उडी जहाज को पंछी, फिर जहाज पै आवै
आलेख - वीरेन्द्र
'अथ स्कूल कथा' के नाम से जो संस्मरण लेकर मैं आपके सामने उपस्थित हुआ था, वह खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है. प्राईमरी स्कूल के बारे में तो जैसे-तैसे बात पूरी हो गयी है, किन्तु हाई स्कूल की चर्चा में अभी भी बहुत कुछ बाकी है. दरअसल, आरा का हरप्रसाद दास जैन स्कूल मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ था जिसकी चर्चा किये बगैर मेरे लिए यह बताना संभव नहीं हो पायेगा कि स्कूल हमारे जीवन में इतने महत्वपूर्ण क्यों माने गए हैं.
सन् 1974 में राष्ट्रीय ग्रामीण छात्रवृति प्रतियोगिता में जैसे ही मेरा चयन हुआ, वैसे ही यह तय हो गया कि अब हाई स्कूल की पढाई के लिए मुझे अपना गाँव छोड़ना होगा. वैसे तो इस प्रतियोगिता का सफल छात्र जिले की तीन चयनित स्कूलों में से किसी भी स्कूल में दाखिला ले सकता था, किन्तु जैन स्कूल की बात ही कुछ और थी. इस स्कूल में पिछले 5 वर्षों में किसी भी छात्र को द्वितीय श्रेणी नहीं मिली थी और न ही कोई बोर्ड की परीक्षा में असफल हुआ था. यानी, सफलता का महाकुंड.
स्कूल के बारे इतना जानना ही काफी था, इसलिए बिना विलंब किये मैं अपने बड़े भाई के साथ आरा के जैन स्कूल में दाखिला लेने आरा आ गया. बड़ा भाई तब पटना कॉलेज में पढ़ते थे और सामान्य छात्रों की तुलना में ज्यादा स्मार्ट दिखते थे . गाँव से चला तो मन में एक अजीब उत्साह था, किन्तु दाखिला लेते ही उत्साह की जगह निराशा ने मन में डेरा ड़ाल दिया. दाखिले के बाद बड़ा भाई पटना लौट गया और मैं स्कूल के हॉस्टल में. चूंकि यह मेरा पहला दिन था, इसलिए मुझे स्कूल के क्लासेज़ अटेंड नहीं करने पड़े. उल्टे, प्राचार्य ने एक चपरासी के साथ मुझे हॉस्टल में भेज दिया. वार्डेन थे रमाकांत जी - हिंदी के मर्मज्ञ विद्वान् और अनुशासन के पक्के. एक बही पर मेरा नाम लिखने के बाद उनने कहा कि कल से मुझे भी सही समय पर स्कूल जाना होगा; कि आज मुझे एक बीमार अन्तेवासी के साथ दिन भर हॉस्टल में ही रहना होगा.
न तो मैंने अबतक इतना बड़ा स्कूल देखा था और न ही हॉस्टल जैसा सुन्दर भवन. हमारा हॉस्टल आरा के ऐतिहासिक रमना मैदान के दक्षिण-पूर्वी कोने पर, शहीद भवन के ठीक सामने बना था. यह आरा के किसी पुराने रईस की हवेली थी जिसे स्कूल ने किराये पर उठा लिया था. यूं तो किसी शहर में यह मेरा पहला दिन था, किन्तु मुझे वहां कुछ भी आकर्षक नहीं लग रहा था. मन में कई-कई तरह के ख़याल उमड़-घूमड़ रहे थे. गाँव-घर, साथी-संगी, घर-परिवार को याद करके मन दुखी हो रहा था. आँखों से बरबस आंसू निकले पड़ते थे. कि तभी दोपहर के दो बजे, और मैं हॉस्टल की खिड़की से बाहर देखने लगा. अचानक मुखे शहीद भवन के परिसर में योगीन्द्र बस खड़ी दीखी. यानी, डूबते को तिनके का सहारा. यह बस शाम में आरा से सन्देश जाती थी और सुबह में सन्देश से आरा आती थी. मैंने फ़ौरन फैसला कर लिया कि चार बजने से पहले मैं हॉस्टल से भागकर बस में सवार हो जाऊंगा. भाई पटना वापस लौट गए थे और गाँव में मां के अलावा कोई पूछताछ करनेवाला भी नहीं था. यानी, खुद ही भयो कोतवाल, अब डर काहे का. इधर तीन सवा तीन बजे का समय हुआ और उधर मैं अपनी गठरी लेकर फुर्र. जा पहुंचा योगीन्द्र बस में. विजय जो उस बस का कंडक्टर हुआ करता था, वह मेरे गाँव के सभी लोगों को जानता था. मैंने खतरा महसूस किया कि हो न हो यह आदमी मेरे किये-कराये पर पानी फेर देगा. मैं उससे तबतक आंखमिचौली करता रहा जबतक बस ने खुलने से पहले की अंतिम सिटी नहीं बजा दी. फिर बड़े इत्मीनान से पीछे की एक सीट पर जा बैठा और शाम होते-होते अपने गाँव अह्पुरा पहुँच गया.
