बिहार के मध्यम वर्ग या सत्ता धारी वर्ग , ( भाव ग्रहण करते हुए जिसमें भी सहूलियत हो वैसा माने ) में खास तरह के उद्यम और बुनियादी मुद्दों पर आम सहमति रही है .व्यक्ति ,परिवार ,कुल , गोतिया ,गाँव, समाज इन बुनियादी चीजों को कहें तो आदरणीय मानता रहा है. इस व्यापक आम सहमति के कारणों की चर्चा बाद में पहले सहमति के मुद्दों / प्रवृत्तियों और उद्यमों की चर्चा कर ली जाय 1. मेट्रिक की परीक्षा में अपने लाल या लाली को नक़ल ( जिसे हम चोरी कहते हैं ) करने के लिए हर तरह की कोशिस करना . परीक्षा केंद्र पर लाल और लाली जो कर पाए सो कर पाए , बाद में भी प्रयास जारी रहता है . एक प्रोजेक्ट के तौर पर इसे पुनीत कार्य का दर्जा.
2. लाल और लाली ने पढाई लिखायी में जो किया सो किया .कॉलेज और युनिवेर्सिटी में भी नक़ल/चोरी / पैसे / पारिवारिक /जातिगत संबंधों से जो कुछ भी संभव हो वह सब किया जाय. इस पचडे में न पड़ा जाय की प्रयास कानूनी है कि गैरकानूनी, नैतिक है कि अनैतिक , अपना भला सबसे पहले देखना है . देश दुनिया जाय भांड में.
3. लाल और लाली पढ़ गए तो नौकरी का भी इन्तेजाम होना चाहिए.अपने बल पर कुछ बने तो बने नहीं तो अपना पूरा सामर्थ्य झोंक देना है.इसमें भी सब सही है. Every Thing is Fair in Love and War के तर्ज पर.कुछ मायनों में प्रोजेक्ट की सबसे अहम् कड़ी .
4. लाल जैसी भी नौकरी में हों ,घूस में जितना कमायें उतना हीं अच्छा .और लाल नौकरी में रहते हुए परिवार कुटुंब , जात , जमात के लिए कायदे कानून की परवाह किये बगैर वह सब कुछ करे जिससे उनका हित साधन होता हो .
आप अगर किसी भी तरह से रसूख बाले हैं तो अपने उस सामर्थ्य का इस्तेमाल धन उगाही , अपना ,परिवार , कुटुम्ब ,जाति आदि के हित में करें.
"दोनों हाँथ उलिचीयो वही सयानों काम " के तर्ज पर .
आदर्श ,NAITIKATAA ,कानून ,मर्यादा जाय भांड में ,अगर आप येन केन प्रकारेण जैसे भी उगाही करते हैं आप सम्मान के हकदार हैं .समाज आप को सफल मानेगा.
शादी विवाह में जो जितनी बड़ी बोली लगवाले वह उतना हीं बड़ा आदमी.
आदर , श्रध्हा के पात्र रहे वो लोग जो इस कला को साध लिए .
इन प्रवृतिय्यों और इस उद्यम की व्यापक सामाजिक सहमति और आदर .
अस्सी के दशक में जब दिल्ली विश्विद्यालय में यहाँ के छात्रों की भीड़ बढ़ी तो ये अपने साथ बिहार की प्रतिमूर्ति लेते गए और संख्या बल मिलते हीं जातिगत गुटों और क्रमशः गिरोहों में ढलते गए .
खैर बाद में बिहार और देश में जो माहौल बना उसमें इनको फलने फूलने का प्रयाप्त मौका मिला .
ऐसे हीं माहौल में तक़रीबन पांच दशकों से बिहार में सफलता , असफलता ,मेरिट , योग्यता , संस्कार और समृधि के मानक तय हुये हैं.ज्यादातर नायकों ने नायकत्व इसी अखाडे में इन्ही दस्तूरों को अपनाते हुए प्राप्त किया.
