Saturday, March 28, 2009

बिहार विमर्श -५ : अथः स्कूल कथा

वीरेन्द्र की अथः स्कूल कथा

अथ स्कूल कथा 

( मित्र कौशल के आग्रह पर मैं यहाँ अपने उन अनुभवों को सूत्रबद्ध करने की कोशिश कर रहा हूँ जिनसे होकर एक विद्यार्थी के रूप में मैं बिहार के अपने छोटे-से गाँव की पाठशाला से निकलकर पहले दिल्ली विश्वविद्यालय और बाद में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय पहुंचा था. कह दूं कि यह सफ़र जितना लम्बा है, मेरी स्मृति उतनी ही कमज़ोर. ऊपर से यह धर्मसंकट अलग कि क्या याद करुँ, क्या भूलूँ. आप निःसंकोच हमारे साथ एक सहयात्री की तरह इस सफ़र में शामिल हो सकते हैं. मैं कोशिश करूँगा कि इस सफ़र के खास लम्हों से आपको रू-ब-रू करता हुआ चलूँ. )


तो आइये, सबसे अहले मैं आपको अपने गाँव के प्राईमरी स्कूल ले चलूँ.

गाँव के पूरब में अवस्थित इस स्कूल की स्थापना सन् १९३७ में की गयी थी. छठे दशक के पूर्वार्द्ध तक इस स्कूल में एक ही कमरा हुआ करता था जिसमें पॉँच-पॉँच कक्षाएं चलती थीं. नियुक्ति तो तीन शिक्षकों की थी, किन्तु उनमें से नियमित रूप से एक ही शिक्षक आते थे. यह जो आपके सामने बिना छत की अधगिरी दीवारें खड़ी हैं, कल वहां एक कमरा हुआ करता था जिनमें मास्टर साहब लोग कभी-कभी गाँव के लोगों के साथ मिलकर बीडी पीते या बतियाते थे. प्राईमरी स्कूल में मैं क्या पढ़ता था और क्या पढाया जाता था, मुझे अब कुछ भी याद नहीं है. हाँ, इतना ज़रूर याद है कि मैं तबतक हिंदी पढ़ना-लिखना और गणित का जोड़-घटाव-गुना-भाग करना सीख गया था. अलबत्ता, अंग्रेजी अबतक गधे की सिंग की तरह मेरे जीवन से गायब थी. जैसा कि मैं पहले बता चूका हूँ, इस स्कूल में नियमित रूप से एक ही शिक्षक उपलब्ध रहते थे और वही हमें सभी विषय पढाते थे. नाम था छतरबलि. उनका गाँव भी हमारे गाँव के जेवार का हिस्सा था. वे जाति के भूमिहार थे, समृद्ध थे और मेरे गाँव के समृद्ध परिवारों से उनकी भवधी चलती थी. स्कूल के अन्दर भी उनका व्यवहार भवधी के हिसाब से ही चलता था. पुरावारी पट्टी के बच्चे उनके विशेष कृपापात्र होते थे क्योंकि इन्हीं परिवारों की ओर से उनके मध्यान्ह भोजन का बंदोबस्त किया जाता था. मैं बता दूं कि मेरे गाँव में राजपूतों की पांच पट्टियाँ हैं जिनमें धनबल के हिसाब से पुरावारी पट्टी सबसे आगे था. मैं बिचली पट्टी का था और इस पट्टी में मास्टर छतरबलि का कोई मुरीद नहीं था. चूंकि मेरे बड़े भाई ने स्कूल जाकर वार्षिक चौक-चंदा की मनाही कर दी थी, इसलिए मैं माट्साब की आँखों की किरकिरी बन गया था. वे गाहे-बगाहे मेरे खिलाफ कोई न कोई मुद्दा तलाशते रहते थे. अब मुझे लगता है कि अगर मैं अन्य विद्यार्थियों से पढाई में बहुत अच्छा न होता तो इस स्कूल में मेरा टिके रहना संभव न हो पता. फिर भी, उन्होनें मेरा नाम दूसरी कक्षा में ही कट गया था क्योंकि मेरे घर से उन्हें चौक-चंदा की राशिः नहीं मिली थी. मैं परीक्षाएं देता रहा किन्तु परीक्षाफल में मेरा नाम हमेशा नदारद रहा. मेरी स्थिति रामजी, मुन्नीलाल और चान्ददेव से सिर्फ एक मायने में बेहतर थी कि उनकी तरह मुझे मास्टर साहब का पैर नहीं दबाना पड़ता था. बिल्कुल सही समझा आपने, रामजी जाति का लोहार था, मुन्नीलाल दलित और चान्ददेव कुर्मी था. अव्वल तो वे पढ़ने में रामभरोसे थे और दूसरे उनके घर चौक-चंदा की टोली भी नहीं पहुंचती थी.  

