( मित्र वीरू का वैलेंटाइन डे पर पोस्ट अभी अभी मिला है । उसे पेश कर रहा हूँ .आपके उदगार का इंतज़ार रहेगा )
वैलेंटाइन डे के बहाने
मैं तकरीबन पचास साल का हूँ. फिर भी मुझे बेसब्री से वैलेंटाइन डे का इंतजार रहता है. इस साल भी था. इंतजार की वज़हें तो कई हैं, लेकिन इतना ज़रूर है कि उसमें सबसे दिलचस्प वज़ह शिव सैनिकों, राम सेनानियों तथा बजरंगदालियों जैसे संगठनों के सक्रिय कार्यकर्ताओं की कारगुजारियां होती हैं. वर्षा की प्रत्याशा में जिस तरह चीटियाँ रसातल की ठंढक छोड़ धरती की सतह पर आ जाती हैं, उसी तरह ये स्व-घोषित रणबांकुरे वैलेंटाइन डे पर अपने जीवन के नाना प्रपंचों से रुख्सती लेकर राष्ट्र-धर्मं और भारतीयता के अखाडे में आ धमकाते हैं. इनका तमाशा देखने लायक, समझने-बुझने लायक तथा सबसे बढ़कर गुनने लायक है.
किसी को ठीक से याद रहे या न रहे, इन्हें बखूबी पता होता है कि वैलेंटाइन डे यानी चौदह फरवरी को कौन सा दिन है. अगर यह दिन मंगलवार हुआ तो इनका जोश दुगुना हो जाता है. कोई पूछे न पूछे, ये तरह तरह के उपक्रम करके दुनिया को बताते रहेंगे कि वे प्रेम के कतई खिलाफ नहीं हैं, उनका विरोध तो इसके प्रदर्शन के तरीकों को लेकर है. ये मानते हैं कि प्यार निजता की चीज है, और इसीलिए इसका सार्वजनिक प्रदर्शन राष्ट्र हित में नहीं होगा. प्यार की सार्वजनिक अभिव्यक्ति से समाज में व्यभिचार बढेगा और राष्ट्र का आत्म-बल कमजोर होगा, वह वीर्यमान नहीं रह सकेगा. ऐसा घालमेल आपने कहीं और देखा है? वे हमें बता रहे हैं कि प्यार चरित्र और राष्ट्र के क्षरण का उत्स है. दुनिया के और किसी भी मुल्क़ के किसी भी चिन्तक ने कभी नहीं कहा कि प्यार एक क्षयकारी रोग है; कि इससे चरित्र और राष्ट्र का सत्यानाश होता है. अखबार में इश्तेहार देकर जनता-जनार्दन को सूचित किया जाता है कि ये सद्यःजात सैनिक किसी भी कीमत पर हनुमान जी का अपमान नहीं होने देंगे. वे अपनी जान देकर भी मंगलवार को ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे और दूसरों से करवाएंगे भी. इन डंड-पिस्तौलधारी किंतु सर्वथा अप्रशिक्षित सैनिकों की उन्मादी उत्सवधर्मिता जितनी लुभावनी होती है, उससे कहीं ज़्यादा डरावनी होती है. फूहड़ अनाडीपन के साथ जिस तरह ये भाला-तलवार-लाठी भांजते हैं उसे देखकर आम जनता भले डर जाती हो, कोई प्रशिक्षित सैनिक या सिपाही उसे एक तमाशा या ज़्यादा से ज़्यादा बन्दर-घुड़की ही मानेगा. चिंता की बात इतनी भर है कि हमारे असली सैनिक और सिपाही भी सिर्फ़ तमाशबीन बनकर रह गए हैं. वे भूल गए हैं कि तमाशा करते करते तमाशावाले ही अपना तमाशा बंद कर कोई और तमाशा करने लगे हैं.
राम-मनुमान जी के इन रखवारों से अलग एक दूसरी पांत उन लोगों की है जो न तमाशा करना जानते हैं और न ही उसे उजाड़ना. ये ख़ुद ही तमाशा बनकर यात्रा-तत्र-सर्वत्र विराजमान रहते हैं. ये लोग इतने दीवाने होते हैं कि इन्हें अमूमन अपनी सुरक्षा की भी चिंता नहीं होती. न ये किसी से कुछ कहते हैं, न किसी को कुछ बताते हैं और निकल पड़ते हैं प्रेम की डगर पर, यह जाने बगैर कि 'बहुत कठिन है डगर पनघट की'. ये प्रेमानुरागी नहीं जानते कि वे किस सदी में और किस समाज में जी रहे हैं. जहाँ सुरक्षा की गोहर लगाने पर भी सुरक्षाकर्मी वारदात के बाद पहुंचते हों, वहां इन्हें यकीन होता है कि सिर्फ़ प्रेम की बांसुरी बजाकर ये प्रेम-शत्रुओं का विनाश कर लेंगे. नतीजतन, ये न तो अपने माता-पिता को, न अपने परिवार को और न ही पुलिस को इत्तला करना जरूरी समझते हैं. और फिर, वही होता है जो मंजूर खुदा होता है. किसी के बाल काटे जाते हैं, किसी को गाली-थप्पड़मिलाती है तो किसी को सरेआम नंगा कर खिल्ली उडाई जाती है.
(क्रमशः जारी)वीरेन्द्र
दिवाली भी शुभ है और दीवाली भी शुभ हो
4 weeks ago
2 comments:
बहुत खूब लिखा है...14 फरवरी के बहाने...
मैंने भी कुछ लिखा है..जरूर देखें
अच्छा लिखा है। आगे की कड़ी का इंतजार रहेगा।
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