Wednesday, February 25, 2009
विश्व को ललकारने की धृष्टता - मित्र की राय सर आंखों पर
वीरेन्द्र के लेख पर प्रिय संजीव की टिपण्णी -आप ब्लॉग पर आए हम सब अनुगृहित हुए।जैसा की हम सब मित्रों की बरसों पुराणी राय रही है की आप बाचिक परमम्परा के दुरंधर एवं बेजोड़ रहें है.आपके इस अनमोल और दुर्लभ गुण के कारण , ज़माना गवाह है ,आपके मित्र कितना कुछ कर के आप का सानिध्य को बेचैन रहते है।संजीव का मतलब आनद और उल्लास पूर्ण सत्संग ( सात्विक लोग माफ़ करेंगें सत्संग शब्द के ऐसे प्रयोग से )और यह सत्संग ऐसा वैसा नहीं बल्कि , यह दिल मांगे मोर वाला ।खैर मित्र हम सब आपकी बहुमुखी प्रतिभा के पुराने मुरीद रहें हैं .और आप को हम सब घसीट कर यहाँ तक लाये यह अपार हर्ष का विषय है.और हम सब इसे अपनी उपलब्धि मानते हैं।रही बात आपकी टिप्पणी के लक्षणा अर्थ भेद की तो इसे विनम्र निवेदन मान कर पढा जाय ।विश्व को ललकारने का कोई चेतन प्रयास नहीं है। बल्कि यह एक इमानदार कोशिश है आस पास को समझने की । मैं और वीरेन्द्र अपने जीवन के ऊर्जा से सराबोर दौर में सहधर्मी और सह कर्मी रहें है.मिलाना महज संयोग नहीं था बल्कि अपनी आप बीती और जगबीती की तार्किक परिणति थी.हम सब जीवन के जिस पथ पर थे वह एक तरह निजी तो था पर उस दौरा -ऐ - ज़माना का हिस्सा था .परिस्थितियां सवालों को पैदा करती थी और उन सवालों को हम लोग अपने तमाम भोलेपन और अन्गढ़पने में , पर पुरी ईमान दारी से , उत्तर ढूँढ रहे थे । आज भी वो सवाल सामने से हटे नहीं हैं।हम यह तो नहीं कह सकते की उत्तर सही हैं या ये भी की सवाल वाजिब हैं .पर मित्र यकीन मानिए , पुरी संजीदगी और जिम्मेवारी के साथ प्रश्नों से साबका होता रहा है और इनको मन से बहिस्कृत नहीं कर पाये हैं.उत्तर खोजने की धृष्ट ता करते रहें हैं.सच कहें तो इसका एक अनोखा आनंद है।आपके प्रिय कवि सूरदास जी के शब्दों में कहें तो " सात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिये तुला एक अंग ,--, जो सुख सूर अमर मुनि दुर्लभ , वो सुख नन्द की भामिनी पावे "माता यशोदा कान्हा को थपकी देकर सुला रही हैं.सूरदास कहते हैं की सातों स्वर्ग और उसके सारे अप्वार्गों के सुखों को अगर तराजू के एक तरफ़ रख दिया जाय तब भी यह यशोदा के सुख के बराबर नहीं होगा .आप बीती को जगबीती का हिस्सा मानते हुए अगर सवाल खडा होता है और उसका ईमानदारी से उत्तर ढूँढने के प्रयास में अगर दुनिया को ललकारने की जरूरत हो जाय या दुनिया इसे चुनौती माने तो इस मामले में हम असहाय हैं .सादर
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पुनश्च: कौशल प्रिय, आप मुझे निहत्था और विह्वल न कीजिये. मैंने आप की प्रतिभा, जिज्ञासा, स्वाभिमान और आपके संवेदनशील budhhi और ह्रदय की शान में अपनी प्रतिक्रिया अपने तरीके से भेजा भर था की इस दिलचस्प ब्लॉग पर मेरी भी उपस्थिति दर्ज हो. मैं आप और वीरू पर गर्व करता हूँ ... संजीव रंजन
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