बिहारी समाज में यह एक मुख्य प्रवृत्ति रही . इसके प्रतिरोध में दूसरी धारा भी निरंतर बहती रही है .जिस पर फिर कभी बाद में
दिवाली भी शुभ है और दीवाली भी शुभ हो
4 weeks ago
14 comments:
लाल या लाआपकी अधिकाँश बातें सही हैं पर कुछ बातों से मैं असहमत हूँ. बिहार का हर छात्र/छात्रा आपके पोस्ट का लाल या लाली नहीं है जो हर एक्जाम को नक़ल करके पास करता है और हर नौकरी जुगाड़ से प्राप्त करता है. अगर ऐसा होता तो बिहार के छात्र DU, JNU, BHU, IIT जैसे उच्चतर शिक्षण संस्थानों द्वारा ली जाने वाली अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षाओं में उच्च स्थान प्राप्त नहीं करते. आप जेएनयू के छात्र रहे हैं तो आपको यह भी अवश्य पता होगा कि यहाँ न सिर्फ बिहार के छात्रों का प्रतिशत ज्यादा है बल्कि अपने कोर्सेज में वे टॉपर्स में आते हैं.
और यह भी तो सोचिये कि बिहार और अन्य राज्यों के पिछडे इलाकों के छात्र जिस सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से आते हैं और जिन प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करते हुए अपनी पढाई करते हैं उसे देखते हुए उनकी उपलब्धियां DPS और DAV जैसे कॉन्वेंट स्कूलों के बच्चों से कहीं ज्यादा और बेहतर हैं. और इसके लिए वे प्रशंसा और प्रोत्साहन के हकदार हैं न कि आलोचना के. ली
मेरे ब्लॉग पर अपने बहुमूल्य विचार व्यक्त करने के लिए आपका आभार प्रकट करता हूँ.
मित्र कौशल,
हर बार की तरह इस बार भी आपने बर्रे के छत्ते में हाथ डाल दिया है. बिहार की जिस समस्या की तरफ आपने अपने पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है, वह अब अखिल भारतीय स्वरुप अख्तियार कर चूका है. लोकंतान्त्रिक संस्थाओं का जैसा मखौल हमारे देश में बनाया गया, उसमें यही होना था. यहाँ मुझे हजारीप्रसाद द्विवेदी की कही हुयी एक बात का स्मरण आ रहा है. नैतिकता और उसके प्रभाव/अप्रभाव के बारे में चर्चा करते हुए उनने लिखा था कि जो नैतिक है, जरूरी नहीं कि वह वैध भी हो. हमें यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनो चाहिए कि नैतिकता का पूरा ताम-झाम धर्मं के इर्द-गिर्द बुना होता है जबकि वैधता के लिए कानून और संविधान की सहमति आवश्यक होती है. जिसे हम भ्रष्टाचार कहते हैं, वह परिवार, समाज, वंश, कुल, गोत्र, गोतिया-देआद और नाते रिश्तेदारों के लिए पूर्व-जन्म का उपहार होता है. अगर ऐसा न होता तो कमाई की जगह नियुक्ति करने/करवाने के लिए साधू-संत, देवी-देवता और मंदिरों के चक्कर कोई नहीं लगाता. संस्थागत तरीकों की ऐसी उपेक्षा शायद ही किसी और देश के मध्यवर्ग ने की हो. लेकिन, यह मध्यवर्ग तो जाना ही इसी बात के जाता है. मंदी, छठा वेतन आयोग और मंहगाई के जाल में फंसे विश्व में कोई भी न्यूनतम मजदूरी की बात नहीं कर रहा है, गोया यह कोई मुद्दा ही नहीं है. जुगाड़ से ही सही, अगर यह नश्वर जीवन बिना किसी विशेष बाधा के खींच जाए तो मध्यवर्ग को अच्छा शुकून मिल जाता है. परिवार होगा तो निजी सम्पति भी होगी और उसे बचाए रखने के लिए नियम-कानून-धर्मं भी होगा. डूबने से पहले किसी तरह तैरते रहने का मुगालता भर है यह जुगाड़, फिर भी देखिये हम सत्याभास की खातीर सत्य की ही ऐसी तसिसी किये जा रहे हैं. अंत में, आग्रह सिर्फ इतना करूंगा कि नैतिकता पेड़ की टहनियों पर नहीं लटकती, अपितु हमारे जीवन के रेशे-रेशे में, खून के एक-एक कतरे में मौजूद होती है. अभी हमारी धमनियों में नैतिक रक्त का प्रवाह बंद है. शल्य क्रिया की तत्काल जरूरत है.
