Saturday, February 7, 2009

बिहार में परिवर्तन - भाग 2

( मित्र वीरू वायदे के अनुसार बिहार और परिवर्तन के मुद्दे पर अपने उदगार की दूसर किस्त के साथ हाजिर हैं .आपके मंतव्यों का स्वागत है। पटना गाँधी मैदान आप का इंतज़ार कर रहा है।)

यह क्या अजीब नहीं लगता कि जिस बिहार ने इतिहास से लेकर वर्त्तमान दौर तक सभी परिवर्तनकारी शक्तियों को अपने यहाँ पनाह दी है, वही बिहार आज विचारों की ऊष्मा के लिए तरस रहा है. हम जानते हैं कि समाज की सडांध को सिर्फ़ नवविचार और नवाचार ही दूर कर सकते हैं. दमित जातियों के शुरूआती उभार के दौर में (छठे-सातवें दशक में) ऐसा लगा था कि हो न हो बिहार भी एक नई करवट के लिए बेताब हो जाए. नाई जैसी ज़ाति के किसी व्यक्ति के लिए मुख्यमंत्री कि कुर्सी तक पहुँच पाना वास्तव में उस करवट की पहली अनुगूंज थी. माननीय कर्पूरी ठाकुर के उदय में एक बात साफ तौर पर उभरकर सामने आयी थी कि बिहार की राजनीति में संख्या बल ही राजनीतिक सफलता का एकमात्र मानदंड नहीं हो सकता. लेकिन यह स्थिति ज़्यादा दिनों तक बनी नहीं रह सकी. औपचारिक राजनीति के खिलाड़ियों को यह समझने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा कि असल में इस चुनावी लोकतंत्र में संख्या की उपेक्षा करना अपने ही पैरों पर कुल्हाडी मारने जैसा आत्मघाती कदम साबित होगा. बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव का उदय इसी तर्क-विपर्यय का नतीजा माना जा सकता है.

औपचारिक राजनिति के सामने सबसे बड़ी चुनौती जातिबद्ध समाज को बुद्धिसम्मत बनाने की थी किंतु वह ख़ुद आकंडों के भंवरजाल में फंस गयी. जातियां बनी रहीं, राजनीति चलती रही. जातियों की यथास्थिति बनाये रखने के लिए न तो किसी वैचारिक आन्दोलन की जरूरत होती है और न ही विकास के किसी सम्यक प्रयत्न की. नतीजतन, बिहार में न तो भूमि-सुधार के जरिये आजीविका के संसाधनों को समतामूलक बनाने की कोशिश की गयी और न ही आज़ादी पूर्व चलनेवाले सामाजिक-धार्मिक आन्दोलनों को ही आगे बढाया जा सका. जातियों की अलग-अलग एकजूटता ही औपचारिक राजनीति को मज़बूत आधार देने में कारगर साबित होती रही. अपनी-अपनी जाति में नायकों की खोज करना ही काफी समझा जाने लगा. लेकिन चूँकि जातियों का आधार धार्मिक था, इसलिए इन नायकों की छवि भी किसी अवतारी पुरूष के रूप में ही बनाई जाने लगी. और नायक की ऐसी छवि बनते ही वह सामान्य मानवीय बुद्धि की ज़द से बाहर हो जाता है. हम उसके कृत्यों-अ-कृत्यों मूल्यांकन इस आधार पर नहीं करते कि उनसे हमारी कौन-सी तात्कालिक अथवा दूरगामी चिंता का समाधान होता है. अवतारी पुरूष के आकलन के लिए तात्कालिता का मानदंड अपनाया नहीं जा सकता क्योंकि उसके अमंगल में भी मंगल की कामना छुपी होती है. यही कारण है कि तमाम लानत-मलामत के बावजूद कोई नेता अपनी जाति में अपना रुतबा आसानी से नहीं खोता. उसकी जातिवाले उसकी हर आलोचना को दूसरी जाति की साजिश मानते हैं.

