Tuesday, February 17, 2009

वैलेंटाइन डे के बहाने - चाल और चेहरा

(मित्र वीरू का वैलेंटाइन डे पर केंद्रित पोस्ट की दूसरी किस्त प्रस्तुत है। वीरेंदर का कहना है की इस विषय पर इससे ज्यादा शिष्ट वो नहीं हो सकते हैं .पढ़ें और अपने उदगार से अनुग्रहीत करें .)



वैलेंटाइन डे के बहाने: भाग II
अपने लेख के पहले अंश में वैलेंटाइन डे की मैंने जो दो छवियाँ दिखाई थी, उसमें एक त्राषद तो दूसरी प्रहसनमूलक मानी जा सकती है. पहली छवि त्राषद इसलिए क्योंकि उसमें रामजी की आड़ में वह सब कुछ किया जा रहा है जो भगवान श्रीराम की छवि से कोसों दूर है. जिस राम का नाम सुनते ही हमारे मन में निराशा के बीच आशा, दैन्य के बीच पुरुषार्थ तथा हैवानियत के बीच इंसानियत की भावनाओं का स्वतः संचार हुआ करता था, आज वही राम निरीह बना शैतानी तांडव देखने के लिए मजबूर है. मुझे अक्सर ऐसा लगता है कि जिस तरह सीता मैया को रावन ने धोखे से अपहरण कर लिया था वैसे ही मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को भी अ-रामों ने अगवा कर लिया है. राम की यह छवि कितनी दयनीय है! राम के बगूला भगत उन्हें लेकर गली गली में घूम रहे है और सबको बता रहे हैं कि देखो भगवान राम का कितना अपमान हुआ है. जिस राम के सामने त्रिलोक कांपता था, आख़िर उस राम के साथ बेअदबी से पेश आने की किसने हिमाकत कर डाली? जिस राम ने भक्तशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास से भी अपने अपमान की बात नहीं कबूली, अब क्या हुआ कि वे रो-रोकर कभी किसी तोगडिया को, कभी किसी सिंघल को तो कभ किसी अडवानी को बिन पूछे बताये जा रहे हैं कि हे, मेरे सच्चे भक्त! तुम्हीं मेरा उद्धार कर सकते हो. अगर तुम्हारी थोडी-सी भी आस्था मुझमें है तो कसम खाओ कि तुम बाबरी मस्जिद को धूल-धूसरित कर दोगे; कि उसी जगह पर मेरा एक भव्य मन्दिर बनोगे. मैं वचन देता हूँ कि जिस दिन तुम ऐसा कर लोगे, उस दिन मैं तुम्हें और तुम्हारी पार्टी को केन्द्र कि सत्ता पर बैठा दूँगा. चाहो तो तुमलोग एक काम करके भी मेरा पूरा स्नेह और समर्थन हासिल कर सकते हो. क्या यह वाकई दुखद नहीं है?
गली-मोहल्ले के लुच्चे, लम्पट, लफंगे और दादालोग जिस तरह भारतीयता, राष्ट्र धर्मं और जातीय गौरव के नाम पर हर साल चौदह फरवरी को मानवीय प्यार का ज़नाज़ा निकालते हैं, उसे देखकर इतना तो कहा ही जा सकता है कि ये राम का मर्म जानते हैं और न ही उनका कर्म. अगर ये बौड़म राम के काल में पैदा हुए होते तो मुझे यकीन है कि ये राम और सीता को पुष्प-वाटिका में प्रवेश नहीं करने देते. इनकी नज़र में लक्ष्मणजी भी घोर पातकी कर्म कर रहे थे. बड़े भाई के प्रणय-निवेदन का चश्मदीद गवाह वे अकेले ही तो थे. नल-दमयंती, भरत-शकुंतला, अहिल्या-गौतम जैसे न जाने कितने पवित्र मनीषियों ने प्यार का पैगाम दिया है, आज यह बताने कि जरूरत नहीं है. हम जिस प्रेम को जानते हैं उसकी अभिव्यक्ति और उसका एहसास सिर्फ़ दो व्यक्तियों के लिए मायने रखता है. प्यार में तीसरे पक्ष की उपस्थिति ही गैरवाजिब है और इसीलिए उसकी छवि सदैव एक खलनायक की मानी गयी है. प्रेम सर्वथा सृजनकारी होता है. वह नूतन और अनदेखे सत्य का अन्वेषक होता है. वह नैतिकता, संस्कार और पवित्राचार की परम्परास्यूत परिभाषा को नवरूप देता है. प्रेम ऊर्जा का अक्षय भंडार होता है. वह न तो पुरातन है और न ही नवीन. वह चिरनवीन होता है. उसकी गरिमा इस बात पर निर्भर नहीं करती कि हम उसका इज़हार इस-उस या किस प्राकार करते हैं. लेकिन जो चीज इतनी सृजनकारी होगी वह अपने को स्थापित करने हेतु मौजूदा चीजों के क्रम में उतने ही फेर-बदल भी करेगी. इसके लिए हमें प्रेम के समाजशास्त्र से रु-ब-रू होना पड़ेगा.
स्थापित समाजों का इतिहास इस बात का गवाह है कि उनकी बुनियाद में प्रेम का कोई मसाला नहीं मिलाया गया है. भारतीय समाज तो व्यक्तिक प्रेम को सदैव एक विकार मानता आया है. स्त्री रूप में माया कि जैसी छवि हमारे धर्मं-ग्रंथों में उकेरी गयी है, वह कमोबेश आज भी हमारे मानस में रची-बसी है. पवित्रता-अपवित्रता के खानों में सजाया गया हमारा समाज सदैव एक जटिल संकुचन की पीड़ा से ग्रस्त रहा है. हम जो भी करें, हमें जाति, धर्मं, नाते-रिश्तेदारी, कुल-खानदान और हैसियत का ख्याल रखना पड़ता है. जो लोग वैलेंटाइन डे के बहाने प्रेम का प्रतिकार या तिरस्कार कर रहे हैं, वे बखूबी जानते हैं कि अगर हमारे समाज में व्यक्तिक प्यार को मान्यता मिल गयी तो न तो उनकी जाति बचेगी, न उनका धर्मं बचेगा और न ही बचेगा उनका कुल-खानदान. यह प्यार सबको भस्म कर देगा. और इसीलिए यह क्षयकारी रोग है, समूल विनाश ही उपचार है.

जय हो! जय हो!!

No comments: