वीरेन्द्र - बिहार विमर्श की दूसरी किस्त . विमर्श में आपकी भागीदारी हमारे सत्य शोधक प्रयास बहु आयामी और कारगर बनाएगा .
( मित्र ,बिहार पर जारी विमर्श में दोबारा और उतावाली में कूदने का दोषी तो हूँ, लेकिन करुँ तो क्या करुँ? किसी और आहर-पोखर के भूगोल से उतना वाकिफ भी तो नहीं हूँ. अब चाहे जो हो, अग्नि-स्नान से बच तो नहीं सकता. तथास्तु. )
दिल्ली में बिहारी: घर के न घाट के
कहते हैं कि दिल्ली पर बिहारियों ने नए सिरे से आक्रमण कर दिया है. कभी शेरशाह ने दिल्ली पर अपना झंडा गाडा था और हिंदुस्तान का शहंशाह बन बैठा था. अलबत्ता, वह ज्यादा दिनों तक दिल्ली की गद्दी पर विराजमान न रह सका और एक दुर्घटना में उसका इंतकाल हो गया. वह पहला और अबतक का अकेला ऐसा बिहारी था जिसने दिल्ली पर अपनी साख जमाई थी. उसके बाद किसी भी बिहारी में इतनी सामर्थ्य नहीं हुयी कि वह दिल्ली पर अपना रॉब गाँठ सके.
किन्तु, भारत की आज़ादी एकबार फिर बिहारियों के लिए वरदान साबित हुयी है. जब से आज़ादी मिली है तब से हर बिहारी, चाहे वह गाँव में रहता हो या कस्बे में, एकबार दिल्ली की तरफ कदम बढा ही लेता है. गाँव-देहात के निपट अनाडी से लेकर पढ़े-लिखे तक, सब मुंह उठाये दिल्ली की तरफ कूच कर गए हैं. आज स्थिति क्या है? जहाँ देखो, वहीं बिहारी. सड़क पर चलने का शहूर नहीं, फिर भी माथे पर पूरा घर लादे ये बिहारी आज दिल्ली के गली-कुचों में धमाल मचाये हुए हैं. क्या सचमुच इसे आक्रमण कहा जा सकता है? दिल्ली के गली-कूचे में भरे पड़े बिहारियों के चेहरे पर हमें जिस दैन्य-भाव के दर्शन होते हैं, उन्हें देखकर तो नहीं कहा जा सकता कि ये आक्रमणकारी हैं. यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि आक्रान्ता के चेहरे पर दैन्य का भाव नहीं, अपितु उन्माद का भाव होता है. कोई उसकी खिल्ली नहीं उडाता. उल्टे, उससे हर आदमी भय खाता है और ताक में रहता है कि कोई मौका मिले और वह जान बचाकर रफूचक्कर हो जाये. क्या शेरशाह की खिल्ली उडाई गयी होंगी दिल्ली में?
ऐसे में यह पूछना गैरवाजिब नहीं होगा कि क्या क्या सचमुच दिल्ली बिहारियों से त्रस्त है? जो रसूखवाले हैं या जो यह समझते हैं कि शिष्टता उनकी पुश्तैनी चीज़ है, वे सचमुच बिहारियों के चाल-चलन से परेशान हैं. उनके जाने, ये बिहारी फूहड़, बदमिजाज़ और अव्वल दर्जे के बेवकूफ हैं. ये दुल्हन रुपी दिल्ली के दामन पर काले धब्बे हैं. इन्हें यहाँ से हटाये बगैर न तो दिल्ली को वर्ल्ड क्लास का शहर बनाया जा सकता है और न ही उसे लानत-मलामत से महफूज़ रखा जा सकता है. मैं पढ़ा-लिखा आदमी हूँ और जानता हूँ कि बिहारी शब्द गाली नहीं है, अपितु एक विशेषण है जो बिहार से बना है. यानी, बिहार का रहनेवाला बिहारी है, ठीक उसी प्रकार जैसे पंजाब का रहनेवाला पंजाबी.
लेकिन, एक बिहारी होने की वज़ह से जानता हूँ कि दिल्ली में बिहारी का मतलब क्या होता है. स्नातकोत्तर की पढाई दिल्ली में पूरी करने की हसरत लिए जब मैं पच्चीस साल पहले दिल्ली आया था तो सोचा था कि पढाई पूरी होते ही बिहार लौट जाऊंगा. पहली हसरत तो जैसे-तैसे पूरी हो गई किन्तु दूसरी हसरत अभी तक मृग-मरीचिका ही साबित हुई है. अब लौटूं भी तो किस बुतात पर? न घर में इतनी खेती-बारी है कि गाँव जाकर खेती कर लूं, न ही पुरुखों ने कोई ऐसा धंधा-पानी छोडा है कि जाकर उसे सम्हाल लूं. नतीजतन, मन मारकर दिल्ली में ही रोज़ी-रोटी कमाकर जीने के लिए विवश हूँ.