बिहार की बदहाली का सारा दोष वहां की राजनीति अथवा भ्रष्टाचार के माथे मढ़ देना काफी नहीं होगा. देश के दूसरे हिस्सों में भी राजनीति न तो पवित्र है और न ही वे भ्रष्टाचार से मुक्त हैं. अलबत्ता, वे एक बात में बिहार से अलग जरूर हैं. दक्षिण के राज्यों में जहाँ सामाजिक आन्दोलनों की सुदीर्घ परम्परा रही है, वहीं बिहार में ऐसी किसी परम्परा का लंबा इतिहास नहीं मिलता. छठे दशक में समाजवादियों की अगुआई में जाति-व्यवस्था के खिलाफ जो सांस्कृतिक आन्दोलन चलाये गए, वे संस्स्क्रितिकरण के चौखटे को पार नहीं कर सके. उदहारण के लिए, पुरोहितवाद को समाज से दूर करने के नाम पर हर जाति के अन्दर ही पुरोहितों की एक अलग जाति बना ली गयी. यानी, ब्राह्मणवादी फांस की गिरफ्त में आकर यह आन्दोलन भी किसी वैकल्पिक संस्था का निर्माण नहीं कर सका. यही कारन था कि छठे दशक का समाजवादी नवोन्मेष राजनीति के स्तर पर पिछडे वर्ग कि उपस्थिति दर्ज कराने के अतिरिक्त कोई वास्तविक बदलाव की दिशा नहीं ढूंढ पाया.

अस्सी के दशक में जयप्रकाश नारायण की अगुआई में लोकतान्त्रिक विचलन के खिलाफ जो आन्दोलन चला, वह बहुत हद तक वैचारिक शून्यता पर टिका था. उसमें न तो कांग्रेसी संस्कृति के खिलाफ किसी नवजागृति का मुकम्मल संदेश था और न ही इतना समय कि राजनीति के नवागंतुकों को नई सांस्कृतिक चेतना का मुकम्मल पाठ पढाया जा सके. खुदा झूठ न बोलाय, इतिहास इस बात का गवाह है कि राजनीति में लम्पटों कि ऐसी भीड़ पहले कभी नहीं देखी गयी जैसी कि वह संपूर्ण क्रांति के बाद के दिनों में देखी गयी. राजनीति में जातीय उन्माद की यह शुरूआत भर थी. परवान तो वह आगे चढी.

बिहार को बदलने के लिए हमें राजनीति के सामाजिक आधारों को फिर से खंगालना पड़ेगा. राजनीति संसद और विधानसभावों में प्रतिनिधियों का जमघट भर नहीं होता. वहां जो कुछ दिखता है, उसकी जड़ें कहीं गहरे हमारे समाज के ताने-बाने में ही छुपी होती हैं. प्रत्येक सामाजिक बनावट की एक ख़ास राजनीति होती है. अगर ऐसा न होता तो हमारी मौजूदा राजनीति इतने दिनों तक हमारी छाती पर बैठकर मूंग नहीं दल रही होती. पतनशील राजनीतिक संस्कृति, चौतरफा भ्रष्टाचार और ज़लालत के प्रति अगर बिहारी समाज सहिष्णु बना रहा तो इसीलिए कि हमारा समाज ऐसी सहिष्णुता को खाद-पानी देता रहा है.

लोकगीतों के नयों की जगह इन्हीं गूंडों को नायकत्व सौंपा जा रहा है. 'नायक पूजा' कि सामंती संस्कृति में यही गुंडे 'जातीय गौरव' के सांकेतिक प्रतीक बनते जा रहे हैं. राजनीती के क्षेत्र में आवारों की बढ़ती संख्या इसी पतनोन्मुखिता को प्रतिबिंबित करती है.

इस स्थिति से निपटने के लिए नवजागरण की जरूरत है. अगर इस नवजागरण को भगवती जागरण से कुछ अधिक होना है तो बिहार के सभी संवेदनशीलों को अपने और अपनी जाती के न्यस्त स्वार्थों की संकीर्ण गलियों से बाहर आकर एक ऐसे जनमानस को तैयार करना होगा जो विवेकप्रवन हो, आधुनिक हो तथा पुरातन के निर्मम विश्लेषण की क्षमता रखता हो. गीतकारों और कवियों को चाहिए कि वे जनता में सहृदयता, प्रेम और साहस का प्रचार करें न कि चालीसा के नए नए गुटके निकालें. लेकिन यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल. विचार को व्यवहार में उतरने के लिए संस्कार और अंतरात्मा कि भट्ठी में तपना होता है.

