वीरेन्द्र , बिहार विमर्श की अगली कड़ी : अथ स्कूल कथा - भाग दो .
कैसा था गाँव का स्कूल ?
'अथ स्कूल कथा' के नाम से जो संस्मरण मैंने सुनाया था, वह कई कारणों से मुझे अधूरा लगा. अव्वल तो यही कि मैं उन तमाम लम्हों से आपको रु-ब-रू नहीं करा सका जो मेरे बनने-बिगड़ने में खास रूप से सहायक रहे थे. तो आईये, एकबार फिर मेरे साथ स्कूल की यादें ताजा करें.
पहले बता चूका हूँ कि इस विद्यालय में एक ही शिक्षक नियमित रूप से आते थे और वही पहली कक्षा से लेकर पांचवीं कक्षा के छात्रों को हरेक विषय पढाते थे. लेकिन जो दो शिक्षक अनियमित थे, उनमें से एक हेडमास्टर साहब के छोटे भाई थे और दूसरे चेला गाँव के पंडीजी. दोनों बच्चों से खूब प्यार करते थे. सच तो यह है कि पंडीजी से कोई बच्चा डरता ही नहीं था. डरे भी तो किसलिए? पंडीजी तो खुद ही बच्चों के साथ रोज़ शाम में 'मुअनी-जीअनी' का खेल खेलते थे. मुझे आज तक पता नहीं चल पाया कि यह खेल खुद पंडीजी ने ईजाद किया था या फिर यह किसी और देश से हमारे देश में आया था. खैर, इस खेल के नियम बड़े सरल थे. बच्चों की टोली गोला बनाकर पंडीजी के चारों ओर घूमने लगती; पंडीजी आँखें बंद किये मुहं में कुछ बुदबुदाते रहते और अचानक अपनी तर्जनी ऊंगली को सीधे किसी बच्चे की नाक से सटा देते. बच्चा ज़मीन पर गिर जाता, गोया उसके प्राण-पखेरू उड़ गए हों. इस क्रिया को पंडीजी मुअनी कहते थे. एक-एक कर पंडीजी सभी बच्चों को मार देते और फिर खुद रोने लगते. उनका विलाप सुनकर शारीरिक रूप से मज़बूत कोई दूसरा बच्चा पंडीजी के पास आता; उनके रुदन का कारण पूछता. जवाब में पंडीजी रोते हुए उसकी पीठ पर बैठ जाते और कहते कि अब चलो मुझे वैद्य जी के घर ले चलो. पंडीजी बच्चे की पीठ पर बैठे-बैठे सभी मृत बच्चों के पास जाते और कान में कुछ कहते. परिक्रमा पूरी कर जब वे वापस अपने स्थान पर खड़े होते तो उनके हाथ में सरकंडा की एक खोखली छड़ी होती. वे उसमें कुछ देर तक फूंकते रहते और अचानक किसी बच्चे का नाम पुकारकर उसके फिर से जिंदा हो जाने की घोषणा करते. इस क्रिया को हम 'जीअनी' कहते थे. पंडीजी जब भी स्कूल आते, हम बच्चे उनसे जिद्द करते कि वे हमारे साथ मुअनी-जिअनी का खेल ज़रूर खेलें. पंडीजी ने हमारे आग्रह की कभी अनदेखी नहीं की. जिस दिन पंडीजी स्कूल आते, उस दिन हम बच्चों की मस्ती हो जाती. पंडीजी के अलावे हमारे स्कूल में एक और शिक्षक भी थे जिन्हें हम थर्ड माट्साब कहते थे. ये छतरबली माट्साब के अपने छोटे भाई थे और स्कूल में सिर्फ उन्हीं दिनों आते थे जब किसी कारणवश छतरबली माट्साब स्कूल आने में असमर्थ हो जाते थे. बच्चों से इनका व्यवहार बहुत अच्छा था और शायद ही कभी किसी बच्चे को उनसे डांट खानी पड़ी होगी. उनके पढाने का तरीका भी बहुत सुन्दर था. मेरे स्कूल में तब कई बच्चे ऐसे थे जो बिना अक्षर-ज्ञान के ही पहली कक्षा की किताबें पढ़ लिया करते थे. इन तमाम बच्चों को थर्ड माट्साब पहचानते थे. कुछ नया पढाने से पहले वे अक्सर इन बच्चों से चुहल करते थे. ऐसा करते समय वे चान्ददेव का नाम कभी न भूलते. वे ऊंची आवाज़ में चान्ददेव का नाम पुकारते और चान्ददेव की ऊंगुलियाँ 'रानी, मदन, अमर' के पन्ने पलटने लगतीं. सर झुकाए वे पढ़ते रहते, "मां, पिताजी...आगे देखो... भालुवाला आया' ..वगैरह-वगैरह. हम सब बच्चे थर्ड माट्साब के स्कूल आने की रोज प्रतीक्षा करते, किन्तु वे कब आते और कब चले जाते हमें याद नहीं रहता. लगभग पूरे भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि पांचवीं तक की पढाई में जितनी बार वे स्कूल आये होंगे उससे कहीं ज्यादा स्कूल इंसपेक्टर ने हमारे स्कूल का दौरा किया होगा.