छमाही की परीक्षाएं एक हफ्ते बाद होनी थीं और मेरे पास अभीतक सभी किताबें भी नहीं थी. मन एक अजीब अपराध-बोध से पीड़ित था. डर लगने लगा कि कहीं परीक्षा में फेल न हो जाऊं. समय इतना कम था कि चाहकर भी सभी विषयों की तैयारी संभव नहीं थी. गणित, रसायनशास्त्र और भौतिकी की किताबें कहीं से भी पल्ले नहीं पड़ रही थीं. यानी करिया अच्छर भैंस बराबर. लेकिन अब उपाय ही क्या था? परीक्षाएं शुरू हुईं और जैसे-तैसे मैंने भी उसमें अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली. जो परिणाम निकला, वह चौंकानेवाला नहीं था, अपितु डरानेवाला था. विज्ञान और गणित में इतने कम अंक आये थे कि मैं उसे किसी भी सूरत में अपनेभाईअथवा पिताजी को नहीं दिखा सकता था. अब बता दूं कि इन विषयों में मेरे अंक वितरण कैसे थे. गणित के प्रथम पत्र जिसमें सिर्फ अंकगणित के प्रश्न होते थे, मैं खींच-खांचकर 100 में से 30 अंक प्राप्त करने में सफल हो गया. लेकिन, ऊच्च गणित, रसायनशास्त्र और भौतिकी में शून्य से ही संतोष करना पड़ा. वर्ग शिक्षक ने मेरी प्रगति रिपोर्ट पर टिपण्णी जड़ दी थी कि मैं विज्ञान की पढाई नहीं कर सकता; कि अगले वर्ष मुझे कला संकाय में ही पढ़ना होगा. सिर्फ ईश्वर जानता है कि मैं उस दिन कितना रोया था. रात भर नींद नहीं आयी, रात भर यही सोचता रहा कि अब मां, पिताजी, भाई तथा संगी-साथियों को अपना मुहं कैसे दिखाऊंगा. इलाके में शोर था कि पहलवान साहब का यह बेटा एक दिन जरूर उनका नाम रौशन करेगा. लेकिन, होनी को कौन टाल सकता है! खैर, मैंने उनकी नाक नहीं कटने दी और बाएँ हाथ से प्रगति रिपोर्ट पर पिताजी का नाम लिखकर स्कूल में जमा कर दिया. रिजल्ट देखकर मन इतना दुखी था कि किसी से बात करने की भी ईच्छा नहीं हो रही थी.
