Saturday, April 11, 2009

हाल -ये -बयान ,पटना के कॉलेज ओं का -१९८०, की शुरुआत में


सुजीत चौधरी ,सुना रहें हैं अपनी आप बीती , बरास्ता पटना शहर और बी एन कॉलेज .पढिये और अपने अनुभवों से इस सिलसिले को आगे बधाईये.

( मित्र कौशल ने बिहारी विद्यार्थियों के दिल्ली जाने के शुरुआती दौर , उस समय के बिहार के (खासकर पटना के) कॉलेज और पटना विश्वविद्यालय की स्थिति और विशिस्ट सामाजिक - आर्थिक और राजनीतिक कारणों की चर्चा कर एक विचार-विमर्श का प्रारंभ किया है. मैंने भी पटना में स्नातक और पूर्व-स्नातक की पढ़ाई की है इसीलिये कौशल जी ने मेरे अनुभवों को पोस्ट करने को कहा. )

मैं अपने B. N. College के अनुभवों कोलिख रहा हूँ.
मैंने १९८१ में रांची से intermediate (विज्ञान) किया . उसी दौरान मेरी रूचि सामाजिक विज्ञान की और बढ़ी और समाजशास्त्र (sociology) पदने के लिए पटना गया. सच कहूं तो मुझे रांची छोड़ना था और मैंने ऐसा विषय चुना जिसकी पढाई रांची विश्वविद्यालय में नहीं थी. पटना में सिर्फ एक ही करीबी दोस्त था जिसने बिहार इंजीनियरिंग कॉलेज में mechanical इंजीनियरिंग पढ़ रहा था. उसने उसी समय admission लिया था और एक लौज में रहताथा. पटना में B. A. का admission शुरू नहीं हुआ था. मेरा दोस्त पटना में दो साल गुजार चुका था क्योंकि वह मुझसे एक साल सीनियर था और I.Sc. की पढ़ाई उसने साइंस कॉलेज से की थी हालाँकि वह लौज में ही रहता था. उसने मुझे पटना घुमाया. अशोक राजपथ, गाँधी मैदान, सिनेमा घर, आदि आदि. पटना कॉलेज के सामने वाली गली के समोसे और जलेबा (जलेबी स्त्रीलिंग तो जलेबा अपनी विराटता के लिए जलेबा) . विद्यार्थियों का हुजूमलगा रहता था वहां. उस समय पटना में कोचिंग schools काफी थे क्योंकि हमारे हमउम्र के विद्यार्थियों का सपना होता था मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला. खैर एक दो महीने के बाद मेरे दोस्त को हॉस्टल मिल गया जो law college के पास था और मजबूरन मुझे भी उसके साथ वहां रहना पड़ा. हॉस्टल में आकार पता चला की यह हॉस्टल तथाकतित scheduled castes और Backward castes के लिए अनौपचारिक रूप से आरक्षित था. law college पर उसी तरह ऊँचेवर्णों का वर्चस्व था. धीरे धीरे जाति, जातिय समीकरण और छात्रालयों में उनकी प्रभुता या प्रभुत्व जमाने की होड़. मुझे पता चला की फॉरवर्ड जाति-वर्ग में राजपूत और भूमिहार के बीच नहीं पटती. संक्षिप्त में कहा जाये तो एक और राजपूत-भूमिहार के बीच का दरार और उससे उपजी हिंसा तो दूसरी तरफ फोर्वार्ड और बैक्वार्ड जातियों का उभरता हुआ धूरिकरण. मजे की बात यह की मेरा दोस्त Backward जाति का थाऔर हम दोनों में जातिगत कोई भावना ही नहीं थी लेकिन उसने मुझे अपने हॉस्टल में 'Backward' घोषित कर दिया. मेरे survival के लिए यह एक मामूली सा समझौता था जो मुझे अखर भी नहीं और मेरा surname भी इतना सर्वव्यापी था की किसीको कोई शक नहीं हुआ. उस हॉस्टल के मुखिया थे भीम सिंह जिन्हें मेरी ग़ज़लें पसंद थी . वह एक बुद्धिमान और प्रतिभाशाली विद्यार्थी था जो धीरे-धीरे जातिगत हिंसा के दलदल में फंसता जा रहाथा. वर्तमान में