चूंकि तब यह गाँव-जवार का एकलौता स्कूल था, अतः यहाँ पढ़नेवालों में सलेमपुर, कांधरपुर, जनई, खुटियारी, तिरकौल और कुर्मी टोला के छात्र भी होते थे. तिरकौल के मदरसा में पढ़नेवाले छात्र भी इस स्कूल में हिंदी सीखने आते थे. शुरू में तो इनकी उपस्थिति बच्चों के मन में एक कुतूहल पैदा करती थी, क्योंकि उम्र में वे पूरी तरह व्यस्क नहीं तो किशोर अवश्य हुआ करते थे. यह तो बाद में पता चला कि वास्तव में वे हाई स्कूल कर चुके थे और यहाँ सिर्फ हिंदी पढ़ने के लिए आते थे. लेकिन, उम्र के अलावा उनमें और हममें कोई और अंतर नहीं होता था. वे भी हमारे साथ लकडी की तख्ती पर बैठते थे और उनके झोले में भी स्लेट-पेंसिल के अलावा सिर्फ एक-दो नन्हीं किताबें हुआ करती थीं. उनसे भी अगर गलती होती तो हम मास्टर साहेब के निर्देश पर उनके कान उमेठ देते थे. इस काम में एक अलग तरह का रोमांच हुआ करता था.
हमारा प्राईमरी स्कूल पूरी तरह लोकतांत्रिक था. सभी जाति और धर्मं के बच्चे यहाँ मौजूद थे; सबके बैठने की ज़गह भी एक ही हुआ करती थी. हाँ, लड़कियों के बैठने के लिए आगे की एक-दो पंक्तियाँ आरक्षित कर दी गयी थीं. तो भी, दूसरे गाँव की लड़कियां यहाँ पढ़ने के लिए नहीं आती थी. कुछ-कुछ लड़कियां उम्र में हम बच्चों से बहुत बड़ी होती थीं. बाद में पता चला कि वे लड़कियां शादी से पहले चिट्ठी पढ़ने-लिखने भर की विद्या अर्जित करने आती थीं. छतरबली माट्साब न तो खुद कभी स्कूल से नागा होते थे और न किसी छात्र को नागा होने की ईजाज़त देते थे. उन्होनें तो एक तरह से अपना फ्लाईंग स्क्वैड ही बना रखा था. इधर हाजिरी खत्म हुई, उधर फ्लाईंग स्क्वैड बच्चों की धर-पकड़ के लिए अलग-अलग गांवों की ऑर निकल पड़ता. घंटे-अधघंटे में फ्लाईंग स्क्वैड गैरहाज़िर बच्चों को भेंड-बकरियों की तरह हांकते हुए स्कूल धमक पड़ते. फिर उनमें से कोई मुर्गा बनता, कोई पिटाई खता और कोई डांट-डपट सुनकर ही छुटकारा पा लेता. सजा छात्र की अनुपस्थिति की आवृति के अनुपात के मुक़र्रर की जाती. लेकिन इस वाकये की सबसे दिलकश बात कुछ और हुआ करती थी. जब माट्साब किसी छात्र से उसकी अनुपस्थिति का कारण पूछते तो वह न जाने क्या सोचकर ऐसे-ऐसे जवाब देता कि उनपर यकीन करना किसी के लिए संभव नहीं जान पड़ता. मिसाल के लिए कोई कहता, "माट्साब, हम त स्कूल आवते रहीं, बाबुएजी नु बैल पहुँचावे खातिर पछिमभर के बधार में भेज देलन?'
आज अगर कोई मुझसे पूछे की अह्पुरा प्राईमरी स्कूल के बारे में दो अच्छी बातें क्या थीं तो मैं निःसंकोच कह सकता हूँ कि एक तो शिक्षक की मर्यादा पूरे गाँव के लिए सर्वोपरि थी और दूसरे स्कूल के माहौल में सीधे रूप से जातियों का प्रभाव परिलक्षित नहीं होता था. चूंकि तब सरकारी स्कूल के अलावा कहीं कोई तथाकथित इंग्लिश मीडियम स्कूल नहीं थे, इसलिए लोगों के सामने शिक्षा के क्षेत्र में अपनी हैसियत दिखाने का कोई दूसरा जरिया भी नहीं था. क्या गरीब, क्या अमीर सबके बच्चे इसी स्कूल में पढ़ते थे. लेकिन आज स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है. बिहार और उत्तरप्रदेश के अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि इन स्कूलों का अछूतीकरण कर दिया गया है. आज सरकारी स्कूलों में सिर्फ गाँव के दलित बच्चे पढ़ते हैं या वे बच्चे जिनके मां-बाप के पास निजी स्कूलों की फीस देने की कुव्वत नहीं है. सन्देश का मिडिल स्कूल तो मेरी नज़रों के सामने अपनी अधोगति केपी प्राप्त कर रहा था. पुराने हेडमास्टर जिनके बारे में कई-कई किंवदंतियाँ ईलाके में मशहूर थीं, अवकाशप्राप्त हो चुके थे. उनकी ज़गह जो नए हेडमास्टर आये वे स्कूल का रुतबा कायम नहीं रख सके. प्राईमरी स्कूल के विपरीत, मिडिल स्कूल में मुझे साम्प्रयादायिक रुझान के दर्शन हुए थे.