स्कूल की छुट्टी हुई और मैं अपने बेड पर आकर निढाल हो गया. मेरे बेड से सटा हुआ बेड जिस लडके का था, उसका नाम अनुग्रह था. उसके व्यक्तित्व में एक अजब तरह की रवानी थी. उसके कपडे-लत्ते देखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता था कि वह गुदरी का लाल है. पूरे हॉस्टल में वह एकमात्र ऐसा छात्र था जिसे किसी ने कभी उदास नहीं देखा. उसमें हंसने-हँसाने की अद्भूत काबिलियत थी. लेकिन जो चीज उसके व्यक्तित्व को ईश्वरीय आभा प्रदान करती थी, वह थी उसकी संवेदनशीलता. उसने ताड़ लिया कि मैं बहुत दुखी हूँ; कि मुझे एक अदद साथी की ज़रुरत है. उसने चुहल भरे अंदाज़ में पूछा, "क्या हुआ? किसी ने तुम्हारी पिटाई तो नहीं कर दी? चलो, साले की अभी और यहीं ऐसी-तैसी कर दूं." उसकी बातें मुझे इतनी बचकानी लगीं कि मैं अनायास हंस पड़ा. वह भी खिलखिलाने लगा. बिना देर किये मैं पूछ बैठा कि क्या मैं सचमुच विज्ञान नहीं पढ़ सकता? उसके होंठों पर एक स्मित मुस्कान खिल उठी. उसकी इस निर्मल हंसी ने मेरे मन की पीडा हर ली. ढांढस बंधाते हुए उसने सहज लहजे में कहा, "तुम्हें ऐसा क्यों लगता है? विज्ञान पढ़ने से ज्यादा आसान कोई चीज नहीं होती. अबतक जितनी पढाई हो चुकी है, उसे मैं तुम्हें एक हफ्ते में पढा दूंगा." अचानक मेरा मन भी निर्मल हो गया. मैंने मन ही मन ठान लिया की अब पढूंगा तो विज्ञान ही, वरना कुछ नहीं. शुरुआत हुई उच्च गणित से. अनुग्रह ने मुझे दो अध्याय पढाया. मुझे लगने लगा कि गणित कोई मुश्किल काम नहीं है. वास्तव में मैं इतना उत्प्रेरित हो गया कि रात में सोने के बजे मैं उच्च गणित के सवाल हल करने लगा. सुबह चार बजे तक मैं पूरी किताब ख़त्म हो गयी. इसी तरह मैंने रसायनशास्त्र, भौतिकी और अंकगणित किताबें भी हल कर डाली. नतीजा चौंकानेवाला साबित हुआ. सालाना इम्तहान में मुझे गणित सहित विज्ञान के सभी विषयों में अव्वल अंक मिले और मैं अपनी कक्षा में द्वितीय स्थान प्राप्त कर सका. इतना आत्मविश्वास मेरे जीवन में दुबारा कभी नहीं आया. धन्य है वह मित्र और धन्य वह स्कूल! सोचता हूँ कि अगर रामपुकार मुझे गाँव से पकड़कर दुबारा स्कूल में नहीं लाया होता और स्कूल में अनुग्रह जैसा दोस्त न मिला होता तो मैं क्या होता?
आज जब पलटकर पीछे के जीवन को याद करता हूँ तो लगता है कि अनुग्रह सिर्फ मेरी सहायता के लिए जैन स्कूल आरा में आया था. वह मेधावी था, किन्तु अत्यंत गरीब भी था. नवीं कक्षा में उसकी शादी हुई. हॉस्टल के दोस्तों में मैं अकेला था जो उसकी शादी में शरीक हुआ था. बनाही स्टेशन से करीब तीन मील पश्चिम उसका गाँव था. वह जाति का कुम्हार था और उसके पिता गाँव के दूसरे खेतिहर किसान की बनिहारी करते थे. मुझे आज भी वह दृश्य याद है जब मैं अनुग्रह के साथ उसके गाँव पहुंचा था. उसके पिता ने खड़े होकर मेरी आवभगत की थी और अपनी बेटी को सख्त हिदायत दी थी कि मेरे लिए अलग से स्वादिष्ट खाना पकाए. मैं इस स्वागत से विभोर था. मैंने पूरी विनम्रता से उनके इस आदेश को नामंजूर कर दिया और जिद्द कर बैठा कि मैं भी वही खाऊँगा जो सभी खायेंगे. शादी का घर और भोजन के रूप में सत्तू का आहार! सच ही, गरीबी क्या जाने कि उत्सव! अब मैं पक्के यकीन के साथ कह सकता हूँ कि कृष्ण को विदूर की साग-रोटी क्यों अच्छी लगती होगी. स्कूल की पढाई तो अनुग्रह ने जैसे-तैसे पूरी कर ली, किन्तु गरीबी ने उसे कॉलेज की पढाई नहीं करने दी. प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा उतीर्ण की थी उसने और उसे अंक भी अच्चे भले मिले थे.