वीरेन्द्र
वीरू, शल्य क्रिया में उत्पात है. नया रक्त आवेगा कहाँ से? पश्चिम से? वह तो पराक्रम और विलास में डूबा निकृष्ट संस्कारों वाला है. इधर चाइना आदि भिन्न रसायन के हैं. योगासन विकल्प है. नवप्राण का संचार इस पद्धति से संभव है. खुलासा के अपना हीँ आईडिया लगाना होगा. क्या बिहार अब भी इतना भ्रष्ट है. यकीन नहीं होता ... संजीव रंजन, मुजफ्फरपुर
प्रिय, संजीव,
तुम तो शुरू में वह कह गए जो मैं आखीर में कहना चाहता था. फिर भी, .....मित्र संजीव, जब शल्य क्रिया की जरूरत आन पड़ेगी, तो रक्त -दान की गुजारीश भी सबसे पहले तुम्हीं से करूगा किसी औ से नहीं. यह मेरा वादा है, यही मेरी मजबूरी है. तुम्हीं कर दो न!
जानम, समझा करो!
वीरू
बिहार की धरती सदियों से बुनियादी तौर पर फेर बदल का माद्दा रखने वाली शक्तियों और मत , दर्शन और राजनीति के लिए उर्वर रही है.आप का जहाँ तक मन करे इतिहास में पीछे जाकर इस तथ्य की पुष्टि कर सकते हैं.
जाहिर है की ऊपर के पोस्ट में वर्णित तथाकथित आम सहमति का विरोध पुरजोर तरीके से लगातार होता रहा है.
पचास का दशक तो स्वतन्त्रता बाद के यूफोरिया के आगोश में था. तत्कालीन बिहार का हर समझदार आदमी ऐसा मानता था के सपनों के भारत और बिहार के पुनर रचना और विकास हो रहा है. समाज के असर दार तबके को लगा रहा था की हमें एक नए देश और राज्य का निर्माण करना है.
लेकिन साठ के दशक से तो लगातार तथाकथित आम सहमति की प्रतिगामी प्रवृतिय्यों का विरोध होने लगा. कांग्रेस के भीतर और बाहर , वाम , समाज वादी आन्दोलन , सर्वोदयी और गांधीवादियों सब ने अपने अपने ढंग से मुखालफत की . हाँ यह बात दीगर है के यह धरा तूफ़ान मचने लायक ताकत अख्तियार नहीं कर सकी.
विरोध की यह प्रगतिशील धारा का सम्यक आकलन मेरे पोस्ट का केंद्रीय विषय नहीं था . बिहारी नैसर्गिक प्रतिभा और उसका दैदीप्यमान स्वरुप आज पुरे भारत में पारखियों को दिख जाता है.मैं तो यहाँ तक मानने के लिए तैयार हूँ की बिहारी प्रतिभाएं अवरोध और विषम परिस्थितियों की भट्टी में तप कर कंचन /कुंदन की शक्ल में उभरा है.वो तमाम शख्सियत हमारी शाबासी के वाजिब हकदार हैं. पर उस पर फिर कभी बाद में.
रही बात पराक्रम , विलास और निकृष्ट संस्कार और पश्चिम के अंतर संबंधों की तो यह मानना की पश्चिम इन की नापाक और बदबूदार गठरी है ऐसी समझ फौरी तौर पर न तो सैद्धांतिक और न हीं casual empiricism के तराजू पर खरा उतरता है. मित्र संजीव अगर विस्तार से समझने का मौका दें तो बढ़िया होगा.
हिन्दू धर्म के दोनों पहलूयों - उद्दात सैद्धांतिक दार्शनिक स्तर और दूसरा कहें तो practising hinduism ( actual existing and practiced hindusim ) लोक जीवन के स्तर पर रोजमर्रा के क्रिया कलाप को संचालित करता ,-----के तौर पर क्या बिहार बाकी हिन्दुस्तान से अनोखा है या रहा है .? खास कर पिछले सौ ,दो सौ सालों में.कुछ ख़ास क्षेत्रों में जो सडांध अपने यहाँ है वो बाकि जगहों में शायद नहीं है .राजनैतिक और सामजिक संघर्ष का जो शमां बाकी जगह बंधा क्या अपने यहाँ नहीं बंध पाया. मित्र वीरू , अगर स्पष्ट उत्तर मेरे पास होता तो शायद यह विमर्श की जरूरत ही नहीं थी.
कहने की जरूरत नहीं है की यह विमर्श बहु विविध शास्त्रीय संवाद और अनुभव की मान करता है.इस विमर्श को बाधाएं तो बढ़िया होगा.