एक वाकया यहाँ गौरतलब है. जब मैं सातवीं क्लास में था तो मेरे स्कूल में एक उर्दू शिक्षक की नियुक्ति हुई थी. हम उन्हें मौलवी साहब कहते थे. कई बच्चे उनसे फूहड़ शरारत करने से बाज़ नहीं आते थे. एक दफा उनने हेडमास्टर साहेब से शिकायत भी की. किन्तु कुछ न हुआ. उल्टे उन्हें सुझाया गया कि बेहतर यही होगा कि वे अपना स्थातान्तरण किसी मुस्लिम स्कूल में करा लें. दूसरी तरफ, लालाजी माट्साब के लिए स्कूल के ही दो कमरों को अलग कर उनके परिवार के घर बना दिया गया था. लालाजी स्कूल की ज़मीन पर साग-सब्जी की खेती भी करते थे और स्कूल के फलदार वृक्षों पर भी उन्हीं का अधिकार था. बता दू कि लालाजी यह सब लाठी के जोर पर नहीं कर रहे थे, अपितु स्कूल की प्रबंधन समिति ने हे उन्हें सुविधा मुहय्या कराइ थी. लालाजी का परिवार बड़ा था और आमदनी छोटी, इसीलिए उनके लिए एक खास सहानुभूति सबके मन में थी.
आरा जैन स्कूल के बारे में विस्तार से फिर कभी बताऊंगा.
वीरेंद्र
4 comments:
वीरू आप का लेख मुझे बचपन में पंहुचा दिया .
क्या दिन थे ?
पढ़ना और पढाना सब कितना सहज .
तत्कालीन बिहार के ग्रामीणों में पढाई के प्रति एक आदर का भाव था .
मास्टर साहब ग्रामीण समाज में परम आदर के पात्र .और समर्पित शिक्षक पुरे समाज को शिक्षित करने की जिम्मेवारी के प्रति जागरूक थे.
मेरे पिता हेड मास्टर और माँ स्कूल में सहायक शिक्षिका . हलाँकि माता और पिता एक हीं स्कूल में कभी पदस्थापित नहीं रहे . मेरे माता और पिता भी गाँव और सामुदायिक शिक्षा के प्रति पूरे समर्पित रहे .बच्चों की पढाई लिखाई से लेकर उनकी साफ़ सफाई तक .
गाँव के स्कूल भी लगता था कि संस्कार के नए प्रतिमान गढ़ रहे थे . मेरे गाँव के स्कूल में ( पटना जिले के सूदूर ग्रामीण अंचल में )बच्चे आपसी बातचीत में एक दूसरे को आप कह कर संबोधित करते थे.
स्कूल के दिनचर्या की शुरुआत
" दया कर दान भक्ति का हमें परमात्मा देना .
दया करना हमारी आत्मा को शुद्धता देना ...."
प्रार्थना से होती थी . फिर उसके बाद एक से लेकर से लेकर चालीस तक का पहाडा होता था . क्रमबद्ध ढंग से एक के बाद एक पहाडा बोलता था और सारे बच्चे समवेत स्वर में उसे दुहराते चलते थे. पहाड के इस अनुष्ठान में पहली से लेकर पांचवी तक के सारे बच्चे शामिल होते थे. पहाड के बाद बच्चे दो कमरों के स्कूल में पांच टोलियों में क्लास के अनुसार बाँट कर तीन शिक्षकों द्वारा पढाये जाते थे .
वीरू मुझे ऐसा लगता है की स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्र निर्माण का जज्बा , मध्हिम ही सही पर ७० के शुरूआती सालों तक दिखता था .
रही बात ब्लॉग पर नए विमर्श कि तो इंशा अल्लाह विमर्श का यह प्रसंग , यूं ही चलता रहे .जैसा की मैंने आपसे कहा था कि value lies in the detail. विश्लेषण और निष्कर्षों की फौरी तौर पर परवाह किये बगैर उस दौरा - ये - जमाने के राग रंग को शब्द बद्ध कर ते चलें .
आशा करता हूँ कि रोजमर्रा के तमाम जद्दो जहद के बीच ,बिना कुछ और सोचे हम सब इस सिलसिले में लगे रहें.
सादर
उन दिनों गांव के सारे स्कूल शायद एक ही जैसे होते थे ... बहुत अच्छा लगा आपका स्कूल कथा।
बहुत बढिया स्कूल कथा है।बधाई।
kya bat hai sarji. maja aa gaya yado ko padh kar
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