आलेख - वीरेन्द्र
मैं पहले ही बता चूका हूँ कि पटना कॉलेज में मेरा कैसा भव्य (या कह लीजिये धमाकेदार) प्रवेश हुआ था. आज भी मैं तय नहीं कर पाता कि इस प्रवेश प्रकरण को 'प्रथम ग्रासे, मच्चिको पातः' के रूप में याद करुँ या 'बिल्ली के भाग्य से छीकें के टूटने' के रूप में.
शुरू के दिनों में पटना शहर को ज्यादा से ज्यादा देखने (माफ कीजियेगा, समझने की नहीं) की तमन्ना दिलोंजान पर इस तरह तारी रही कि अपने साथ कौन, क्यों, कैसे और क्या कर रहा है सोच ही नहीं पाया. जो भी हो, इसका एक फायदा यह हुआ कि मैं फोकट में, किन्तु बिना सवारी के नहीं, पूरे शहर को रौंदने में सफल हो गया. यहाँ फोकट का अर्थ बताना ज़रूरी है. तब हम सवारी के रूप में यूनिवर्सिटी बस का इस्तेमाल करते थे. इसके दो तात्कालिक फायदे थे. एक, यह विशवास पुख्ता होता था कि फोकटिया अर्थ-व्यवस्था के वारिस अकेले सिपाही नहीं होते, छात्र भी होते हैं अथवा हो सकते हैं. जब कभी कंडक्टर किसी छात्र से टिकट मांगता तो हम उसे बेवकूफ कह देते या फिर पूछ बैठते कि कहीं तुम्हारा दिमाग तो नहीं ख़राब हो गया? ऐसी बात सुनकर वह सिर्फ मुस्करा देता, कहता कुछ नहीं. सिपाही की तरह पटना के छात्र भी सौदा-बाज़ार करते समय अपने हिसाब से दाम में कटौती कर लेते. दूसरा सबसे बड़ा फयदा यह था कि पटना के नामी-गिरामी मोहल्लों की नफीस लड़कियों को देखने और मर्यादा-अमर्यादा के बीच की भाषा में उनसे कुछ चुहल करने की गुंजाईश बन जाती. लड़कियाँ भी क्या छुई-मुई, इत्ता कुछ सुनने के बाद भी चूं नहीं करतीं. गोया, ईश्वर ने उन्हें ज़बान ही नहीं दी. इस यायावरी में तकरीबन दो महीने बीत गए.
समय आ गया था कि मैं गोपाल बाबु को उनके वायदे का स्मरण कराऊं. मेरी तबियत न्यू हॉस्टल से उचटने लगी थी. रह रह कर मुझे आभास होता कि मैं जो कर पा रहा हूँ, वह नाकाफी है; कि अगर और देर हुई तो उस कीचड से निकलना मेरे लिए असंभव हो जायेगा. मैंने एक आवेदन-पत्र लिखा और उसे लेकर सीधे गोपाल बाबु के सरकारी मकान में दाखिल हो गया. गोपाल बाबु मुझे निजी तौर पर जानते थे क्योंकि छपरा से पटना आते वक़्त मैं राजेंद्र कॉलेज में कार्यरत उनके मित्र वेदा बाबु की सिफारिशी चिट्ठी लेकर आया था. उन्होनें तुरत मेरी बात मान ली और मैं मिन्टो हॉस्टल में आ गया. लेकिन आने से पहले घटी एक बात का ज़िक्र मैं यहाँ करना चाहूँगा. गोपाल बाबु ने बताया कि वैसे तो मेरे अंक मेरे बैच के दूसरे सभी छात्रों से अधिक हैं, किन्तु कतिपय समाजशास्त्रीय कारणों से वे मुझे हॉस्टल का प्रीफेक्ट नहीं बनायेंगे. प्रीफेक्ट बनने में मेरी कोई रूचि नहीं थी, इसलिए मैंने कोई प्रतिवाद नहीं किया. बाद में मंडली के साथियों ने बताया कि गोपाल बाबु माहिर राजनीतिज्ञ हैं और भूमिहार हैं. वे कभी भी किसी गैर-भूमिहार को प्रीफेक्ट नहीं बनने देंगे.
