाक देखिये कि हॉस्टल में आते ही मैं मशहूर हो गया. कानों कान खबर फैल गयी कि मैं कोई मामूली शख्स नहीं हूँ, कि मुझसे पंगा लेना खतरे से खाली नहीं होगा. बिन चाहे, लम्पटों की ज़मात का सिरमौर मान लिया गया. ऊपर से तुर्रा यह कि न्यू हॉस्टल में दाखिला लेनेवालों में मेरे अंक सबसे ज्यादा थे, सो मैं हॉस्टल का आधिकारिक बॉस भी बना दिया गया. यानी, दो नावों पर सवारी करने का जोखम.
बाद के दिनों में योगीन्द्र सर मेरे सबसे बड़े शुभचिंतक साबित हुए. उन्हीं की सोहबत में मैं न्यू हॉस्टल के पिछवाडे की टूटी दीवारों पर बैठकर शाम का वक़्त गुजारता, गणेश दत्त हॉस्टल से आनेवाली और जानेवाली लड़कियों को लालची निगाहों से निहारता. वक़्त-बे-वक़्त उन लड़कियों को हम बड़ी बेअदबी से भाभी का संबोधन देते और अगर वे इस संबोधन पर गुस्सा करतीं तो हम उनकी ऐसी-तैसी करने में भी कोई गुरेज़ नहीं करते. नतीजा यह हुआ कि लड़कियों से दोस्ती की संभावना सदा-सदा के लिए निर्मूल हो गयी. योगीन्द्र सर मेरे हनुमान थे और बिन बुलाए मेरी ओर से किसी के साथ लम्पटई करने पर उतारू हो जाते थे. वे जानते थे कि मेरी दिलचस्पी पढाई में है, सो वे पूरी कोशिश करते कि कोई मुझे किसी तरह पढ़ने में बाधा न पहुंचाए. यहाँ राज़ की एक बात और बता दूं. योगीन्द्र सर अपने जुराब में हमेशा चिलम छुपाये रखते थे और कमीज़ के पॉकेट में गांजे की पुडिया. सबसे पहले मैंने गांजा उन्हीं के साथ पी थी. कभी-कभी वे मुझे शराब भी पिलाते थे लेकिन इस हिदायत के साथ कि शराब पीना अच्छे विद्यार्थी के लिए अच्छी बात नहीं होती. मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि योगीन्द्र सर से ज्यादा मुहंफट और बेअदबी आदमी मैंने आजतक नहीं देखा है. जिस विश्वास के साथ वे लड़कियों को गाली दे लेते थे, हाथापाई करने पर उतारू हो जाते थे वह सबके बूते की बात नहीं थी. वे मानते थे कि अगर लड़कियाँ कॉलेज में पढ़ेंगी तो लडके छेड़खानी करेंगे ही.
आज इतना ही. पटना कॉलेज के अनुभव, क्या कहिये, हरि अनंत हरि कथा अनंता. आगे की कड़ी का इंतज़ार आपकी तरह मुझे भी रहेगा. तबतक के लिए इसी से संतोष करें.
वीरेन्द्र
1 comment:
वीरू, शानदार! महीन, इमानदार और बुलंद. वाह! वाह! तुम्हारे लिखे पर दुष्यंत का शेर याद आता है - ग़लत कहूं तो मेरी आकबत बिगड़ती है, जो सच कहूं तो खुदी बेनकाब हो जाए. तुम सब काम छोड़ कर बस लेखक बन जाओ.
'संजीव रंजन, मुजफ्फरपुर'
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