Thursday, February 19, 2009

माटी का मोह - कथा कई समंदर पार से

( कैसा होता है माटी का मोह ? राजीव जी अपनी आपबीती बता रहें हैं इस पोस्ट में । इन्हें देश दुनिया का व्यापक अनुभव है .दुनिया के सारे समंदर पर कर चुके हैं और कथायों का भंडार है इनके पास । प्रस्तुत है पहली कड़ी )
प्रवासी भारतीय और भारतीय संस्कृति के लिए उनकी भावनाएं - एक व्यक्तिगत अनुभव (भाग १) -
कुछ रोज पूर्व एक मित्र से प्रवासी भारतीयों की भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था पर बात हो रही थी. चर्चा छिडी के रिश्तेदार जब विदेश से आते हैं तो यहाँ के परिवर्तन से अनभिज्ञ होते हैं और अभी भी पुरानी व्यवस्था की उम्मीद करते हैं. उनके लिए समय ठहर सा गया होता है.
कुछ वर्ष पूर्व बैंकॉक में अपनी संस्था के लिए कार्य करते समय फीजी जाने का मौका मिला। वहां हमारे सम्पर्क अधिकारी भारतीय मूल के थे सतीश कुमारजी.
बड़े ही नेक व्यक्ति - भावुक, शिष्टः, और अतिथिप्र्यिय।
उन्होने दूसरे दिन ही अपने घर खाने पर बुलाया। मैं और मेरी Director जो ऑस्ट्रेलिया से थीं, शाम को उनके घर पहुंचे. स्वागत का अच्छा खासा इंतज़ाम था. दोस्तों, और रिश्तेदारों को भी बुला रखा था. सभी बड़े ही गर्मजोशी से मिले. उनके दादा, दादी भी मौजूद थे जो अपने बचपन में ,1930 के दशक में ,बक्सर के गाँव से अपने रिश्तेदारों के साथ गए फीजी आए थे . आपस में वे सब भोजपुरी और अंग्रेज़ी का मिला जुला रूप बोल रहे थे.
मिलते मिलाते मैं दादा दादीजी के पास पहुँचा और प्रणाम किया। दोनो ने आशीर्वाद दिया और अपने पास बैठा लिया.
मैंने खालिस भोजपुरी में पूछा,"आजी कईसन बानी" ?
भोजपुरी सुनते ही दादीजी ने मेरा हाथ पकड़ा और रोने लगीं।
धाराप्रवाह आंसूं बहने लगी और बोली,"बबुआजी राउआ हमरा देश से आइल बानी। आपन माटी के याद हरियर भ गईल"
दादाजी की भी आँखें गीली हो गयीं और वहां उपस्थित कई औरों की भी।
बहुत देर तक वो मेरा हाथ थामें रोती रहीं।
मेरी भी आंखे नम हुई. मेरी Director हतप्रभ थीं की क्या हो रहा है।
इस तरह की भावनात्मक अभिव्यक्ति से शायद अनभिज्ञ थीं।
दादी जी को चुप कराया गया। पर शाम भर उन्होंने मुझे अपने पास से हिलने नहीं दिया।
गाँव की कहानियाँ कहती रहीं। अपने घर, खेत, खलिहान, गाय, दोस्त, सखी, रिश्तेदारों की बातें बताती रहीं. जैसे अपनी यादें ताजी कर रही हों. उनलोगों का गाँव से सभी संपर्क टूट चुका था. कोई रिश्तेदार नातेदार नहीं रह गया था. पर यादें थी. ढेरों. और शायद इतने दिनों बाद उन्हें कोई मिला था जो उनकी यादों को उनकी तरह समझ रहा था.
उनके बच्चों ने भारत नहीं देखा था।
दादी और दादाजी की भावनाओं के प्रवाह में अन्य भी सराबोर थे। शाम इसी उत्साह में बीती।
शेष पुनः
राजीव

3 comments:

ghughutibasuti said...

छूटे हुए देश व भाषा से ऐसा ही मोह होता है। कॉलेज के जमाने में फिजी व मॉरिसस से आए छात्रों की भोजपुरी में बातचीत सुन हम दंग रह जाते थे।
घुघूती बासूती

bijnior district said...

बहुत अच्छी पोष्टं

Anonymous said...

बहुत अच्छा. आगे की प्रतीक्षा रहेगी ... संजीव रंजन, मुजफ्फरपुर