 
यह सब देखकर मेरा मासूम मन हमेशा बेचैन रहता था, किन्तु करुँ तो क्या करुँ? मैंने पिताजी से शिकायत की कि परीक्षा में अव्वल आने के बाद भी मेरा रिजल्ट नहीं निकला और नथुनी ठाकुर के बेटे सुरेश को प्रथम घोषित कर दिया गया. पिताजी आग-बबूले ही गए और नेताजी (शहीद वीरबहादुर सिंह जिन्हें गाँव के ज़मींदारों ने ही १९७१ में हत्या कर दी थी) के पास फरियाद करने पहुँच गए. नेताजी ने स्कूल इंस्पेक्टर से शिकायत की और वे एक दिन स्कूल आ पहुंचे. गाँव के लोग भी उपस्थित थे. मैं तब चौथी कक्षा में था. गाँव के लोगों में पुरवारी पट्टी के लोग भी थे जो माट्साब के हिमायती थे. नेताजी ने मुझसे कहा कि मैं अपनी बात खुद कहूं. मैंने हु-ब-हू सबकुछ बता दिया. वह दिन आज भी मेरी आँखों में बसा हुआ है. मैंने अपने जीवन का पहला भाषण उसी दिन दिया था. पुरवारी पट्टी के लोगों के अलावा सबने ताली बजाकर मेरा प्रोत्साहन किया और मास्टर छतरबलि के खिलाफ कार्रवाई हो गई. उनका तबादला कहीं और कर दिया गया. मैं आज भी अपने इस कृत्या पर गौरान्वित महसूस करता हू क्योंकि उस दिन के बाद स्कूल में छात्रों से पैर दबवाने और चौक-चंदा की परंपरा का अंत हो गया.
 
चूंकि इस स्कूल में सिर्फ पांचवीं कक्षा तक ही पढाई होती थी, इसलिए मैं भी १९७३ में इस स्कूल से फारिग होकर सन्देश के मिडिल स्कूल में आ गया. मिडिल स्कूल सन्देश में था और तब सन्देश धीरे-धीरे एक चट्टी के रूप में तब्दील हो रहा था. सप्ताह में दो बार साप्ताहिक हाट तो लगते ही थे, चाय-पानी की स्थाई दुकानें भी खुल गयीं थीं जिसमें अगल-बगल के गाँवों के लोग अक्सर आते-जाते चाय-नाश्ता के लिए रुकते थे. इसके अलावे, यहाँ कपड़े, बर्तन और गहने की दुकाने भी थीं जो शादियों के मौसम में विशेष रूप से गुलज़ार हो जाया जरती थीं. सन्देश का थाना बिहार के पुराने थानों में से एक था जिसके बाजू में ब्लाक डेवलपमेंट ऑफिस भी खडा हो गया था. गाँव की पाठशाला से निकलकर सन्देश आना हम सभी बच्चों के लिए एक रोमांचकारी अनुभव सिद्ध हुआ. 

