Monday, February 9, 2009

पंख दिए हैं तो आकुल उड़ान में विघ्न न डालो . अर्थात हम डरते क्यो है ?

( वीरेन्द्र का लेख - मित्र वीरू के लेख की नयी किस्त प्रस्तुत है। भय , मन की निर्बिघन उड़ान और आत्मविश्वास के अंतर्संबंधों की पड़ताल करता विचारोत्तेजक लेख । पढ़ें , गुने और अपनी राय देने से संकोच न करे । सादर )

जोगी मुनि लोग बता गए हैं कि भय-मुक्ति में सहजावस्था की साधना काफी कारगर होती है. यह सहजावस्था है कौन सी बला? आम आदमी की भाषा में कहें तो सहजावस्था हमारी चेतना की वह अवस्था होती है जहाँ हमारा मन मान-अपमान, राग-विराग, अपना-पराया, दुःख-सुख यानी वह सबकुछ जिसे जोगी-मुनि माया कहते हैं, की अलग-अलग अनुभूतियाँ नही करता. वह सुख में उत्सवधर्मी नहीं होता और न ही दुःख में कातर. देखा जाय तो समझने के लिए यह कोई जटिल बात नहीं है. दिक्क़त फ़क़त इतनी है कि आम आदमी की जिंदगी की चिंताएँ जोगी-मुनि की चिंताओं से अलग होती हैं. उसके सामने सिर्फ़ मोक्ष का सवाल नहीं होता, उसे मुक्ति भी चाहिए - मुक्ति अपनी उन परिस्थितियों से जिनकी वज़ह से उसका जीवन दुखी होता है. उसके लिए सम्भव नही है कि वह मानापमान से परे हो जाए और सबको गले लगा ले - दोस्त को भी, दुश्मन को भी. उसके मन में सदैव एक हलचल मची रहती है कि उसने ऐसा क्या कर दिया कि उसकी जिंदगी लगभग बेमतलब हो गयी. कभी वह ईश्वर को धिक्कारता है तो कभी अपने आपको और कभी पूरे समाज को. लेकिन उसकी यह चीख पुकार ज़्यादा से ज़्यादा तूती की आवाज़ बनकर रह जाती है.

जोगी-मुनियों की तरह वह अकेले ही मोक्ष अथवा मुक्ति के जतन में उलझा रहता है. उसे लगता है कि कोई रहस्यमयी शक्ति उसके खिलाफ साजिश कर रही है. हार-थककर वह भाग्यवादी बन जाता है और मान लेता है कि इस जन्म में न सही, अगले जन्म में उसे ईश्वर-कृपा अवश्य प्राप्त होगी; कि वह भी जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त होकर ईश्वरीय सत्ता का हिस्सा बन जाएगा. उसके लिए दुःख-सुख महज़ संयोग हैं. वह न तो अपने दुःख का निमित्त है, न सुख का. यानी, मुन्दहीं आँख, कतहूँ कुछ नाहीं'. आम आदमी के लिए सहजावस्था की साधना करना न तो सम्भव है और न ही वांछनीय. जीवन सिर्फ़ बुद्धि विलास का मसला नहीं होता. बुद्धि निर्वात में सक्रिय नहीं होती. चित्त की शान्ति जगत की शान्ति की परछाईं भर होती है. अगर हमारे बाह्य जीवन में शान्ति-भंग की तमाम संभावनाएं मौजूद रहेंगी तो चित्त भी शांत नहीं रह सकेगा. शान्ति की खोज कोई अकर्मक क्रिया नहीं है जो बिला वज़ह घटित हो जाए. सच्ची शान्ति की खोज वही कर सकता है जो अपनी परिस्थितियों को ठीक से समझेगा और तदनुरूप ठोस कार्य-योजना को कार्यान्वित करेगा. सिर्फ़ आत्मशुद्धि के जरिये मुक्ति की कामना करनेवाले अनजाने ही बाह्य दुनिया की विसंगतियों की अनदेखी कर देते हैं. भारत का दार्शनिक चिंतन इसका अन्यतम उदहारण है. चूंकि, इस चिंतन में जगत को माया मान लिया जाता है, इसीलिए यह किसी भी सार्थक/निरर्थक हस्तक्षेप के जरिये समाज में परिवर्तन की हर सम्भावना को नकार देता है.

