Monday, March 16, 2009

बिहार विमर्श (१) -- और रोने को क्या चाहिए ?

वीरेन्द्र का लेख बिहार पर .

और रोने को क्या चाहिए?

अगर आप बिहारी हैं; और बिहार से बाहर रहते हैं; और साल में दो-चार बार कुछ दिनों के लिए ही वहां जा पाते हैं तो मैं यकीन से कह सकता हूँ कि आपने भी बहुत कुछ ऐसा देखा सुना होगा जिसके आधार पर आप मौजूदा बिहार के समाज की सोच और उसके रुझान के बारे में कोई मत व्यक्त कर सकें. मित्र कौशल अपने ब्लॉग पर बिहार में तेजी से स्थापित हो रही एक खास तरह की वैचारिक सहमति को लेकर अपनी चिंता जता चुके हैं. चिंता इसलिए कि आज के बिहारी समाज में जो नई सहमति बनी है, उसे दुनिया का कोई देश, कोई समाज नैतिक, वैध और जायज़ नहीं समझता. यानी, बिहार नैतिकता के नए मानदंड गढ़ रहा है.अगर ऐसा है तो क्या यह चिंतनीय है? बिल्कुल है. मित्र कौशल की चिंता से मैं पूरी तरह सहमत हूँ. इस मुद्दे पर असहमति का सवाल, दरअसल में, मानवीय संवेदना के होने न होने का सवाल है.

बहुत जरूरी है कि बिहार नैतिक विपर्यय का अगुआ न बने. यह वहां की जनता के हक में नहीं होगा. इतिहास गवाह है (माफ करें, मैं यहाँ उनकी बात नहीं कर रहा जो मानते हैं कि इतिहास मर चूका है) कि कोई समाज उन्नत तभी होता है जब वहां के लोग अपने जीवन में, अपने व्यवहार में कायदा-कानून और उदात्त नैतिक मूल्य की अहमियत को समझते हैं. इस मुद्दे पर एक संजीदा विमर्श की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता. हम सब इस विमर्श में अपना अपना योगदान कर सकते हैं; बशर्ते हम इस मुद्दे पर बेहिचक कुछ कहने-सुनने के लिए तैयार हों. तो चलिए, मैं भी इस यज्ञ में अपने हिस्से की अमिधा की लकडी डाल ही देता हूँ.
मुझे अक्सर लगता है कि बिहार के अधिकाँश लोग मानते हैं कि आज इस मुल्क में बिना बैशाखी के कोई खडा नहीं है. समाज और व्यक्ति के जीवन में जो कुछ भी होता है, जुगाड़ से होता है. परीक्षा में अच्छे अंक चाहिए तो जुगाड़, अच्छी नौकरी चाहिए तो जुगाड़, अच्छी जगह पर तबादला चाहिए तो जुगाड़, नौकरी में प्रोन्नति चाहिए तो जुगाड़ और सब कुछ गलत करते हुए भी बाला बांका न हो तो जुगाड़. यानी, दुख लाख और दवा एक. जुगाड़ में कभी कभी बेगारी करनी पड़े तो भी गिला नहीं. पढाई-लिखाई फ़क़त दिखावे की चीज मानी जाती है, डिग्री सिर्फ गेट पास है. यह कहीं से भी हासिल की जा सकती है. बिहार के लोग आप पर बरबस हंस पड़ेंगे अगर उन्हें मालूम हो जाये कि आप दफ्तर में बाबु को घूस दिए बगैर काम कराने की बात करते है. लोग छूटते ही हाथ में गंगाजल लेकर किरिया खा लेंगे और कह देंगे कि कि आप इस लोक के वासी हैं ही नहीं. मैं बिहार के एक ऑफिसर को जानता हूँ जो एकबार ऐसी ही एक बात पर विहँसने लगे थे. खैर, हम यहाँ एक या दो व्यक्तियों की बात नहीं कर रहे हैं. बात पूरे अवाम की है. अगर यह मान भी लिया जाये कि नैतिकता के मानदंड सिर्फ बिहार में ही गड्ड-मड्ड नहीं हुए हैं, तो भी क्या इसी बिना पर हम इस सवाल को दरकिनार कर देंगे? नहीं, क्योंकि आँख बंद कर लेने से ही संकट काफूर नहीं हो जाता.