साथियों का मानना था कि यह घटना राजपूती सम्मान को चोट पहुंचानेवाली है अतः इसका पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए. लेकिन मेरी प्रत्यक्ष अरुचि की वज़ह से मामले को ज्यादा तूल नहीं दिया जा सका. बात आयी गयी हो गयी. यहाँ साफ कर दूं कि गोपाल बाबु के बारे में गैर-भूमिहार छात्रों की राय न केवल तथ्य से परे थी, अपितु उनके अपने जातीय पूर्वाग्रह को भी व्यंजित करती थी. सच तो यह है कि मैं गोपाल बाबु की समाजशास्त्रीय समझ का सबसे बड़ा मुरीद था. बानगी के तौर पर मैं यहाँ एक घटना का ज़िक्र करना चाहूँगा. मिन्टो हॉस्टल में दाखिला लेने के दो-चार दिनों बाद मैं न्यू हॉस्टल से स्थान्तरित होनेवाला था. मुझे अबतक पता न था कि मुझे मिन्टो हॉस्टल में कौन-सा कमरा आवंटित हुआ है. मैं गोपाल बाबु के घर फिर हाज़िर हुआ. वे समझ गए, बैठने का इशारा किया और खुद मेरे सामने आकर बैठ गए. उन्होनें बताया, " जो कमरा मैंने आपके लिए अनुकूल माना है, उसमें पहले से तीन छात्र रहते हैं - एक भूमिहार, एक यादव और एक दलित. आप चौथे होंगे और ठाकुर हैं. इस तरह कमरे में जातीय संतुलन बना रहेगा और कोई भी जाति के आधार पर उन्मादी बयान देने अथवा बहसबाजी करने से स्वभावतः गुरेज़ करेगा'. उनकी यह बात बाद के दिनों में सोलहों आने सच साबित हुई.
लेकिन, दुर्भाग्य ने यहाँ भी मेरा पीछा नहीं छोडा. जिसका डर था, बेदर्दी वही बात हो गई. पलक झपकते ही मैं मिन्टो हॉस्टल में राजपूतों का नेता मान लिया गया. पटना कॉलेज परिसर में तीन हॉस्टल थे - जैक्सन हॉस्टल, मिन्टो हॉस्टल और न्यू हॉस्टल. मैं तीनों होस्टलों के मामले में नेता मान लिया गया था. उस समय पटना की शैक्षणिक संस्थाओं में जैसा माहौल था, उसमें इस बातकी सदैवसंभावना बनी रहती थी कि कहीं किसी यादव-कुर्मी अथवा भूमिहार-राजपूत में भिडंत हो जाये. राजपूत से सम्बंधित झगडों में मुझे अक्सर पंच मान लिया जाता और मैं राजपूत और भूमिहार दोनों के लिए विशेष पदवी का हक़दार हो जाता. मुझे आज यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि अपनी प्रत्यक्ष अरुचि के बावजूद ऐसी पंचायती करने में मुझे एक अजीब-सा शिशुवत शुकून मिलता था.
दिन के चौबीस घंटे और उनके जीवन में एक भी घंटा ऐसा नहीं जिसमें वे जीवन, जगत, करम-धरम या किसी और चीज के बारे में सोचते हों. उनपर हमेशा एक ही नशा तारी रहता " कैसे आनंद मनाएं, कैसे मज़ा लें और क्या करें कि बस बल्ले...बल्ले....नित्य-क्रिया निवृति के पश्चात वे जलेबा खाने रमना रोड के मुहाने पर स्थित हलवाई की दूकान पर जाते, वहीं खड़े-खड़े दो-तीन कप चाय पीते और सबसे अंत में आठ - साढे आठ बजे पान चबाते हुए हॉस्टल में लौट आते. फिर नहाते, खाते और 9:20 की आनर्स क्लास अटेंड करने कॉलेज पहुँच जाते. उनकी दिनचर्या खत्म होती 11 और साढे ग्यारह बजे रात में जब वे मेस में खाना खाकर सोने के लिए अपने कमरे में वापस आते. लेकिन बता दूं कि मंडली के सभी मित्र इस साधना में बराबर निपुण नहीं थे और न ही सबमें इस रूटीन के प्रति बराबर की दिलचस्पी थी. तो क्या यह मंडली एकजूट नहीं थी? बिल्कुल थी, तथापि मंडली के प्रत्येक सदस्य को यह अधिकार था कि वह मंडली के इत्तर भी अपनी रूचि और सामर्थ्य के हिसाब से रिश्ते बना ले. इस लोकतान्त्रिक संस्कृति का असर यह हुआ कि सब साथ-साथ रहते हुए भी अलग-अलग समय पर अलग-अलग समूह में शामिल हो लेते थे. कुछ धूर सदस्यों की बात छोड़ दी जाये तो प्रत्येक सदस्य की एक अलग मंडली भी हुआ करती थी. सच तो यह है कि मंडली की एकजूटता खास कामों में ही दीखती थी. ये खास काम थे - बिना नागा हुए रोज़ शाम में करीब 5-6 बजे पटना मार्केट जाना, साप्ताहिक आधार पर सामूहिक रूप से फिल्म देखने जाना, सुबह-शाम गणेशदत्त हॉस्टल के चक्कर लगाना और लगभग धार्मिक अनुष्ठान की तरह रोज़ कम से कम एक घंटे के लिए न्यू हॉस्टल के पिछवाडे की दीवार पर बेअदबी का सामूहिक अभ्यास करना. इनके अलावा सबकी अलग पहचान थी, सबके अलग मक़सद थे. मंडली में एक-दूसरे को नसीहत देने की सख्त मनाही थी. सिर्फ संकट ही सामूहिक मानी गयी थी, बाकी सबकुछ निजी. कोई पढ़े, न पढ़े अपनी बला से.