जिस दिल्ली ने कभी अपने आगोश में दुनिया भर के आक्रान्ताओं को पनाह दी थी वही दिल्ली आज बेबस-बेहाल बिहारियों के लिए इतनी तंगदिल हो गई है कि पनाह देने की बात तो दूर, सीधे मुहं बात करना भी गवारा नहीं करती. दिल्ली की समस्यायों पर जब भी कोई चर्चा होती है तो बिहारियों का नाम जरूर लिया जाता है. दिल्ली आज आबादी के भार से बेहाल है तो बिहारियों की वज़ह से, दिल्ली अगर आज शरीफों के लिए सुरक्षित नहीं रह गई है तो बिहारियों की वज़ह से और कल अगर दिल्ली किसी के काम की नहीं रह पाई तो भी बिहारी ही दोषी माने जायेंगे. मुंबईवाले 'एक बिहारी सौ बीमारी' का जूमला जड़ते हैं तो दिल्लीवाले सिर्फ बिहारी कहकर हर बिहारी के दिल को छलनी किये देते हैं. बेबस की बेबसी का ऐसा तिरस्कार करने के बाद भी जिस दिल्ली की आंखें नम नहीं होती, वह दिलवालों की दिल्ली नहीं हो सकती.
ज़रा सोचें. जो लोग बिहारियों पर आक्रमणकारी होने का तोहमत लगा रहे हैं, उन्हें यह अधिकार किसने दिया? क्या वे सचमुच समझ रहे हैं कि वे क्या कर रहे हैं. यह कैसा आधुनिक बोध है जिसमें मानवीय संवेदना के लिए कोई ज़गह नहीं है? बिहारियों की बेबसी पर अट्टहास करनेवाले ये छद्म आधुनिक वास्तव में नए रूप में ब्राह्मणी अवतार हैं. किसी की बेबसी और लाचारगी को नियत मान लेना प्रकारांतर से जाति-व्यवस्था के सिद्धांतों को नए तरीके से वैध ठहराने की कोशिश नहीं तो और क्या है? बिहारी टिड्डियों का झूंड नहीं होते कि उनके आगमन को आक्रमण मान लिया जाये. जिनकी आखें गन्दगी से परहेज़ करती हैं, उनके बाजुओं में इतनी ताक़त जरूर होनी चाहिए कि वे उस गन्दगी से निजात दिलाने में समर्थ हों. देश की राजधानी देश के किसी खास हिस्से की जनता से नफ़रत करेगी तो क्या देश सुरक्षित रह पायेगा? लेकिन पवित्रता के नामालूम-से ढेर पर बैठे शिष्ट जन को इससे क्या मतलब? उनका घर गन्दा न हो, इसलिए उन्हें सेवक चाहिए, लेकिन सेवक की ज़िन्दगी गन्दगी से सराबोर रहे तो भी उन्हें कोई गुरेज़ नहीं. बिहारी उनके घर के बर्तन धोये, कपडे साफ करे लेकिन रहे कहीं और.
भई, वाह! ऐसा नवाबी ज़ज्बा तो बहादुरशाह ज़फर भी नहीं रखते होंगे. अपनी अनुदारता और अकर्मण्यता को महिमामंडित करने का जैसा जटिल जतन कभी इस देश के ब्राहमणों ने किया था, कुछ-कुछ वैसा ही हमारे नए बाजारू समाज के शिष्ट लोग भी करते प्रतीत हो रहे हैं. भलेजन, आप नहीं जानते कि आपकी चमक के लिए कितने बेबसों को अपनी अस्थियों को भस्म करना पड़ा है. बिहारियों को टिड्डी कहकर आखिर आप किस मानसिकता का परिचय दे रहे हैं? हमने तो आपकी खिल्ली कभी नहीं उडाई, तब भी नहीं जब विदेशी आक्रान्ताओं के सामने आप खीसें निपोर रहे थे. क्या आपकी समृद्धि में, आपकी शिष्टता में, आपकी चमक-दमक में हमारा कोई योगदान नहीं रहा है? क्या आप स्वयम्भू हैं? क्या आपको किसी से कोई लेने-देना नहीं है? अगर आपका जवाब हाँ में है तो मुझे कुछ नहीं कहना. किन्तु, अगर आप मानते हैं कि अकेला चना भांड नहीं फोडता तो मेरी गुजारिश है कि आप अपने दिल की निर्दयता को संयमित करें और मानवीय ज़ज्बे को तवज्जो दें.
वीरेन्द्र
दिवाली भी शुभ है और दीवाली भी शुभ हो
4 weeks ago
3 comments:
अच्छा यार्थात विश्लेषण
गाली देनेवालों में से अधिकतर ख़ुद भी किसी दूसरे प्रदेश से ही आए हुए होते हैं। लोगों का रवैया बेहद अफसोसजनक है लेकिन, कोई समझना चाहे तब तो बात बनें।
शेरशाह मेरी कल्पना में जांबाज सूरमा हैं, और अपने मन में मैं उन्हें अकबर और औरंगजेब की श्रेणी में रखता हूँ. लेकिन यह कि वे बिहारी थे यह स्पंदित करने-वाली नवीन प्रतीति है. मुंबई, दिल्ली, पंजाब, गुजरात आदि में बिहारी मजदूर और तथाकथित lower middle class के बांधव प्रतिपल अपमानित और शोषित है, इसमें क्या शक है. तुम्हारा क्रोध और व्यंग्य बिलकुल जायज है ... संजीव रंजन, मुजफ्फरपुर
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