Tuesday, February 3, 2009

क्यो भयभीत है हम ? भाग -1

( भय देश और काल सापेक्ष है। अगर व्यक्ति के स्तर पर कहा जाय तो जीवन यात्रा के अलग अलग पडावों पर भय की तीव्रता और कारण अलग अलग होते हैं । कुछ बातें तो मानव मात्र पर लागू होती है पर कुछ बातें व्यक्ति विशेष की खास पहचान या कमजोरी बन जाती है।" भय और कल्पना का अभाव " विषय पर एक निजी पत्र व्यहार में प्रिय मित्र वीरू ने अपने उदगार इस वायदे के साथ व्यक्त किये हैं की विचार की यह सरणी वे जारी रखेंगें। प्रस्तुत हैं उनके विचार )

शास्त्रों में बयान किया गया है की भय से मुक्ति की साधना ही मनुष्य को मोक्ष का अधिकारी बनाती है. हम सभी किसीं न किसी भय से ग्रस्त रहते हैं. हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने तरीके से इस भय के बारे में जानने और उसे दूर करने की कोशिश में लगा रहता है. कभी हम अपने संकोच को, कभी अपने परवरिश को तो कभी असफलता से पैदा हुए आत्मविश्वास की कमी को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं. लेकिन, अक्सर हम किसी एक कारण पर टिक नहीं पाते. हम जिसे असफलता कहते हैं, वह वास्तव में हमारी ख़ुद की गढ़ी हुयी परिभाषा की परछाईं होती है. सफलता के मानदंड ही तय करते हैं कि हमारे लिए असफलता क्या होगी. दूर क्यों जायें, अपने ही समाज से एक उदहारण ले लेते हैं. एक ब्रह्मण के लिए अशिक्षित रह जाना असफलता है, जबकि एक दलित के लिए स्वाभाविक. एक ही चीज किसी के लिए अनुकरणीय मान लिया जाता है तो किसी के लिए वर्जनीय. दुनिया के दूसरे समाजों में भी ऐसी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है. जिस तरह दुनिया कि हर चीज का एक इतिहास होता है, उसी तरह हमारे मनोभावों का भी एक इतिहास होता है. दासयुग अथवा सामंतीयुग में सफलता और असफलता के जो मानदंड थे, वे लोकतंत्र में नहीं होंगे. समाज में जब धर्मं की सत्ता होती है तो मुक्ति मोक्ष के अलावा कुछ और नहीं होती. धर्मराज्य में जिसे मोक्ष कहा गया है, वही पूंजीवाद में आज़ादी और समाजवाद में मुक्ति के नाम से जाना जाता है.

भय के अलग-अलग रूप जीवन की अलग-अलग अवस्थावों में अलग-अलग तरीके से हमारे सामने प्रकट होते हैं. बचपन में हम जिन चीजों से डरते हैं, वे जवानी के दिनों में बचकाना लगने लगते है. जैसे जैसे हम जवान होते जाते हैं, वैसे वैसे हमारी दुश्चिंताओं में बेरोजगारी, पद और प्रतिष्ठा की हानि, अपने और परिवार की सुरक्षा की चिंता, स्वस्थ्य और प्रगति की कामना, सामनेवाले की प्रगति से कोफ्त वगैरह वगैरह चीजें जुड़ती जाती हैं.

लेकिन क्या कोई व्यक्ति इनसे परे जा सकता है? आमतौर पर सच यही होगा कि मोह और माया से बिंधी दुनिया में मनुष्य के लिए इससे परे जाना सम्भव नहीं है? मैं नहीं मानता कि भय, संकोच और आत्मविश्वास की कमी के बारे में जिज्ञाषा सिर्फ़ आध्यात्मिक उत्तर की मांग करती है. मेरा दृढ़ विस्वास है कि भय, संकोच, चिंता की जड़ें समाज की संरचना में छुपी होती है. अलग-अलग पांतों में सजे समाज में प्रत्येक व्यक्ति के लिए पद, प्रतिष्ठा और सफलता के मायने एक जैसे नहीं होते और न ही मने जाते हैं. सबके लिए अलग-अलग आचार-संहिता होती है. किसी के लिए औरों की सेवा करना ही धर्म है तो किसी के लिए शाषण करना. दरअसल समाज खंडित मनुष्यों का जमावडा होता है, पूर्ण मनुष्य समाज के सांचे में ढल ही नहीं सकता. यह अकारण नहीं है कि सिद्धि कि चाहत में भटकनेवाले लोग समाज का ही त्याग कर देते हैं. समाज की बनावट में, उसके रीती-रिवाजों में और उसके व्यक्त-अव्यक्त सरोकारों में सदैव संगति नहीं होती. ज़्यादा सच तो यह है कि असंगति ही उसकी नियति है. मज़े की बात तो यह है कि कोई भी समाज इस विसंगति को औपचारिक तौर पर कभी स्वीकार नहीं करता. और इसीलिए हर व्यक्ति अपने-अपने तरीके से इस विसंगति को समझने की और उसी में येन-केन-प्रकारेण संगति ढूढने की कोशिश करते रहता है. और जब हम संगति नहीं ढूंढ पाते तो ज़िन्दगी को एक पहेली मानकर संतुष्ट हो लेते हैं. क्या यह अजीब नहीं है कि हम जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं, हमारी जिंदगी ऐसी visangatiyon में और ज़्यादा ulajhati जाती है. हमारा मन स्वीकार नहीं कर पाता कि जो हमसे पद, प्रतिष्ठा और ताकत में आगे है, वे हमसे किसी भी मायने में बेहतर हैं. हमें लगता है कि हमारे साथ अन्याय हो रहा है. हमारी चिंता के मूल में इसी अन्याय का प्रतिकार न कर पाने की मजबूरी होती है. जी, बिल्कुल सही फ़रमाया आपने कि मैं भी इसी मजबूरी का shikar हूँ.

पुर्ण मनुष्य कुछ होने से पहले भी मनुष्य ही रहता है और कुछ बन जाने के बाद भी मनुष्य ही रहता है. किसी इतर सन्दर्भ में कहे गए ग़ालिब का एक शेर यहाँ बरबस याद आ रहा है:'कुछ न था तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता, मुझको डुबोया होने ने, मैं न होता तो क्या होता.' आत्मनकार की इस बानगी में चाहे तो कोई पराजित मन की पीड़ा के दर्शन कर सकता है. लेकिन ख़ुद को इस तरह भूला पाने की निर्ममता बिरले लोगों में ही होती है. यही बात हिंदू भक्तों की विनयप्रवन समर्पण की चाहत में भी दिखायी पड़ती है. अपने प्रति निर्मम होना कोई आसान काम नहीं है. अपने प्रति निर्मम होने का मतलब अपने विचारों के प्रति, अपने ख्यालों के प्रति, अपने विश्वासों के प्रति, अपनी रुचियों के प्रति, अपनी अरुचियों के प्रति और सबसे बढ़कर अपने सरोकारों के प्रति भी निर्मम होना होता है. यह निर्ममता मनुष्य को अलग-अलग परिस्थितियों में भी समरस बनाये रखने में सहायक होता है. मार्क्सवादी के लिए भी सत्य सिर्फ़ वही नहीं होता जो दीखता है, अपिटी वह भी सत्य होता है जो अभी अस्तित्व में नहीं है. मार्क्स का द्वंद्ववाद यही तो है.

विचार-सरणी अभी जारी है। इंतज़ार ही मुकाम तक ले जाएगा। अभी इतना ही.
वीरेंदर

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