सन्देश के मिडिल स्कूल के चारों तरफ चहारदीवारी थी जो कई-कई ज़गहों पर टूटी हुयी थी. हम इनका इस्तेमाल पलायन-मार्ग के रूप में करते थे. वैसे, अगर चहारदीवारी टूटी न भी होती तो भी हमें कोई विशेष असुविधा न होती. अव्वल तो कोई भी टीचर दोपहर बाद स्कूल में रहता नहीं था और अगर कोई भूला-भटका रह भी गया तो उनकी दिलचस्पी जम्हाई लेने में ज्यादा और पढाने में कम होती थी. दोपहर के बाद हमारा मिडिल स्कूल वीरान हो जाता और स्कूल के पीछे का मैदान बच्चों के शोर से गुलज़ार. मुझे बहुत दिनों तक लगता रहा कि मिडिल स्कूल की पढाई आधे दिन की ही होती है. खैर, हम बच्चों को इस अधदिनिं स्कूल पर फक्र था क्योंकि हमें खेलने की पूरी आज़ादी मिल जाती थी. रामलीला मास्टर साहब बगल के गाँव के थे और उनका दबदबा पूरे स्कूल पर तारी था. मजाल कि हेडमास्टर भी चूं कर सके. वे साल भर बच्चों के लिए कुछ करें या न करें, वार्षिक परीक्षा के समय वे अतिरिक्त सतर्क हो जाते थे और चाहते थे कि उनके स्कूल के बच्चे किसी से पीछे न रहे. सो, बिन मांगे ही हम बच्चों की मुराद पूरी हो जाती और सबको परीक्षा भवन के अन्दर किताबें लाने और नक़ल करने की छूट मिल जाती. इस तरह हम विधाता की की मर्ज़ी से मिडिल स्कूल भी पास कर गए. 

मैं अक्सर सोचता कि जब मिडिल स्कूल की पढाई भी इतनी आसान और सस्ती थी, तो मेरे प्राईमरी स्कूल के कुछ साथी मिडिल स्कूल तक आने से क्यों कतरा गए? जातियों के आधार पर अगर आज मैं अपने बिछुडे साथियों का हिसाब लागौऊँ तो स्पष्ट हो जायेगा की उनमें से अधिकाँश दलित जातियों के बच्चे थे जिनके लिए पढाई का वह महत्व नहीं था जो अन्य बड़ी जाति के बच्चों के लिए था. शैक्षणिक परंपरा से लैश समुदाय के लिए शिक्षा की परंपरा का निर्वहन करना आसान तो होता ही है, ज़रूरी भी होता है. पंडित का बेटा अनपढ़ रह जाये तो बिरादरी के लिए कलंक है जबकि दलित का छोरा पढ़ ले तो दूसरों की आँख की किरकिरी बन जाये. खैर......  
मुझे सन्देश के हाई स्कूल में पढ़ने का मौका नहीं मिला क्योंकि मैं मिडिल स्कूल में पढ़ते हुए राष्ट्रीय ग्रामीण छात्रवृति की परीक्षा उतीर्ण कर जिले के तीन चयनित स्कूलों में से किसी एक में दाखिला लेने का हक़दार हो गया था. चूंकि आगे की पढाई फोकटिया यानी छात्रवृति के पैसे से संभव थी, इसलिए बिना उंच-नीच सोचे मेरे घरवालों ने भी मुझे आरा शहर के जैन स्कूल में दाखिला दिला दिया. इस तरह १४-१५ बरस की उम्र में मुझे शहर देखने का पहला मौका मिला. पहली बार जाना कि रेलगाडी कैसी होती है, कि उसमें से कैसे फक-फक धूंआँ निकलता है. पक्की सड़क भी मैंने पहली बार आरा में ही देखी थी. आरा आने से पहले मेरे मन में शहर के बारे में कई-कई छवियाँ बसी हुई थीं. मसलन, मैं मानता था कि शहर के लोग सिर्फ हिंदी बोलते हैं, धोती-कुर्ता के बजाय पैंट-शर्ट पहनते हैं और औरतें भी किसी मर्द के सामने घूंघट नहीं डालतीं. इसीलिए मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था जब मैंने देखा कि आरा शहर में भी लोग वही भोजपुरी बोल रहे हैं जो गाँव के लोग बोलते हैं. और तो और, यहाँ भी लोग धोती-कुर्ता पहने पहलवानी अंदाज़ में इधर से उधर डोल रहे हैं. मन में बसे शहर की छवि पर यह पहला तुषारापात था. लेकिन शहर का स्कूल, क्या कहने!

