माँ को गुजरे हुए डेढ़ दशक हो गया . एक दुर्घटना में माँ अचानक चल बसी . मार्च के महीने में माँ रोजाना याद आती है .
पिछले जून में घर से लौटते समय रास्ते में माँ के घर पर नजर पड़ी . घर का वर्तमान मन में कहूं तो यादों की बारात ले आया . साथ में कैमरा था .सोचा दूर से ही सही इसकी एक तस्वीर उतार लूं .
घर १९३४ में मेरे नाना ने बनबाया था . उस दौर में इलाके भर में इकलौता भव्य मकान . बैठक खाने की फर्श में संगमरमर का काम .उसके एक साल बाद माँ का जन्म हुआ .संयुक्त परिवार - दो भाईयों के बीच में नौ संताने , माँ आठवें नंबर पर .कुल चार भाई और पांच बहनें . कहते हैं की माँ के जन्म के बाद मेरे ननिहाल में धन और यश दोनों की भारी वृद्धि हुई .फतुहा , कलकत्ता से लेकर ढाका तक से व्यापार हुआ .ग्रामीण और कस्बाई समाज में शानो शौकत के सारे संसाधन जुटाए गए . १९४२ तक शहर में ठौर ठिकाना , घोड़ा ,बन्दूक , जमींदारी , बड़े संतान की B H U से वकालत की पढ़ाई . चार भाईयों में , वकील , किसान ,प्रोफ़ेसर और डॉक्टर बने .माँ से बड़ी तीन बहनों की शिक्षा पांचवी तक पाठ शाले पर और १९३८ तक उन सब की शादी . दो बहनें खगडिया के एक प्रगति शील समृद्ध परिवार men शादी . परिवार स्वतन्त्रता men भी शरीक रहा . यह परिवार राजनीति में बारास्ता विधायक ( पांच बार ) मंत्री पद तक पंहुचा .माँ से ठीक बड़ी बहन की शिक्षा सन चालीस से चौआलिस तक पटना के एकमात्र बालिका आवासीय विद्यालय में हुई.
सन पचास के बाद भी माँ के घर के वारिशों का रसूख बढ़ता रहा . दूसरी पीढी ने भी तरक्की की .डॉक्टर , प्रोफ़ेसर , व्यापार , बहुराष्ट्रीय कम्पनी सब ओर.
माँ इसी घर में पली और बढ़ी .लेकिन आज माँ के घर की हालत देखिये .
ऐसा नहीं है की इस घर को वारिसों ने बेंच दिया है .
मालिकान हक़ बरकरार है . आज भी धन धान्य से परिपूर्ण .अर्थ , शिक्षा ,राजनीति और सामजिक हैसियत .
पर यह पारिवारिक विरासत बदहाल क्यों ?
क्यों इसकी तस्वीर धुंधली लगती है ?
क्या समय के साथ माँ की पुण्य स्मृति भी उसके घर की तरह धुंधली पड़ जायगी ?
सच कहूं सोच कर डर लगता है.
6 comments:
माँ का घर और माँ को कोई कैसे भूल सकता है..?इस संसार में आते ही माँ से ही तो सबसे पहले मिलते है...वही हमारी पहली शिक्षक होती है..जो दुनिया में हमे जीना सिखाती है..उस माँ को बार बार प्रणाम..
पोस्ट पढ़कर मन द्रवित हो उठा ...माँ और उनकी यादें कभी नहीं भुलाई जा सकती ...हाँ भवन का हाल देखकर अच्छा नहीं लगा ...हम आपकी भावनाओं को समझ सकते हैं...
मां की यादें ... क्या होती होंगी ... सोंचकर मन घबडा जाता है ... क्योंकि ईश्वर की कृपा है कि ... मुझे अभी तक मां का प्यार मिल रहा है।
कौशल,
आपका संस्मरण हमारे मन-प्राण को छू गया. आपकी व्यक्तिगत पीडा और सामाजिक व आर्थिक विसंगतियों पर आपके निर्दोष आश्चर्य व क्षोभ से हम देर तक द्रवित रहे.
... संजीव रंजन, मुजफ्फरपुर
प्रिय कौशल,
स्मृतियों के खँडहर में जीवन की तलाश मृग मरीचिका भले हो, मुझे उसी में मानवीय जीजिविषा के चमकते कौस्तुभ दिखाई देते हैं. आपका डर कितना निश्छल है! इस डर को सलाम! उस दर को सलाम जहाँ मां का जन्म हुआ था.
वीरेंद्र
सर
मैं बहुत पहले से ये कहते आ रहा हूँ कि आपमें एक बड़ा ही संजीदा और संवेदनशील लेखक छुपा हुआ है | यह प्रतिभा और भी मुखर लगने लगती है जब लेखन को विचारधारा और अध्ययन की ताक़त से सरल और निश्छल भाषा में व्यक्त किया जाय | बहुत ही बधाइयाँ और खूब लिखते रहिये और हम जैसे लोगों के लिए प्रेरणाश्रोत बने रहिये |
आपका संजय
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