कुछ कहने के बजाय मैं अपना एक तल्ख़ अनुभव बयां करना चाहूँगा. तकरीबन पांच साल पहले की घटना है. मैं अपने गाँव गया था, बिना किसी खास प्रयोजन के. हर बार की तरह इसबार भी गाँव का मेरा रूटीन वही था. सुबह नाश्ता करने के बाद दोस्तों की टोली के साथ सन्देश बाज़ार पहुँच जाना. दुर्गा साव की चाय दूकान पर चाय पीना, गाँव-जवार के अन्य लोगों से हाल-अहवाल जानना, सोने नदी के किनारे घूम आना, आकर फिर चाय पीना और दोपहर के बोजन से पहले फिर गाँव लौट आना. दोपहर में भोजन करने के बाद किसी के दरवाज़े पर किसी भी उम्र के लोगों के साथ ताश खेलना और शाम होने से पहले फिर से सन्देश बाज़ार पहुँच जाना. शुरू में तो मुझे भी इस रूटीन में कुछ अटपटा नहीं लगा, किन्तु जब इस पर गंभीरता से सोचने लगा तो मन कसैला हो उठा. मुझे लगा कि घर और बाज़ार के बीच आते-जाते गाँव के लोगों की ज़िन्दगी छीजती जा रही है. सोचा, क्यों न गाँव के नौजवानों के साथ एक बैठक कर पता लगाने की कोशिश करुँ कि आखिर उनका दुख क्या है.

अगले दिन जब मैंने गाँव के युवकों के सामने अपनी ईच्छा का इज़हार किया तो वे मान गए. शाम में बड़का दुआर के दालान की छत पर सभी युवक इकठ्ठा हुए. बैठक की शुरुआत करते हुए मैंने उनसे कहा कि मैं अपने गाँव की सूरते-हाल से काफी निराश हूँ क्योंकि यहाँ तो खालिस निठल्लापन है. मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि आपका असली दुख क्या है. मेरी यह बात सुनते ही उनकी आँखों में एक चमक आ गयी. मुझे इस चमक के रहस्य को समझने में देर नहीं लगी. चूंकि मैं दिल्ली से गया था और मेरे पास तब एक मुकम्मल नौकरी भी थी, इसलिए सबको यह भरोसा था कि भैया चाहेंगे तो उनके दिन भी जरूर बहुर जायेंगे. इसके पहले की बात आगे बढ़ती, वे समेवत बोल पड़े, "भैया, बेरोज़गारी ही हमारा एकमात्र दुख है. हम कुछ भी करने के लिए तैयार हैं. आप इतने बड़े पद पर हैं, आपके एक इशारे पर पूरे गाँव को नौकरी मिल सकती है. आप ही हमारे आसरा हैं. आप अवतारी हैं, इस डीह का कायाकल्प करने का मादा सिर्फ आप में है. आप अगर हमारी थोडी भी मदद कर दें तो हमारी ज़िन्दगी सुधर जायेगी".

युवकों के ऐसे उदगार सुनकर मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था; समझ नहीं पा रहा था कि आखिर इनकी ऐसी कौन-सी विवशता है कि मुझे ही अवतार माने जा रहे हैं. मैंने प्रतिवाद करते हुए समझाने की कोशिश की कि इस देश में इतना ताक़तवर कोई नहीं है जो सबको नौकरी दे दे या दिला दे. मेरी बात सुनकर उनका पूरा उत्साह काफूर हो गया. कुछ देर चुप्पी के बाद एक युवक ने कहा, "अगर आपको नौकरी नहीं देनी थी तो हमें इस मीटिंग में बुलाया ही क्यों?" विकल्पहीनता की ऐसी स्थिति किसी कौम के लिए कितनी खतरनाक हो सकती है, इसे फिर-फिर बताने की जरूरत नहीं है.