मिलने वाला दबदबा उसकी हौसला-आफज़ाई कर रहा था. उसने एक दिन मुझे देसी तमंचा दिखाया और एक दिन जब सिर्फ हम दोनों अकेले थे तो उसने कहा मैं जानता हूँ तुम Backward नहीं हो लेकिन यह राज राज ही रहे. उसदिन के बाद मैं और मेरा दोस्त काफी सहमे रहते थे की किसी तरह मेरा राज न खुल जाए . खैर, तबतक मुझे B. N. college के हॉस्टल में दाखिला मिल गया. मैंने B. N. college में इस लिए दाखिला लिया था क्योंकि कुछसीनियर विद्यार्थिओं के सुझाव के मुताबिक, वहां का sociology विभाग पटना college से बेहतर था. हॉस्टल काफी भब्य था बिलकुल college के पास. हॉस्टल के वार्डेन जो मेरे विभागाद्ययक्ष भी थे मेरे पिताजी को जानते थे और उन्होंने एक अच्छा (?) सा कमरा allot कर दिया. पहले ही दिन जब मैंने अपना सामान रखकर बड़े से गोदरेज ताले से कमरा बंद कर गाँधी मैदान जाकर और वहां की घास पर लेटकर वापस लौटा तो पाया की कमरे कीचाभी गाँधी मैदान में खो गयी है. वापस मैदान में ढूँढने की कोशिश नाकाम रही. लाचार होकर सब्जी बाग़ गया और लोहा काटने का ब्लेड खरीदा और दो घंटे लगे , गोदरेज का ताला काटने में. हॉस्टल में मैं किसीको नहीं जानता था. दो-तीन बाद एक नया रूममेट आया , जाति का राजपूत, उद्दंड स्वाभाव और राजधानी के मौजूदा फैशन से कदम से कदम मिलाने वाला. हालाँकि, अपने क्लास में कुछ day scholars से मित्रता बढ़ी औरअकेलापन कम होने लगा. मेस में कुछ और मित्र बने. थोड़े दिनों में पता चला की हॉस्टल के तीन blocks तीन जाति वर्गों पर आधारित थे. एक ब्लाक पर राजपूतों का वर्चस्व था तो दुसरे पर भूमिहारों का कब्ज़ा. मेरा ब्लाक थोडा मिश्रित था तब पता चला वार्डेन ने मुझे उस ब्लाक में क्यों कमरा क्यों दिया. हॉस्टल के पास अशोक राजपथ के कोने पर एक पान की दूकान थी जहाँ राजपूतों का नेता खादी का कुरता पजामापहन अपना अड्डा लगाता था. देखने में वह शालीन था और दाढी के कारण उसमे एक गाम्भीर्य था. मैंने सुना था कि वह रात में रिक्शा लेकर (बगल में ही रिक्शे वालों का पडाव था) और रिक्शा चालक के भेष में प्रिया सिनेमा जाता था और सिर्फ लड़कियों या कमउम्र महिलाओं को उनके घर छोड़ता था. कभी कभी वह बुरका पहन सब्जी बाग के उस हिस्से में घूमता था जहाँ महिलाएं होती थीं. दूसरी तरफ रंगदारविद्यार्थियों का एक झुंड अशोक राजपथ के दूकानों से बिना पैसा दिए सामान ले लेता था. उसी दौरान हमारे हॉस्टल में राजपूत और भूमिहार गुटों के बीच घमासान संघर्ष शुरू हुआ. बमबारी की शुरुआत हुई और हॉस्टल खाली करा दिया गया . हॉस्टल में पुलिस की बंदोबस्त होने लगी. ऐसा कई बार होने लगा. फिर मैंने सुना की बैकॅवाङ - फॉरवर्ड के संघर्ष में भीम सिंह बुरी तरह जख्मी हो गया . मुश्किल से जान बची.इन्ही परिस्थितियों के बीच हमारी पढाई हो रही थी. हमारी B. A. (Hons) की परीक्षा करीब आ गयी और असली प्रतियोगिता हमारे और पटना कॉलेज के बीच थी. पुलिस बंदोबस्त के बीच परीक्षा हुई और नतीजा भी आया . मैं प्रथम श्रेणी में द्वितीय स्थान पर था और प्रथम स्थान पर एक ऐसा विद्यार्थी था जिसे कोइ जानता भी नहीं था. बाद में पता चला की उसकी बहुत ऊँची पहुँच थी.