सादर
पुनश्चः जो पंहुचे हूए फ़कीर , औलिया या पीर होते हैं वो तो बहूत हुआ तो एकाध वाक्य में अपनी दिल की बात कहते रहें हैं. याद करें हजरत निजामुद्दीन औलिया ने सत्ता के मद में चूर सुलतान तुग़लक को क्या कहा था " दिल्ली दूर अस्त " और वह बद किस्मत भूपति तुगलकाबाद शहर की दहलीज भी न पार कर पाया और मृत्यु को प्राप्त हुआ. संजीव उसी सूफी संत परंपरा के हैं .शब्दों की मितव्ययिता पर मारक प्रहार .
पश्चिम तर्क अनुप्राणित है. अतः कामना, लाभ व लाभ के आवंटन पर आकर रुक जाता है. डेथ ऑफ़ ideas और Deconstruction आदि जैसे अकादमिक जलजले उठने लगते है. हमारे संस्कार में ऐसी अकादमिक त्रासदी का कोई इतिहास नहीं है. कामना सत्य है, लेकिन वृति निकृष्ट है. आप मानेंगे कि पोथी पढ़ी-पढ़ी जग मुआ और पंडित कोई न हुआ. प्रेम, करुना हीँ विकल्प व सत्य hain. पश्चिम इस सत्य से पीछे है ... संजीव रंजन, मुजफ्फरपुर
संजीव आप की टिप्पणी रुपी मूल भाष्य , सम्यक व्याख्या की मांग करता है.वैसी सूफी परमपरा में भी तो गृहस्थों और नए मुरीदों के लिए पीर के उपदेशों के सहज व्याख्या की गुन्जायीश रखी गयी है.सादर
पश्चिम तर्क अनुप्राणित है. अतः कामना, लाभ व लाभ के आवंटन पर आकर रुक जाता है. डेथ ऑफ़ ideas और Deconstruction आदि जैसे अकादमिक जलजले उठने लगते है. हमारे संस्कार में ऐसी अकादमिक त्रासदी का कोई इतिहास नहीं है. कामना सत्य है, लेकिन वृति निकृष्ट है. आप मानेंगे कि पोथी पढ़ी-पढ़ी जग मुआ और पंडित कोई न हुआ. प्रेम, करुना हीँ विकल्प व सत्य hain. पश्चिम इस सत्य से पीछे है ... संजीव रंजन, मुजफ्फरपुर
अन्यथा न होगा अगर कहूं कि मित्र संजीव और मित्र कौशल के बीच चल रहे इस विमर्श में एक सुहाना आकर्षण है. हर सुहानी चीज़ मुझे लुभाती है. मन में एक टीस भरी चाहत पैदा होती है कि उसे देखूं, उसे छुऊँ, और बस चले तो उसमें डूबकर वह पता कर लूं जिसकी वज़ह से उसका वजूद है. लेकिन, सिर्फ डूब लेने की चाहत भर से हर कोई कबीर नहीं हो जाता. मैं जानता हूँ कि प्रिय संजीव सच्चे अर्थों में वैश्विक मानुष हैं. देश, काल और संस्कृतिनिष्ठ भावबोध की सीमाएं उनके लिए खास मायने नहीं रखतीं. मानव-मन और उससे बननेवाले रिश्ते ही संजीव के बौद्धिक सरोकार के केंद्र होते हैं. और इसीलिए मुझे अचरज हो रहा है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि वे पूरब-पश्चिम के चिंतन-भेद (नायिका-भेद नहीं) में मशगूल हो गए. अगर आप इसे मेरी हेठी न मानें तो एक बात कहूं. मेरे-तेरे-सबके लिए सच यही है कि अलग-अलग चिंतन मानव-सभ्यता की बगिया के अनोखे फूल हैं. भले ही उनका रंग, रस और गंध अलग हों, लेकिन हैं तो वे फूल ही. जिस तरह मधुमक्खियाँ फूल-फूल में अंतर नहीं करतीं और सबसे रस लेकर एक महा रस (शहद) बना लेती हैं, उसी तरह मानव के लिए भी जरूरी है कि वह इस-उस विचार की श्रेष्ठता और हेयता का आकलन में ज्यादा समय जाया न करे. जो उसके चित्त और मन को शुकून दे, धून्ध से बाहर निकलने की राह दे और सबसे बढ़कर मानवीय सरोकारों को पनाह दे, उसे चाहिए कि वह उसे स्वीकार कर ले. तकरार की दरकार भला क्यों हो किसी को?