आत्म-शक्ति के तिरस्कार के प्रति ऐसी सहमति आपको किसी और समाज में ढूंढें नहीं मिलेगी. कहा जा सकता है कि आज का बिहारी समाज अपनी तमाम धार्मिक आस्थाओं के बावजूद गीता के उपदेश को सर के बल खडा करने की कोशिश कर रहा है. उसे फल चाहिए, करमा नहीं. उदहारण के लिए हम पढाई और कमाई की बात कर सकते हैं. आज बिहार के गाँव-गाँव में जिस तरह तथाकथित अंग्रेजी स्कूल खुल रहे हैं, उसे देखकर किसी को गुमान हो सकता है कि बिहारी समाज जल्द ही शिक्षा के क्षेत्र में नई बुलंदियों को छू लेगा. लेकिन वास्तविकता कुछ और ही बयां कराती है. जहाँ एक तरफ निजी स्कूलों और कोचिंग सेंटरों की बाढ़ आई है वहीं दूसरी तरफ सरकारी स्कूल रसातल की ओर तेज़ गति से फिसलते जा रहे हैं. यह ताज्जुब की बात है कि पूरा समाज स्कूल की शवयात्रा में शामिल है, किन्तु किसी के चहरे पर कोई मलाल नहीं. स्कूल हों न हों, स्कूल में पढाई हो न हो, शिक्षक स्कूल आये न आये, किसी को कोई परवा नहीं. परवाह है तो सिर्फ इस बात की कि इस मरुस्थल में भी उनके लाल के प्रमाण-पत्र में अच्छे अंक दर्ज हो जाएँ. और यही कारण है कि जहाँ दूसरे समाजों के विद्यार्थी और उनके अभिभावक परीक्षा के बाद शांतचित्त होकर परीक्षाफल का इंतज़ार करते हैं, हम बिहारी दूसरी तीर्थयात्रा पर निकल पड़ते हैं. यहाँ-वहां से पता करते हैं कि किस विषय की कॉपी कहाँ और किसके पास गई है. फिर जुगाड़ से यह पता करते हैं कि परीक्षक के पास किसके मार्फ़त से और क्या या कितना लेकर पहुंचा जाये. छात्र की सफलता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि उसकी तयारी कैसी है, बल्कि इस बात पर निर्भर करती है कि उसके मां-बाप कितने जुगाड़ी हैं. दुख की बात तो फ़क़त इतनी है कि इस जुगाड़ी प्रवृति की वज़ह से पूरा समाज मदारी बनता जा रहा है और हम इसी मदारीपने में मस्त हुए जा रहे है. कमाई की बात, रोज़ी-रोटी की बात का खुलासा करने के लिए मैं अपने गाँव का हवाला पहले ही दे चूका हूँ. तो, अभी के लिए रुख्सती की इजाजत दीजिये, फिर मिलेंगे चलते-चलते, कहते-कहते.
वीरेन्द्र

1 comment:

Sachi said...

कितना सही यथार्थ है हमारे समाज का.....,
हम में दो समूह हैं:
१. जिन्हने पढना था, वे बाहर गए और फिर लौटकर वापस नहीं आ पाए, कारण चाहे जो भी हो.. वैसे आपने कारण लिख भी दिया है.
२. जो नहीं पढ़ सके, या बाहर नहीं जा सके, वे बिहार को नरक मानते हैं, और यथार्थ में रहते हुए भी यथार्थ से दूर हैं और उनका सोचने का नजरिया गलत हो जाता है.. और परिणाम का व्याख्या आपने लेख में की ही है..
३. कितना विस्थापन है.., ये देखकर मैं चकित हो जाता हूँ.. २००३ में मैं अंतर्राष्ट्रीय विस्थापन पर एक रिपोर्ट ढूंढ रहा था, और उसमे किसी ख्याति प्राप्त जर्नल में बिहार की व्यथा कथा पढी..
४. हम सब कुछ कर सकते हैं.. मौरीसस में झंडे गाडे हैं मगर नहीं अपने पर भरोसा करना छोड़ दिया है..