 
हरप्रसाद दास जैन स्कूल, आरा में नामांकन क्या हुआ, मेरी तो ज़िन्दगी ही बदल गयी. पहली दफा लगा कि स्कूल खेलने की ज़गह न होकर पढ़ने की ज़गह होती है. समय पर स्कूल खुलता था, समय पर शिक्षक कक्षा में आते थे और परीक्षा से पहले अनिवार्य रूप से पाठ्यक्रम पूरे कर लिए जाते थे. यही कारण था कि इस स्कूल में प्रथम श्रेणी कोई खास बात नहीं मानी जाती थी. प्रथम श्रेणी तो तकरीबन सभी छात्रों को मिल जाती थी, इसीलिए नाम सिर्फ उसका होता था जो अपनी कक्षा में प्रथम, द्वितीय अथवा तृतीय स्थान प्राप्त करता था. पढाई की गुणवत्ता ऐसी कि निजी ट्यूशन की ज़रुरत ही नहीं पड़ती थी. मैं आज भी मानता हूँ कि जिस स्कूल के शिक्षकों की याद हमारे मन में स्कूल छोड़ने के बाद भी शेष रह जाती, वह स्कूल अच्छा होता है. अजित सिंह, रामजी बाबु, आकारान्ताजी, रमाकान्तजी, मधुकरजी जैसे शिक्षकों के नाम क्या मैं आज भी भूल पाया हूँ? मेरा एक-एक रोम उनका आज भी ऋणी है. 
 

आज जब पलटकर देखता हूँ तो लगता है कि ऐसे स्कूल ही बिहार के लिए आदर्श स्कूल हो सकते हैं. यानी, सस्ता, सुन्दर और टिकाऊ. हाँ, एक चीज़ की कमी अवश्य खटकती थी. स्कूल के पास कोई अपना खेल मैदान नहीं था, न ही स्कूल प्रशासन उसकी कोई ज़रुरत ही समझता था. नतीज़तन, खेल-कूद में इस स्कूल के छात्र फिसड्डी साबित होते थे. अनुशासन के नाम पर बरती जानेवाली सख्ती कभी-कभी बर्दाश्त से बाहर हो जाती थी. कुछ शिक्षक तो निर्दयता और सख्ती के बीच अंतर ही नहीं जानते थे. इन सबके बावजूद, यह स्कूल इतना अच्छा होते भी सबकी पहुँच में था. जो फीस सरकारी स्कूलों में लगती थी, वही फीस यहाँ भी लगती थी. लेकिन शिक्षा की क्वालिटी में ज़मीन आसमान का अंतर. चूंकि हम छात्रवृति प्राप्त छात्र थे, इसलिए छात्रवृति की शर्तों के अनुसार हमें हॉस्टल में रहना होता था. जी, अब मुझे भी मालूम है कि वह हॉस्टल पब्लिक स्कूलों के हॉस्टल की तुलना में हॉस्टल नहीं था. लेकिन, हमें उससे कोई शिकायत नहीं थी. हॉस्टल का घटिया खाना हम जिस उत्साह के साथ खाते थे, उसे देखकर कोई अज़नबी कह सकता था हमें सिर्फ भूख का स्वाद पता था, जीभ का नहीं. सच भी यही था, हॉस्टल में कितने बच्चे ऐसे परिवारों से आये थे जहाँ दो जून की रोटी भी आसानी से मयस्सर नहीं होती होगी. इसी परिवेश में रहते हुए एहसास हुआ था कि शिक्षा की डोर पकड़कर ही विकास के मार्ग पर अग्रसर हुआ जा सकता है; कि और कोई दूसरी राह नहीं है. 

 ( अब यहाँ थोडा विश्राम कर लिया जाये. आगे की कथा स्कूल से निकालकर कॉलेज और विश्वविद्यालय में कही जायेगी. आप हमारे साथ बने रहिये अगले इतवार तक)

 
वीरेन्द्र

2 comments:

उपाध्यायजी(Upadhyayjee) said...

आपका संस्मरण पढ़ कर अच्छा लगा ! ये शिक्षको का पैर दबवाने की प्रथा कब से था? अजित सिंह, रामजी बाबु, आकारान्ताजी, रमाकान्तजी, मधुकरजी ये लोग किस जाती के थे? मेरा अनुभव तो कहता है की गावों के शिक्षको किसी भी जाती के हों पैर दबवाते होंगे !
खैर अब तो गावं के विद्यालयों में शिक्षक नाम का जिव दुर्लभ हो गया है ! आते हैं खिचडी बनवाते हैं खाते हैं और चलते बनते हैं !

इरशाद अली said...

वाह जी वाह मजा ही आ गया। अच्छी जानकारी, इतने सुन्दर और सटीक लेखन के लिये। बहुत-बहुत बधाई