दुनिया द्वीप नहीं होती. अकेले मुक्ति नहीं मिलती. मित्र, विचारों की गठरी में जीवन तिरोहित नहीं हो जाता. विचारों की कितनी ही मजबूत रस्सी क्यों न हो, वह पूरे जीवन को बाँध नहीं पाती. जो विचार मानवीय गरिमा में बढोत्तरी करे, उसके मन में सत्यम शिवम् सुन्दरम की चाहत पैदा करे, वह मुझे स्वीकार्य है. धन-धरती, पूंजी और श्रम के मामले में बसुधैवकुटुम्बकम की भावना विकसित करना भले ही दुष्कर हो, विचारों के मामले में ऐसी कोई मजबूरी नहीं हो सकती.
वीरेन्द्र
'देश, काल और संस्कृतिनिष्ठ भावबोध की सीमाएं उसके लिए खास मायने नहीं रखतीं. मानव-मन और उससे बननेवाले रिश्ते ही उसके बौद्धिक सरोकार के केंद्र होते हैं' - वीरू, इन पंक्तिओं में पता है तुमने क्या किया है? मीर साहब होते तो कहते - 'हमारे उनने कलेजों में हाथ डाला है'. बिलकुल सही अनुमान है तुम्हारा. और इसकी पृष्ठभूमि में कायनात का करिश्मा रखो, जिसके एक कण-भर पर जिसे पृथ्वी आदि कहते हैं, पर हमारा जीवन विलक्षण, सम्पूर्ण और जगमग तब है जब आस्था का प्राण यह हो कि 'प्रेम पिआला जो पिए सीस दच्छिन्ना देय, लोभी सीस न दे सके नाम प्रेम का लेय'. पश्चिम का प्राण करुना से इतना सिंचित मुझे प्रतीत नहीं होता. बात तुलना और भेद की नहीं है. मेरे अपने अनुमाण और मन में जो बात है मैं बस उसी को बयान कर रहा था. बाकी कौशल ने एक दिलचस्प न्योता दिया है उसपर अगली किश्त में ... संजीव रंजन, मुजफ्फरपुर
प्रिय संजीव,
शुकून हुआ कि तुम्हें इस कदर जान पाया हूँ. मेरी बात तुम तक इतनी गहराई के साथ पहुँच सकी, इसे मैं अपनी अन्यतम उपलब्धि मानता हूँ. खैर, झेंप इस बात की है कि कहाँ मीर साहब और कहाँ वीरुआ? बात हज़म नहीं होती.
मित्र, पिछली प्रतिक्रिया में मेरा निवेदन सिर्फ इतना था कि जब मनुष्य अपने सत्व में एक है, तो अपने उद्गारों में क्यों नहीं? प्रेम, करुना, संवेदना और सहिष्णुता - ये सभी मानव-मन की अवस्थाएं ही तो हैं. मेरे लिए यह मानना मुश्किल है कि दुनिया के समाज तर्क और करुणा के भेद के आधार पर बँटे हुए हैं. अलबत्ता, यह जरूर मान सकता हूँ कि किसी समाज विशेष में तर्क की प्रधानता है तो किसी में करुणा और प्रेम की. लेकिन, प्यार का इज़हार करने के लिए प्रेमगीत तो गाने ही पड़ेंगे. मानवीय पीडा के प्रति करुणा देश और संस्कृति की सीमाओं से नहीं बंधी होती. सही है कि प्रेम और करुणा की अभिव्यक्ति नितांत निजी मसला होता है, तथापि उसके प्रति प्रत्येक समाज एकरस तरीके से सहिष्णु नहीं होता. उदहारण के लिए, हम भारत और खासकर हिन्दू समाज की बात कर सकते हैं. वज़ह चाहे जो हो, हमें यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि हिन्दू समाज घृणा, पवित्रता, अपवित्रता को संस्थागत रूप देने में बेमिसाल रहा है. अछूत की नियति किसी को सहज स्वीकार्य नहीं हो सकती. सच तो यह है कि न सिर्फ उसका उद्भव, अपितु उसका सदियों तक जारी रहना भी घोर हिंसा, दमन और अमानवीय शोषण का नतीजा है.
मेरे प्रिय सजीव, तुम्हारी बातों में मैंने सदैव एक निश्छल दिल दिल की धड़कन सूनी है. प्रायश्चित तो वे करें जो कहते कुछ और हैं और मानते कुछ और. रही बात सहमति अथवा असहमति की, तो मैं यहीं कहना चाहूँगा कि भई, जम्हूरियत में अपनी सम्मति देने के लिए हम सभी स्वतंत्र हैं किन्तु सहमति का हमारा आग्रह भी सभी स्वीकार कर लें, यह जरूरी नहीं.
अस्तु.
वीरेन्द्र
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