प्रिय कौशल,
मेरी घुसपैठिया कविता आपको अच्छी क्या लगी कि मैं उन्मादी हो गया. और पुरातात्त्विक हो चुकी डायरी से एक और कविता निकाल लाया. इस उत्साह को अन्यथा न लें. आगे कविता नियमित रूप से न भेज सकूंगा.
वीरेन्द्र
नारी
तुम मेरी मां हो
बेटी और पत्नी भी हो.
मैं नहीं कहता
कह भी नहीं सकता
ki
ुम सबसे सुन्दर कब दीखती हो.
तुम्हारी ममता को
छद्म कहना
तुम्हारा अपमान है.
बेटी बन
बाप की गोद को
युद्ध-भूमि भी बना देना भी
महज नाटक नहीं है.
नाटक इसमें भी नहीं
कितुम बीबी बनकरएक
हो जाती हो जिस्मानी तौर पर
मेरे साथ.
तुम्हारे अंग-प्रत्यंग
में जो उमड़ता है
उमंग उसे भी स्वीकारता हूँ
सत्य ही.
तो भी एक सवाल जेहन में
छटपटाता है
तुम्हारे उत्तर के लिए
मेरी मां, मेरी बेटी, मेरी पत्नी.
क्यों तुम सभी
एकसाथ ही
रहती हो आतंकित
किसी अजाने भय से?
क्यों नहीं बताती
भय का कारन भी?
कहीं कोई पाप
या कुछ ऐसा-वैसा
तो नहीं किया था
अतीत में?
अगर नहीं, तो क्यों
जीवन को
प्रायश्चित की तरह
ढोने में
सुख मिलाता है तुम्हें?
मेरी मां, मेरी बेटी, मेरी पत्नी.
क्यों
जब कुछ कहने की बारी आती है
लजा जाती हो तुम?
क्यों
छुपकर रहती हो
खटमलों की तरह?
क्यों
क्यों नहीं कहती
कि
अब सहा नहीं जाता
ईज्ज़त, लाज, अनुशासन
का भारढोया नहीं जाता?
क्यों
कोई दहशतज़दा माहौल
तुम्हें छुए बगैर
गुज़रता नहीं?
तुम जानती हो
बखूबी जानती हो
कि
तुम्हारे बगैर
अस्तित्व नहीं होगा
मानव का
धरा पर.
कि
तुम्हारे समेवत नकार से
संभव है
बंद हो
जाना एकल नारी की चीख का.
वीरेन्द्र
दिवाली भी शुभ है और दीवाली भी शुभ हो
4 weeks ago
5 comments:
virendra ji,
aapne nari ke dard ko bahut sundar dhang se ujgar kiya hai aur jo prashna aapne uthaya hai usi ka samadhan main bhi dhoondh rahi hun.
mere blog par padhiyega agar fursat mile to--------aurat ka ghar?
ismein mera bhi yahi prashna hai is samaj se---------aurat ka ghar akhir hai kaun sa?pita ka ya pati ka?
samadhan mushkil hai magar koshish ki jaroorat hai.
प्रिय वीरू , इतने दो ढाई दशक की सोह्वत मुझे आपके कवि रूप से मुझे अपरिचित रखा. आश्चर्य हो रहा है .गोदी में लडक और नगर भर ढिंढोरा , पता नहीं यह यहाँ पर सटीक बैठता है या नहीं.चालू बोली में बोलें तो आपकी कविता हिला देती है.फर्ज करें आज से पांच सौ साल बाद अपने दौर का लेखा जोखा कोई लेने बैठे . यह भी माँ लें की तब तक स्त्री - पुरुष संबंधों का समुचित लोकतांत्रिकरण हो जाए .तब अपने इस दौर को जहां स्त्री अबला है ,भोग्या है और अब तो भ्रूण में हिन् मार देते हैं.इस खौफनाक दौर और उसमें स्त्री की स्थिति को किस संज्ञा या विशेषण से बूलायेंगें .सोचियेगा.मैंने आज से पचीस साल पहले ( A WORLD TO WIN के एक अंक में )ततकालीन साउथ अफ्रीका पर एक लेख पढा था .लेख एक इंटरव्यू पर आधारित था . एक अश्वेत युवा कह रहा था के GROWING UP IN AJANIA ( साउथ अफ्रीका का अफ्रीकन नाम ) MEANS YOU ARE ALWAYS ANGRY. वीरू जब से पढा ,उस लेख की साड़ी बातें भूल गया पर यह HAUNTING लाइन आज तक नहीं भूल पाया .आपकी कविता में उठाये गए सवाल उसी तरह के हैं.
लिखते रहें
सादर
आभार वीरेन्द्र जी इस बेहतरीन भावपूर्ण रचना के लिए.
भावपूर्ण रचना .........
काश कि यह सब सोच पाते.......समाज का पूरा परिदृश्य ही वर्तमान से बहुत स्वस्थ सशक्त कुछ और होता....
सोचने को विवश करती सुन्दर रचना....
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