2 comments:

Kaushal Kishore , Kharbhaia , Patna : कौशल किशोर ; खरभैया , तोप , पटना said...

प्रिय सुजीत , पेशेवर व्यस्तताओं की वजह से लिखने में बिलंव हुआ .आपने शुरुआत की है इस पर मैं क्या कहूं शब्द नहीं मिल रहे हैं.तुम्हारे लेख से तत्कालीन पटना की जो तस्वीर बनती है , कम शब्दों में कहें तो भयावह है.पता नहीं उस यथार्थ को भोगने वाले दीन - दुनिया की क्या मूरत गढ़ते होंगें ?
वैसे तो आप के लेख की हर पंक्ति न सही हर नया विचार विन्दु विस्तार की मांग करता है .कहीं कहीं पर कथा फास्ट फॉरवर्ड मोड में जाती दिखती है. या इसे मेरी उत्सुकता का अतिरेक कहें .
मित्र ,value lies in the detail . और विषय वस्तु के साथ तुम्हारे जैसा संवेदनशील हीं कर सकता है. वेबजः संक्षेपण न हो तो पढ़ने में और मजा आये . वैसे तो गुनी ज्ञानी और भांति भांति के विद्वतजन तो निचोड़ के तौर पर इस दौर को अलग अलग संज्ञायों से तो विभूषित करते हीं रहें हैं . यथा - post colonial phase of mis rule , अर्ध सामंती - अर्ध सामन्ती समाजों के द्वंद और अन्तर्निहित संघर्ष से लेकर राष्ट्र निर्माण का शुरुयाती दौर तक .
आशा करता हूँ की मेरी बात का मर्म स्पष्ट हो गया होगा .
लेख फौरी तौर पर दो बातों की याद दिला रहा है.
पहला - समाज शास्त्री दीपंकर गुप्त की एक पुस्तक - india between the world - case of mistaken identity . ऊपर वर्णित घटनायों को वे आधुनिक भारत के सामजिक आचार विचार और संस्कृति में पूर्व आधुनिक युग के अवशेष के रूप में वे देखने और समझने का आग्रह करते हैं.
दूसरा - साउथ अफ्रीका में रंभेद के खात्मे के बाद ट्रुथ एंड रेकोन्किल्लिअतिओन कमीशन बना था . उसमें अपनी बात कहने और गुनाहों को कबूल करने के लिए आम माफ़ी का प्रावधान था .आप बीत से लेकर जगबीती तक.देश के इतिहास के अन्धकार युग को रिकॉर्ड करने का यह शायद नायाब उदहारण है.ठीक ठीक नहीं मालूम के यह कहाँ तक कोन्फेस्सिओं के मौलिक इसाई उसूलों के तहत था और नेशनल healing process का हिस्सा था .

PD said...

itni nirlajjata se sach nahi likha jata hai bhaiya.. :)
behad kroor sach aapne samne rakha.. kafi had tak mera bhi bhoga hua.. bilkul apna sa laga..