पिछले अंक के अंत में जिस पेंच कि बात कही गयी थी, उसका विश्लेषण यहाँ समीचीन होगा। सच है कि बिहारी आज हर जगह पाए जाते हैं, कि वे शिक्षित हैं; कि उनके पास बिहार को विकास कि पटरी पर लाने का हूनर है; कि वे बिहार के विकास के स्वाभाविक सहयात्री हैं. लेकिन, वे एक ख़ास तरह की ज़िन्दगी के आदी भी हो चुके हैं. जो मध्य वर्ग आज बिहार से पलायन कर चुका है, वह तभी लौटकर बिहार जाएगा जब उसे वहां भी वही सब सुविधाएं मिलेंगी जिसे वह अपना अधिकार समझता है. हममें से प्रत्येक व्यक्ति इसी जीवन-शैली का गुलाम है. हमारा दुःख बहुत हद तक एक ख़ास जीवन शैली से चिपके रहने की वज़ह से पैदा होता है. अगर आज की राजनीति में गुंडों का बोलबाला है तो इसीलिए की उसकी मुखालफत के लिए हम तथाकथित पढ़े-लिखे लोग आगे नहीं आ पा रहे हैं. जो साहस एक गुंडा दिखा सकता है, वह कोई भी शिक्षित व्यक्ति दिखा सकता है. लेकिन तोता रटंती विद्या से इसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती. हम एक व्यैक्तिक ख्वाब का पीछा करते बड़े होते हैं और जो कुछ पा लेते हैं, उसे ही ख्वाब का पूरा होना मान लेते हैं. अक्सर लोग कहते सुने जाते हैं कि मेरी अमुक उपलब्धि सपने के साकार होने जैसा है. वास्तव में हम संकुचित सपनों के युग में जी रहे हैं. जहाँ सपने इतने छोटे होने लगे कि उसे कोई परीक्षा उतीर्ण कर पा ले, एक माकन बनाकर हासिल कर ले या फिर अपने बच्चे को किसी विदेशी यूनिवर्सिटी में दाखिला करा कर पा ले, तो समझ लेना चाहिए कि हमारा सपना सर्वे भवन्तु सुखिनः के लिए नहीं है. स्व के सपने को जबतक लोकमंगल की कामना से बद्ध न कर लिया जाए तबतक हम नहीं कह सकते कि हमारा सपना सबका सपना है. बिहार के लोगों को भी अपने अपने सपनों की स्वर्णिम क़ैद से बाहर आकर लोकमंगल के गीत गाने होंगे. तभी और केवल तव्ही हम बिहार को पतनशीलता के भंवरजाल से बाहर निकल पायेंगे. हमारे अनुकूल दुनिया बन जाय तब हम उसमें रहने के लिए तैयार होंगे, यह तो कोई बात नहीं हुई. यह दुनिया हमारे सबके रहने के काबिल बने, इसके लिए हुम सबको एकसाथ मिलकर काम करना होगा. लेकिन .... बहुत कठिन है, डगर पनघट की. सपने देखेंगे तो राह भी निकलेगी. सपनों को जिंदा बचाए रखना बहुत जरूरी है क्योंकि सबसे बुरा होता है सपनों का मर जाना.

3 comments:

संगीता पुरी said...

सटीक विश्‍लेषण...दूसरा भाग भी अच्‍छा लगा।

Raravi said...

shriman kaushal kisore ji,
mujhe bahut achcha laga ki patana se aapne itna sundar aur sateek likha hai.aapka lekh mujhe bhi prerit karta hai ki main bhi apne star par isme yogdaan karoon. main bihar bahut door baitha hoon aur kabhi kabhi lagta hai ki agar mujhe shikayat hai to pahli pahal yah honi chahiye ki main "mauka e vaardat " per pahachoon. par phir vahi madhyavargiya kamjori, suvidhaon ki gulami ki janjeeren hame azaad hone nahi deti. choti uplabdhiyon ko sapnon ka saakar hona maan kar hum apne sachche swapnon ka katl karte hain, haan sach hain ki sapnon ka mar jana sabse dukhad hai kyonki yah sambhawnaon ka mar jana hai.
main aapke aur lekhon ka intjaar karoonga
rakesh ravi

sushant jha said...

अच्छा लेख...लेकिन कोशिश करें कि लेख छोटा हो...बल्कि उसे किस्तों में ही छापें...इंटरनेट आईकैची(नयनप्रिय?) मीडियम नहीं है और लम्बा लेख आंखों को बोर कर देता है। इसलिए किस्तों में ही लिखें भले ही 10-20 किस्त ही क्यों न लिखना पड़े।