बाद में पता चला कि वह एयर फोर्स में सिपाही हो गया है. स्कूल छोड़ने के बाद सिर्फ एकबार ही मैं उससे मिल सका. वह भी आरा स्टेशन पर. मैंने जिद्द कर डाली और उसके साथ तीन दिनों के लिए उसके गाँव पहुँच गया. तबतक उसके घर की गरीबी ढह चुकी थी और घर में नए जीवन का संचार हो चूका था. उसकी पत्नी रमावती एक कुशल गृहणी के रूप में उसके दो बच्चों (एक बेटा, एक बेटी) की बड़े अच्छे ढंग से परवरिश कर रही थी और पिता ने बनिहारी छोड़कर गाँव में ही नून-तेल की दूकान खोल ली थी.
काश, कभी फिर मिलना हो उससे!
यह कृष्ण-सुदामा की दोस्ती नहीं थी, बल्कि दो सुदामाओं की दोस्ती थी.
खुदा उसे और उसकी निर्मल हंसी को सलामत रखे.
('अथ स्कूल कथा' की अगली तीन कडियाँ क्रमशः मित्र कौशल के सिपुर्द की जाएँगी वे उन्हें अपने ब्लॉग पर बिठाते रहेंगे. तबतक के लिए खुदा हाफिज़.)
वीरेन्द्र
1 comment:
मित्रों के सौजन्य से बिहार विमर्श आगे बढ़ता दिख रहा है . इस विमर्श का कैनवास बड़ा है . वीरू , सुजीत अपने पलने , बढ़ने और पढ़ने के अनुभव इस विमर्श के तहत शेयर कर रहे हैं. बड़ा मकसद यह है कि भले हीं हम बिहार की तत्कालीन परिस्थितियों का क्रिया - कारण के तर्ज पर कोई मुकम्मल विश्लेषण न प्रस्तुत कर पायें पर कम से कम उस कैनवास पर सारे रेखाचित्रों और रंगों को तो इमानदारी से भर दिया जाय .
सदियों से ज्ञानी और गुणी जन कहते रहे हैं कि व्यक्ति में समाज और समाज में व्यक्ति समाया हुआ है .
हमारे अनुभव निजी होते हुए भी एक खास भूगोल के सामजिक और सांस्कृतिक दायरे में बंधे होते हैं . इन अनुभवों में यूं तो अपनी निजी व्यथा - कथा , राग - रंग है पर निसंदेह इसमें जमाने का दर्द ,उसकी हसरतें या कहें तो उस पुरे दौर की तारीख नजर आती है .
वीरेन्द्र के इस लेख में बहुत सी बातें नजर आती हैं.पहला - जैन स्कूल आरा में व्यवस्था इतनी बढ़िया थी और स्कूल के कर्ता धर्ता का कर्तव्य बोध इतना उम्दा के स्कूल ने एक आदमी भेज कर संदेस से इस नटखट बालक को पुनः बुलवाया .
दूसरी बात - अनुग्रह तो फिर भी खुशनसीब थे बरसता जैन स्कूल आरा , कम से कम एयर फाॅर्स तक तो पंहुचे .और अनगिनत अनुग्रह जैसे फूल बने बगैर मुरझा जाते हैं और धुल धूसरित हो जाने को अभिशप्त है.
मुझे नेहरूजी के किसी लेख की एक पंक्ति याद आती है जिसमें उन्होंने यह लिखा कि people donot realise the cost of not changing the society. और यह कीमत कौन और किस किस रूप में चुकाता है इसकी फेहरिस्त तो अलग से एक विषय है
वीरू , इस कथा को बढाते रहें .पढ़ना कहें कि सुनना ? पर अच्छा लग रहा है.
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