मिन्टो हॉस्टल में आना मेरे लिए वास्तव में वरदान साबित हुआ. मेरी मंडली के ज़्यादातर सदस्य मिन्टो हॉस्टल में आने से कतराते थे, क्योंकि वे मानते थे कि इस हॉस्टल में रहनेवाले छात्र मर्दानगी के मामले में थोड़े कमज़ोर होते हैं. लेकिन सच यह है कि वे कतराते नहीं, घबराते थे कि कहीं कोई पढाई-लिखाई की बात न छेड़ दे. खुदा न खास्ता अगर गोपाल बाबु मिल गए तो बेडा गर्क ही मानिए. नसीहत देना उनका शौक भी था और पेशा भी. उनके बारे में कोई कुछ भी कहे, वे वही कहते थे जो उनको किसी छात्र के लिए बेहतर लगता. खैर, मिन्टो हॉस्टल में आकर नए-नए लोगों से मेरे नए-नए रिश्ते बने. यहीं आकर मुझे क्रांतिकारी रुझान के मार्क्सवादियों से मिलने का मौका मिला और यहीं आकर मेरी छवि लोफर के बजाय एक मेधावी छात्र की बनी. हॉस्टल के वरिष्ठ अन्तेवासी भी मुझे तवज्जो देते क्योंकि मैं अपने बिंदास अंदाज़ और हंसोड़ प्रकृति की वज़ह से हमेशा सामूहिक चर्चा का केंद्र बना रहता था. मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि अन्तेवासियों के बीच जाति के आधार पर कोई ख़ास खेमाबन्दी थी. दरअसल, जाति के सवाल को वही छात्र ज्यादा प्रचारित-प्रसारित करते थे जिनका छात्र के रूप में कोई खास वजूद नहीं होता था. मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जो छात्र अपनी-अपनी जाति के नेता थे या बिना होते हुए मेरी तरह मान लिए गए थे, वे वास्तव में उम्दा इंसान थे. उनमें मेरे कई ऐसे दोस्त थे जो अपनी इस नियति पर कल भी हंसते थे और आज भी हंसते हैं.
(अगले अंकों में मैं आपको हॉस्टल से निकालकर पटना कॉलेज और उसके आस-पास के मुख्य सरकारों से परिचित करवाने की कोशिश करूंगा. तबतक के लिए धीरज रखिये,)
वीरेन्द्र
1 comment:
वीरू ,आप बीती इसी तरह सुनाते रहें .हम सब इसमें आपके और जमाने के दर्दों सितम से वाकिफ होते रहेंगें .
माहौल कैसा भी क्यों न हो , एक्सट्रीम परिस्थितियों को छोड़ दें तो हर कैशोर्य और जवानी और इसका हर लम्हा ऐसा होता है के बार - बार दुहराने का मन हर किसी को करता है .
महाविद्यालय और विश्वविद्यालय ज्ञान के सृजन और वितरण का केंद्र माना गया है .नए ज्ञान - विधा और तकनीक दोनों के स्तर पर - का सृजन , पुराने का परिमार्जन और उसका हर नयी पीढी तक संप्रेषण . विश्वविद्यालय के औचित्य की यही सटीक कसौटी हो सकती है . और इस कसौटी पर तत्कालीन पटना कॉलेज और युनिवेर्सिटी को कसने पर क्या निष्कर्ष निकलेगा ?
दूसरी बात की पटना शहर की और पटना कॉलेज और युनिवेर्सिटी में पढ़ने वाली ये लडकियां इतनी दब्बू थी या असहाय ?
खैर फिलहाल इन बातों में अभी न उलझें , विश्लेषण और निषकर्ष आराम से निकलते रहेंगें , अभी तो बस उन याद गार लम्हों और दौर- ए -जमाने को ईमान दारी से शब्दबद्ध किया जाय.
आप फिलहाल लगें रहें .
सादर
सादर
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