दिल्ली विश्वविद्यालय और जे एन यू के तत्कालीन अकादमिक माहौल की कम से कम तुलानातामक तौर पर जितनी भी तारीफ़ की जाय कम है. देश की राजधानी और उसके सिरमौर कॉलेज और विश्वविद्यालय . संसाधनों और योग्य शिक्षकों से भरे - पूरे. पढ़ाई - लिखाई का खर्च , पटना , भागलपुर अथवा मुजफरपुर से थोडा ज्यादा पर prohibitive नहीं. और अगर दिल्ली प्रवास का खर्च , हैसियत और औकात से फाजिल हुआ तो शहर सिखावे कोतवाली की तर्ज पर टीयुसन आदि से रहने और पढ़ने लायक जुगाड़ किया जा सकता था .
कॉलेज और विश्विद्यालय में आकर्षण के हजार विन्दु और बहाने.जिस ओर भी दिल करे बढ़ने और बिगड़ने के हज़ार रास्ते. पढ़ने का मन करे पढिये , उम्दा सरकारी नौकरियों की तैयारी करिए . राजनीति में शामिल हों या कैम्पस में बिखरी सुन्दरता को फटी निगाहों से दूर से निहारते हुए अपने पर इमोशनल अत्याचार करते रहिये या फिर सुन्दरता को हथियाने का प्रयास कीजिये . सब कुछ संभव था और ये लड़के सब ओर लगे थे.
तिरस्कार , उपहास और अपमान से भी जूझना पड़ता था
दिल्ली के आधुनिक और तिलस्मी चकाचौंध के इस माहौल में अक्सरहां प्रतिक्रियावादी
गुटों से निबटना भी पड़ता था .मार - पीट की नौबत बेवजह आ जाती थी .
सारांश यह की व्यक्तिगत और सामुदायिक तौर पर बिहारी छात्रों को दिल्ली में बहु आयामी संघर्ष करते हुए आगे बढ़ना था.
दिल्ली में रहने , जीने और पढने के दरम्यान खास जद्दो - जहद से रु - ब्- रु होना पड़ रहा था . पर यह सब
ख़ास मकसद और उम्मीद के साथ ये नौ जवान कर रहे थे .
परदेस में रहना भावनत्मक तौर पर सुखद कभी नहीं होता .अपने और पराये का भेद बना रहता है .अपने और पराये दोनों को टीसते हुए .यही हाल बिहारी छात्रों का था .
पर घर वापसी का विकल्प करीब करीब बंद था .क्योंकि बिहार के कॉलेज और विश्वविद्यालय अपने भयावह दौर से गुजर रहे थे . भ्रष्टाचार , हिंसा और शैक्षणिक कदाचार सर्वव्यापी होता जा रहा था .कॉलेज में जातीय गिरोहों का बोलबाला हो गया था . होस्टल्स जाति गत आधार पर मिलने और बंटने लगे . हॉस्टल मेस भी जातिगत आधार पर बाँट गए.यह गिरोहबंदी छात्रों से लेकर प्राध्यापकों तक सब जगह कायम हो गयी.
इस दरम्यान जनता पार्टी की सरकार ने 1978 - 79 में शिक्षा और राज्य सरकार की नौकरियों में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया . आरक्षण के सवाल ने तो पूरे माहौल को ऊपर से नीचे तक विषाक्त कर दो धडों में बाँट दिया .
याद करें यही वह दौर है जब खास विश्वविद्यालय और कॉलेज खास जातियों के कहे जाने लगे . शिक्षक और कर्मचारियों की ही नहीं बल्कि कुलपतियों की नियुक्ति की प्रथम कसौटी जाति बन गयी.छात्रों में आपसी मार - पीट ,गोली बारी से शुरू होकर हत्या और वाकायदा संगठित अपराधी गिरोह बनने और बनाने तक पंहुच गयी. परीक्षा कोई भी हो मेधा सूची में अव्वल विभाग अध्यक्ष का पुत्र, पुत्री या रिश्तेदार हीं होगा.मतलब यह की पढ़ने , पढाने सब में हिंसा और जातिवादी जहर साफ़ साफ़ दिखने लगा .1974 का बिहार आन्दोलन जिन चीजों के विरोध में था वे प्रवृतियां ख़तम या कमजोर होने की वजाय 80 के दशक में तीक्ष्ण काउंटर अटैक लॉन्च कर दी .
पैरवी , पैसे और जातिगत गिरोहबंदी द्वारा शिक्षा और मेधा की कैसी मूर्तियाँ और प्रतिमान गढे जा रहे थे ?
अगर सच - सच लिखा जाय तो आज से 25 -50 साल बाद की पीढी कहीं इन्हें अतिशयोक्ति न मान ले .
उन तत्कालीन परिस्थितियों कि बिहारी छात्रों के दिल्ली पलायन में कितनी मत्वपूर्ण भूमिका रही इसका समग्र - आर्थिक और सामजिक विश्लेषण तो दूर , उन परिस्थितियों को पूर्ण समग्रता में रिकॉर्ड भी नहीं किया गया है.
5 comments:
पोस्ट पढ़कर दिल,दोस्ती एटसेट्रा एक बार फिर से देखने का मन कर गया।
बहुत ही अच्छा आलेख.
मजा आ गया.
जो चीज घर पर नहीं मिलेगी वह कहीं तो ढूढ़नी पड़ेगी, शिक्षा..
मित्र कौशल,
उच्च शिक्षा की गरज से दिल्ली आनेवाले बिहारी छात्रों की पीडा और उनके संघर्ष की बाबत आपने जो सवाल उठाये हैं, वे कई कारणों से महत्त्वपूर्ण माने जा सकते हैं. अव्वल तो यही कि अबतक यह मुद्दा किसी शोधकर्ता का ध्यान अपनी ओर क्यों आकर्षित नहीं कर सका? जिन कारकों की तरफ आपने ईशारा किया है, अगर उनपर कोई सम्यक अध्ययन करे और वस्तुस्थिति के बारे में विशद विवेचन कर बताये कि इस बौद्धिक पलायन के पीछे बिहार समाज की और कौन-सी मजबूरियां रहीं होंगी, तो आपके साथ मैं भी अनुगृहित होऊंगा.
वीरेन्द्र
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