अपने-अपने क़ैद की तार्किकता को वैध मानते हुए मुक्ति की आकांक्षा तो एक पक्षी भी नहीं करता, फिर मनुष्य तो मनुष्य है, उसे यह क्योंकर गवारा होने लगा? जी हाँ, यह सच है कि हम अपनी-अपनी क़ैद को ही ज़्यादा से ज़्यादा सहनीय बनाने के लिए प्रयासरत रहते हैं. हम पिंजडे की सार्थकता पर कभी बहस नहीं करना चाहते. दुनिया बदले नहीं और हमें वह सब मिल जाए जो उस पिंजडे में सम्भव ही नहीं है. ऐसे ही सपनों को दिवास्वप्न कहते हैं. वास्तव में, हम ख़ुद से बेगाने होते हैं और समझते हैं कि हमसे दुनिया ही बेगानी हुयी जा रही है. ज़रा गौर फरमायें तो साफ़ हो जाएगा कि हमारे अधिकाँश दुःख-सुख इसी मनोवृति की ऊपज होते हैं. जब हम अपनी परिस्थितियों का सम्यक आकलन नहीं कर पाते तो अकेला चना भांड फोड़ने की कोशिश करने लगते हैं. ऐसे में जब संयोग से कोई उपलब्धि मिल जाती है तो शिशुवत चपलता के साथ उत्सवधर्मी हो जाते हैं और अगर दुर्योग से कोई विपत्ति आ जाती है तो अत्यन्त कातर और निराश हो जाते हैं. कहने की जरूरत नहीं कि जहाँ हमारी प्रत्येक उपलब्धि-अनुपलब्धि महज़ संयोग-दुर्योग का प्रतिफल होगी, वहां हमारे करने के लिए बहुत कुछ नहीं होगा. भय, संकोच और वैक्तिक आत्मविश्वास की कमी हमारे एकल प्रयासों की तार्किक परिणतियाँ हैं, न कि किसी संजोग-दुर्योग, शकुन-अपशकुन अथवा साजिश का प्रकटीकरण.

गणित में शून्य छोटा हो बड़ा, होता वह शून्य ही है. इंसान का पद छोटा हो या बड़ा, है वह पद ही. पद के हिसाब से न तो इंसानियत बड़ी होती है और न ही छोटी. जिस समाज में इंसानियत के लिए जिस समाज में जितनी ज़्यादा जगह होगी, उस समाज में इंसानियत भी उतनी ही बड़ी होगी. इंसानियत के दायरे को बढाये बगैर न तो हम व्यक्ति के रूप में बड़े हो सकते हैं और न ही समुदाय या समाज के रूप में. और इसीलिए हममें से प्रत्येक को तय करना होगा कि हम अकेले और सबके साथ मिलकर इस इंसानी दायरे को कहाँ तक बढ़ाना चाहते हैं. अपने डर को, अपने भय को, अपनी चिंता को तिरोहित करने का यही मार्ग है. जरूरत फ़क़त इतनी है कि एक-दूसरे के लिए हम अपने-अपने मन में थोड़ा और प्यार, थोडी और ईज्ज़त और थोड़ा और सहिष्णुता पैदा करें. इतना करके हमें कुछ और हासिल हो न हो, मन थोड़ा सहज तो हो ही जाएगा. सहजावस्था की तरफ़ एक कदम ही सही, हाँ चल तो पड़ेंगे.

वीरेन्द्र

2 comments:

रंजना said...

गणित में शून्य छोटा हो बड़ा, होता वह शून्य ही है. इंसान का पद छोटा हो या बड़ा, है वह पद ही. पद के हिसाब से न तो इंसानियत बड़ी होती है और न ही छोटी. जिस समाज में इंसानियत के लिए जिस समाज में जितनी ज़्यादा जगह होगी, उस समाज में इंसानियत भी उतनी ही बड़ी होगी. इंसानियत के दायरे को बढाये बगैर न तो हम व्यक्ति के रूप में बड़े हो सकते हैं और न ही समुदाय या समाज के रूप में. और इसीलिए हममें से प्रत्येक को तय करना होगा कि हम अकेले और सबके साथ मिलकर इस इंसानी दायरे को कहाँ तक बढ़ाना चाहते हैं.


मंत्रमुग्ध हो पढ़ती रही यह सुंदर आलेख.......
बहुत बहुत सुंदर और सत्य कहा है.....निसंदेह विचारणीय और अनुकरणीय........
आभार.

Anonymous said...

'हम अपने-अपने मन में थोड़ा और प्यार, थोडी और ईज्ज़त और थोडी और सहिष्णुता पैदा करें. इतना करके हमें कुछ और हासिल हो न हो, मन थोड़ा सहज तो हो ही जाएगा. सहजावस्था की तरफ़ एक कदम ही सही' - very comforting, very beautiful ... sanjeev ranjan